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(मैं खुद कोई सही और सार्थक विकल्प नहीं दे सकता या बन सकता, तो ऐसी स्थिति में मुझे किसी न किसी भरोसेमंद विकल्प को अंततः चुनना ही पडेगा। ‘इस बार’ मोदी; क्योंकि मेरे अनुसन्धान/शोध की उपकल्पना है कि सही नेता कोई प्रचारक-प्रबन्धन नहीं पैदा कर सकता है। उसके लिए सही व्यक्ति, सही संगठन और सही नेतृत्व का होना आवश्यक है। और इन सबके लिए सबसे जरूरी है सही लोगों की सहभागिता और वास्तकविक समर्थन।)
आजादी से पहले गाँधी का नाम एक सहारा था-उस गरीब आदमी के लिए अच्छे दिन आने का। वह प्रतीक-पुरुष थे लम्बे अर्से से भोगे जाने वाले दुःख-तकलीफों और मुसीबतों से मुक्ति का। वह आश्वासन था ईमानदारी से कमाई गई रोटी पर कमाने वाले के अधिकार का। इसी कारण लोकगीतों में उनके नाम का जबर्दस्त बयार बहता था उन दिनों:
‘‘ई खोटी पैसो नी खरी चाँदी आयऽ
ई हवा अधोळ नी गाँधी आयऽ
ई आसमानी बादलों नी सत्याग्रही न की टोळई आयऽ
ई तो गरीब न का लेणऽ फैलायेल गाँधी बाबा की झोळई आयऽ
ई मारनऽ की नी मरनऽ की बात करज
ये काज सो येखऽ अँगरेज भी डरजऽ।।’’
(यह खोटा पैसा नहीं, खरी चाँदी है। यह हवा-आँधी नहीं, गाँधी है। यह आसमानी बादल नहीं, सत्याग्रहियों की टोली है। यह गरीबों के लिए फैलाई गई गाँधी बाबा की झोली है। यह मारने की नहीं, मरने की बात करता है, इसी से अँगरेज भी डरता है।)
गाँधी मर गए अपनी बात को पूरी करने का अलख जगाते हुए। उनकी टोली के लोग कैसे निकले; आज किसी से छुपा नहीं है। अब अर्से बाद मोदी वही बात दुहरा रहे हैं। भाड़े/ठेके के गीतकारों-प्रचारकारों ने उम्मीद गाया है कि वे उनका कष्ट हर लेंगे; भ्रष्टाचारियों का अंत करेंगे; काला धन वापिस लायेंगे; गरीबी का खात्मा करेंगे; बेरोजगारी का अंत करेंगे; सभी लोगों को साथ-साथ बिना किसी टकराव और भेदभाव का जीने का सुअवसर प्रदान करेंगे; अन्तरराष्ट्रीय मंच पर भारतीय पहचान को सुदृढ़ करेंगें; विकास के उद्गम से नई धारा का लीक निकालेंगे; ईमानदारी, प्रतिबद्धता, सत्यनिष्ठा और अहिंसा-व्रत द्वारा भारत की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनःस्थापित करेंगे। ऐसा सचमुच होना तय है क्योंकि देश को इस की बहुत जरूरत है। जनता में मोदी इस आशा का सौ-फीसदी संचार कर पाये, तो उन्हें फिर पैसे के मोल-कीमत पर प्रचार-गाड़ी अथवा विज्ञापनी-घोड़ा दौड़ाने की नौबत नहीं आएगी...लोग खुद लोकराग गायेंगे कि-सुनो रे भैया...सुनो रे बहिनी कि अच्छे दिन आयऽ गये हैं...!
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