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भूमिका :
भारत में जातिवादी लोकतंत्र है। वैसा लोकतंत्र जिसमें जाति-विशेष की चैधराहट सदियों से कायम है। सामन्ती वसीयतनामा लोक के मनोजगत में इस कदर बैठ चुकी है कि उससे निज़ात पाना मुश्किल(?) है बनिस्पत उसे यथानुरूप बनाये रखने के। गोकि जाति-विशेष की भाषा बखानते ये लोग सवर्ण-मानसिकता के उपसर्ग-प्रत्यय हैं। ये मूलतः वास्तविक धातु नहीं हैं; लेकिन लोकतंत्र के अर्थ और गरिमा को परिभाषित अथवा व्याख्यायित करने का काम यही (आताताई)लोग करते हैं। लोक-शक्तियाँ स्वयं भी इन्हीं वर्चस्वशाली या प्रभुत्त्वशाली बिरादरियों के खूँटे से बँधी है। इसके लिए सियासी ताकतें इरादतन ‘जीनकोड’ का पूर्णतया इन्हीं आरोप्य अवधारणाओं के अनुलोम होने का हेठी दिखाती हैं। आज जातिवादी/सामन्ती राजनीति न्यूनतम आज़ादी और सुविधा की शर्त पर अपने विरोधी को ज़िन्दा रखने का एक शातिराना उपक्रम बन चुका है। यह इस बात का भी संकेतक हैं कि लोकतंत्र के ढाँचे में राजतंत्र का होना जनता की नियति का परिपोषक है जो कि दो ही स्थिति में संभव है; पहला-विवेक का अपहरण कर लिए जाने की स्थिति में या फिर उसके मृत हो जाने की स्थिति में। वर्तमान समय में भारतीय जनता इसी मनोदशा एवं मनःस्थिति के द्वंद्व में है। स्वातंन्न्योत्तर भारत में जनतांत्रिक सत्ता की स्थापना का जो खेल हुआ; उसका लाभ सवर्णवादियों और सामन्तवादियों को छोड़कर कहीं किसी को कुछ भी नहीं हुआ है। लोकतंत्र का हालिया सूरत बदहाली के भावमुद्रा में जड़बंध है। सवर्णवादी लोगों ने कार्यिक स्तर पर अवाम के लिए नीति-निर्देशक तत्त्व तो बना लिए; लेकिन अपने साथ ‘बेयाॅण्ड दि बाउण्ड्री’ का ‘लूप-लाइन’ भी जोड़े रखा। आजादी बाद भारत में उदारवाद की आँधी आई, तो ‘सवर्णाय हिताय’ का पंख डगमगाने लगा। सामाजिक विषमता की दीवारें दरकने लगी। सबसे गम्भीर संकट जातिवादी लोकतंत्र के लिए यह उत्पन्न हुआ कि अब 'पूँजी' सत्ता के केन्द्रीय महत्त्व का विषय/मुद्दा बन गया था। लिहाजा, सवर्ण जातदारों ने पागल हाथी टाइप ‘शार्प-शूटरों’ को पालना शुरू कर दिया। पोसुआ आदमीजनों की यह टोली लोकतंत्र के लिए बाद में काफी घातक सिद्ध हुईं। ...और इस तरह भारत में ‘राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण’ बतौर मुहावरा एक नारे की तरह चर्चित हो गया। वर्तमान राजनीति में बाहुबलियों/दागियों की घुसपैठ जिन वजहों से हुई है; वस्तुतः उनमें एक बड़ी वजह ‘सवर्ण जातदारों’ के मन में समाया हुआ ‘असुरक्षा बोध’ और ‘आत्महीनता की स्थिति’ भी शामिल है। दरअसल, राजनीति में घुसी यह जातदारी प्रवृत्ति मौजूदा चुनाव(लोकसभा चुनाव-2014) में जिस तरह आलोकित-प्रलोकित है; उसे देखते हुए भविष्य की राजनीति का जो खाका मन-मस्तिष्क में बनता है; वह बेहद खौफ़नाक और दहशतज़दा है। आइए, उस पर इस शोध-पत्र के अन्तर्गत विवेकसम्मत एवं वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार करें...!
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