Wednesday, April 16, 2014

चुनाव


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हमारे आदत-व्यवहार की
एक सामान्य क्रिया है ‘चुनना’
आचरण-स्वभाव में घुली-मिली
एकदम साधारण शब्द है यह
यह एक कामकाजी शब्द है
जिसका रिश्ता हमारे होने से है
वह भी इतना गाढ़ा कि
हम सिर्फ चुनने का बहाना लिए
बचपन से बुढ़ापे में दाखिले हो जाते हैं
बाल सफेद, बात भुलक्कड़, कमर टेढ़ी
और आँख में अनुभव का
आदी-अंत और अनन्त विस्तार

चुनना आमआदमी के करीब का
सबसे सलोना शब्द है  
अपने चुने हर चीज पर अधिकार जताते हैं हम
अपने चुनाव पर सीना चैड़ा करते हैं
मूँछों में तेल चुभोड़ते हैं
गर्वीली मुसकान संग
बार-बार उन पर हाथ फेरते हैं

हम जानते हैं
यह चुनना किसिम-किसिम का है
जैसे हम चुनते हैं
अपने बच्चों के लिए स्कूल
सब्जियों की ढेरी से आलू और टमाटर
अपने लड़के-लड़कियों के लिए
चुन लेते हैं कोई सुघड़-सा रिश्ता
ज़िन्दगी के आखिरी मोड़ आते ही
हम अपनी सुविधानुसार चुन लेते हैं
एक ठिकाना, ठौर या थाह
जहाँ बैठकर तका जा सके
आसमान को हीक भर या भर नज़र

इसी तरह ज़िन्दगी का राहगीर बने हम
चुनते हैं कोई एक रास्ता
और चल पड़ते हैं उस पर
इस विश्वास से कि हमारा यह चुनाव
कुछ और दे या न दे
इतना मौका मयस्सर तो कराएगा ही कि
हम और हमारा परिवार
हमारे आस-पड़ोस, इतर-पितर, देवता-देवी,
जवार-समाज, देश-दुनिया सब के सब
खुश हों, संतुष्ट और आह्लादित हों
इंडिया गेट और स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी
हम  नहीं जानते हैं तब भी
दुआ में ऊपर उठे हमारे हाथ
उनकी सलामती के लिए चुनते हैं
मानवता के कल्याणकारी शब्द

दरअसल, इस इक छोटे-से शब्द पर
टिका है-हमारा अपना होना
अपनों के साथ होना
अपनों के बीच होना
यानी हमारा चुनाव सही हो या ग़लत
उस पर अधिकार अंततः
हमारा ही है
यह अटल विश्वास होता है
चुनाव करते हम जैसे लोगों का

लेकिन, आम-चुनाव की राजनीति में
हमारा चुनना हमारे होने को नहीं करता सार्थक
हमारे ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ को नहीं बनाता है
शुद्ध, निर्मल और पवित्र
हम राजनीतिक मतदान में जब भी चुनते हैं आदमी
वह चुनते ही बन जाता है जानवर
या फिर हिंस्र पशु
जंगली दानव, राक्षस अथवा घोर आताताई
और बनाने एवं पैदा करने लगता है
अपने ही जैसे लोग
हिंसक,खंुखार और अमानवीय जन

क्या लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे आलू-टमाटर बराने/बिनने की तरह नहीं है
एक लड़का और लड़की के लिए ताउम्र
ससुराल और मायके का रस्म निबाहने की तरह नहीं है
हमारे बच्चे की स्मुति में टंके
उसके शिशु विद्यालय की तरह नहीं है
आखिर लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे और हमारे समाज की तरह
पूर्णतया अर्थपूर्ण, आश्वस्तीपूर्ण और अवश्यंभावी क्यों नहीं है...!!

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