Sunday, December 28, 2014

मेरे शोध-निर्देशक : जिनसे मैंने खुद का ‘होना’ जाना

 वह पिछले पांच सालों में से कोई एक दिन रहा होगा। सदानीरा भगीरथ गंगा शब्दों से हमें शीतल कर रही थी हम ज्ञान-प्रवाह में हमेशा की तरह बह रहे थे....दीप्त आंखें तृप्त मन के साथ चुपचाप झर रहे थे
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मेरे नोटबुक के एक पन्ने में 
प्रो. अवधेश नारायण मिश्र

विश्वविद्यालय में संवादधर्मी माहौल नहीं है। बहसतलब मिज़ाज के लोग कई गुटों, खण्डों, भागों में बंटे हुए हैं या जानबूझकर विभाजित हैं। यह सब मेरी सोच और चेतना के विपरीत है। फिर मैं क्यों बीएचयू में हूं? किसने रखा है? कोई जोर-दबाव तो है नहीं। वैसे भी मैं स्वभाव से ‘शार्ट टेम्पर्ड’ हूं। कब कोई बात मुझे बुरी लग जाए। लेकिन अगर लग गई तो प्रतिक्रिया होनी है। अब चाहे परिणाम जो हो। फिर मेरे तुनकमिज़ाजीपन को किसने इस कदर साध दिया कि कुल प्रतिकूलताओं के बावजूद मैं इस विश्वविद्यालय में हूं। छात्रवृत्ति; हो ही नहीं सकता। राजीव रंजन प्रसाद के लिए यह कोई कामना का विषय नहीं है। मुझे पता है, कुछ लोगों में प्रतिभाएं जन्मजात होती हैं। मैं तो श्रमशक्ति युगे-युगे का आह्वानकर्ता हूं। तो मैं कहना क्या चाहता हूं आखिरकार...!

यही कि मुझे प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने रोक-छेंक लिया इस विश्वविद्यालय में। उन्हें इससे क्या कुछ लाभ हो रहा है; मुझे तो नहीं पता; लेकिन मैं क्या पा चुका हूं या पा रहा हूं; यह पता है मुझे। उस दिन सामने थे वे तो कह रहे थे: ‘माक्र्स का दर्शन क्रियात्मक पक्ष की ओर ज्यादा ध्यान देता है। पूर्व का दर्शन कहता है-दुनिया को समझो; जबकि माक्र्स कहता है-दुनिया को बदलो।’ बातचीत में मोड़ आए तो उन्होंने कहा: ‘सच कहना बगावत है, तो समझो हम बागी हैं।’ यह आज के देशी हालत पर सच्चे राष्ट्रवादियों, समाजसाधकों के प्रतिरोध के शब्द थे। वह इस बारे में हमें बता रहे थे: ‘राष्ट्रनीति आज सर्वग्राही और सर्वभसक्षी हो गई है। प्रत्येक राजनीतिक पार्टियों के शिखर पर शून्य है, अन्धेरा है। पुराने समय में राजधर्म प्रचलित थे; बाद में राजनीति शब्द प्रयुक्त होने लगे; बात का सिरा फिर बदला और वर्तमान में दुष्चरित्र लोगों की बढ़ती संख्या और उससे आक्रांत समाज पर चर्चा छिड़ गई थी। रावण का नाम आया तो उन्होंने कहा: ‘चार वेद और छह वेदांगों का ज्ञाता है रावण। इसलिए रावण को दशानन कहा जाता है।' बात छिटकी और बौद्ध-धर्म पर आ गई। वे हमें बताने लगे: करुणा के माध्यम से जगत लोकमंगल की यात्रा करता है। हम सुन रहे थे। मेरी कलम अक्सर सचेत हो जाती, तो कुछ टीप लेती। मैंने उस दिन कई चीजें टीप दी थी:
  • सहानुभूति=>दया=>कृपा; व्यक्ति को छोटा बनाती है।
  • भारत में राजनीति के कारण ही लोकतंत्र की स्थापना उन्मुख हुई।
  • गांधी प्रायः कहते थे-‘मेरा कर्म ही सन्देश है’।
  • लोकतंत्र में विचार कभी नहीं मरता है।
  • ‘आर्यकल्प’ शब्द में श्रेष्ठ युग की कामना अन्तनिहित है।
  • मस्तिष्क और हृदय के विनियोग से विचार निर्मित होता है। यह पत्रकारिता का प्रमुख नियामक तथा उसका मूलाधार है।
  • राजनीति उच्च स्तर की हुई तो स्वाधीनता की ओर प्रवृत्त किया और निम्न हुई तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधीन कर गया।
  • मनुष्यता की निर्मिति सात्तिवक चीजों से होती है।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...