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रोज की तरह आज भी बाबू को स्पीच थेरेपी क्लास से लेकर लौटा, तो शाम के साढ़े पांच हो गए थे। कुछ देर बाद मेहरारू भी सब्जी लेकर मकान में दाखिल हुई। दीप, देव के साथ टीवी देखने लगा था; और मैं प्रथम प्रवक्ता के दिसम्बर, 2009 अंक में आंख-मुंह-नाक सहित धंसा हुआ था।
आते ही मुंह बिचका दी थी वह। उसे मुझपर लाड़ आता है; लेकिन उसकी आंख किताबों, पत्र-पत्रिकाओं पर बज़र गिराते हैं। वह पगलेट नहीं है लेकिन मैं समझता हूं। वह कहती है कि आदमी को इतना ही पढ़ना चाहिए कि सहुर भर बोल-बतिया सके; बाकी सब फिज़ूल है। वह अंदर चली गई।
आधे घंटे बाद मैं किचेन में गया, तो बच्चों ने ख़बर भेंट की-‘‘मम्मी, किताब में से खाने के लिए बना रही है...’
वह मंचूरियन बना रही है; उसने बताया।
‘‘ठीक है बनाओ, मैं नीचे कमरे में जा रहा हूं।’’
मेरा स्टडी रूम नीचे है। इसका किराया पन्द्रह सौ अलग से देता हूं। सीमा को उस कमरे से भारी चीढ़ है। और मुझे इकतरफ़ा प्यार।
खैर! नीचे नहीं आ सका। सोचा थोड़ा उसका सहयोग कर दूं।
मैं, सीमा, देव और दीप ने आज वेज-मुचूरिअन खाया। अच्छा लगा।
अपनों द्वारा अपनेपन से परोसी गई चीजों में क्या अद्भुत स्वाद होती है?
नीचे मेरा हाॅकेट, हैलिडे, शिलर, इंतजार कर रहे थे। यह गुलामी खटने का इरादा नहीं है; लेकिन यह करम न करें तो आपको अपने आगे कोई लगाएगा भी नहीं। हैबरमास, नाॅम चाॅमस्की, रेमण्ड विलियम्स, एडर्नों, टाफ़्लर प्रायः मेरे दिमाग को घेरे रखते हैं। इसी तरह आचार्य भरत मुनि, यास्क,, भामह, भतृहरि, पाणिनी, पतंजलि, आन्नदवर्धन,, स्फोटायन....भी मेरे भीतर पेसे रहते हैं।
यह सब नौटंकी नौकरी पाने के लिए। जिन्दगी सुलभ बनाने के लिए। सीमा कहती है, सबकुछ गवांकर पाना भी कोई पाना है। मान लीजिए, प्रधानमंत्री ही हो जाइए और मेहरारू को साथ रखना भी न जानिए....काम के फेर में अपने बच्चों से ही न बोल-बतिया पाइए; यह भी कोई आदमी की ज़िदगी है।
मैं जानता हूं। उसके पास जितना दिमाग है, सोच लेती है। वह सही ही सोचती है; भले सब कहें...मैं मानूं ही; यह जरूरी थोड़े है। मैं अपनी आकांक्षा, मान और प्रतिष्ठा के लिए अपनी पत्नी के अरमानों का गला घोंटता आया हूं। लेकिन, समाज ने अभी तक मेरे लिए कोई सर्जा मुकर्रर नहीं की। सचमुच, समाज मर्दों का पक्ष न ले, तो स्त्रियों के सच्चे जीवनानुभव और यथार्थ-बोध के आगे पानी भरने के सिवाय हमारे पास कोई चारा नहीं बचेगा।
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