Monday, December 15, 2014

निर्णय की स्वतंत्रता, जनता और भारतीय लोकतंत्र

‘जनसत्ता’ समाचारपत्र को भेजी गई राजीव रंजन प्रसाद की प्रतिक्रिया एक पाठकीय टिप्पणी पर
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15 दिसम्बर को जनसत्ता में प्रकाशित शिबन कृष्ण रैणा का पत्र गौरतलब है।
पत्र-लेखक महोदय ने लिखा है कि-‘‘राजनीति अथवा कूटनीति में समझदारी और
सावधानी का यही तो मतलब है कि जनता के मन को समझा जाए और फिलहाल उसी के
हिसाब से आचरण किया जाए। जनता के विपरीत जाने से परिणाम सुखद नहीं
निकलते, ऐसा राजनीति के पंडितों का मानना है।’’ प्रश्न है कि जनता के
बारे में बोलने वाले टेलीविजन-उवाचू या समाचारपत्रपोषी राजनीतिक
पंडितों(विश्लेषक नहीं) के कथन की सत्यता सम्बन्धी प्रामाणिकता क्या है?
अधिसंख्य तो फरेब की कारामाती भाषा बोलते दिखते हैं या फिर राजनीतिक
शब्दावली में अपनी बात आरोपित करते हुए जिनसे जनता का सामान्य ज्ञान भी
दुरुस्त होना कई बार संभव नहीं लगता है। परस्पर विरोधी बातें कहते-सुनते
ऐसे पंडे/पंडितों की बात मानने से अच्छा है कि जनता स्वयं स्वतंत्र मनन
करे; वह अपने स्तर पर यह विचार और निर्णय करे कि नई सरकार के बारे में
उसकी धारणा और विश्वास कहीं ‘मन खट्टे’ करने वाले तो नहीं है? क्या सचमुच
‘मोदीमिक्स’ का विधान रचती नई सरकार परिवारवाद या वंशवाद का विषबेल समूल
नष्ट कर देने का पक्षधर है? यदि नई सरकार की राजनीति में भी
वंशवादी-परिवारवादी  नेता-मंत्री-नौकरशाहों से सजे-धजे वही पुच्छल्ले,
वही तितर-बटेर काबिज हैं तो फिर इसे कांग्रेस का ही डीएनए/क्लोन क्यों न
माना जाए जिससे आज की तारीख़ में भारतीय लोकतंत्र सर्वाधिक संत्रस्त और
सरपरस्ती का शिकार है? यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि ‘कर्क
रोग’(कैंसर) मात्रात्मक दृष्टि से आंशिक हो या अधिक; किसी मरीज की जिंदगी
में उसकी भूमिका हमेशा खतरनाक ही होती है।

पत्र-लेखक महोदय, मेरी इस जानकारी से शायद इतफ़ाक रखें कि
वरुण गाँधी, राघवेन्द्र, अनुराग ठाकुर, दुष्यंत सिंह, पंकज सिंह, नीरज
सिंह, पूनम महाजन, पंकजा मुंडे...जैसे नाम जो राजग पार्टी के दलशोभा हैं
इसी परिवारवाद-वंशवाद के बरास्ते आज राजनीतिक लुत्फ़ और आनंद ले रहे हैं।
अतः मेरी इल्तज़ा है कि कम से कम पत्र-लेखकों की प्रतिक्रिया राजनीति
प्रेरित अथवा किसी भी रूप में प्रभावित नहीं होनी चाहिए। बहुसंख्यक जनता
भले न जानती हो कि किसी लोकतांत्रिक सरकार को बनाए रखने में आन्तरिक
क्रियाशीलता, बाह्य प्रदर्शन, सामूहिक एकता व सहमति, निर्णय-क्षमता और
नेतृत्व की क्या और कैसी भूमिका होती है; लेकिन जनता सदैव न्याय का
पक्षधर और विकास के समर्थन में लामबंद होती रही है। नई सरकार जनता के इसी
आस्था और विश्वास पर बहुमत(कुल बौद्धिक नैराश्य के बावजूद) पाई हुई है।
यदि राजनीतिक पंडित इसे शेषनाग पर टिकी पृथ्वी की तरह स्थिर सरकार मानते
हों, तो मानें...अपनी बला से; लेकिन यह सच है कि जिंदा कौमे पाँच साल
इंतजार नहीं करती हैं। जनता एस्कीलस के नाटक-पात्र ‘प्रोमीथियस’ की तरह
‘निर्णय की स्वतंत्रता’ में विश्वास करती है और उसे ही सही मानती है। इसी
कारण उसका नियति से मुठभेड़ वांछित और स्वाभाविक है। इस घड़ी जम्मू-काश्मीर
का जनमानस अपना भवितव्य लिखने के लिए इस जनादेश में शामिल अवश्य है लेकिन
वह राजनीतिक पंडे/पंडितों का कहा मानने के लिए अभिशप्त हरग़िज नहीं।

अतएव, इस बुरे समय में जनता की समझदारी और धैर्यशीलता की दाद हमें  देनी
ही होगी कि वह जातिवाद और सम्प्रदायवाद से उबरने की हरसंभव कोशिश में
जुटी दिखाई दे रही है। भले देश की जनता ने हमारी तरह डाॅ. रामविलास शर्मा
की उन पंक्तियों को नहीं पढ़ा हो, लेकिन वह हमसे कहीं अधिक व्यावहारिक और
विवेकमना है। डाॅ. रामविलास शर्मा ने बड़ी मानीखेज़ बात कही है कि-‘‘भारत
की युवाशक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। वह यदि मजदूरों-किसानों के आंदोलन से
मिल जाए तो व्यवस्था के लिए बहुत बड़ा संकट पैदा हो सकता है। युवाशक्ति
अगड़ी-पिछड़ी जातियों में बंट जाए, इन जातियों के युवा आपस में लड़ते रहे,
तो व्यवस्था सुरक्षित रहेगी। यदि इसके साथ हिंदू धर्म और इस्लाम की रक्षा
के लिए दस-पाँच जगह मारकाट का आयोजन हो जाए तो व्यवस्था और भी सुरक्षित
हो जाएगी। इस समूचे विघटन से सर्वाधिक लाभ होगा विदेशी पूंजीपतियों को जो
सर्वथा अहितकर और पूर्णतया नुकसानदेह है।'' शुक्र है! भारतीय जनता जाति
और धर्म से अधिक विश्वास लोकतंत्र में करती है। लिहाजा, नफ़रतवादी
असामाजिक तत्त्व शर्मसार हो रहे हैं और सरेआम नंगे भी।
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