प्रिय देव-दीप,
एक अध्यापक सबसे अच्छा विद्यार्थी होता है। वह विनम्र होता है और अनुशासित भी। उसकी दृष्टि में ज्ञानानुशासन के लिए बाहरी बल प्रायः आरोपित हुआ करते हैं। इसका अपना महत्त्व है जो विद्यार्थी में धैर्य, सयंम, संतोष आदि की भावना जगाते हैं। लेकिन अन्दर का आत्मबल सबसे अधिक कारगर और लाभकारी होता है। यह आत्मबल जीवन-मूल्य पर टिका होता है। जीवन-मूल्य यानी जीने का वह उचित ‘पैटर्न’ जिससे हमारे स्वभाव, संस्कार, अनुभव, स्मृति, कल्पना, दृष्टि एवं चिन्तन आदि को सही खुराक मिलती है। इस तरह जीवन-मूल्य प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार, विचार एवं व्यक्तित्व में संचित पोषक सामग्री है। शिक्षा से इसी जीवन-मूल्य की संरक्षा होती है; उसे विकसित होने का सुअवसर मिलता है। आजकल विकास का अर्थ बेहद सीमित हो चला है। हम अमीरी अथवा धन-संग्रह को मानव-विकास का सूचकांक मानने लगे हैं। भौतिक सामग्रियों के बटोर को अपने सुख-संधान का प्रतीक मान बैठे हैं।
देव-दीप, यह ग़लत है, बिल्कुल भ्रान्त अवधारणा है। आज शिक्षा-विधान इसीलिए संकटग्रस्त हैं; क्योंकि उनमें मूल्यहीन कार्यकलापों का प्रचलन सबसे अधिक हो रहा है। पूँजी की संस्कृति चाहे दरबारी हो या कारखानी। आज की तरह शेयरकारी हो अथवा कारपोरेटी। दौलत से वस्तुओं की कीमत में इरादतन अंतर अथवा फेरफार जरूर किया जा सकता है, पर व्यक्ति के चरित्र, आदत, स्वभाव, प्रकृति, मनोवृत्ति, अभिवृत्ति आदि में परिवर्तन संभव नहीं है। देखा जाए, तो हम ख़राब समाज में जीवित रह सकते हैं, लेकिन सुरक्षित और संतुष्ट भी हो; यह संभव नहीं है। लिहाजतन, ‘केएफसी’ और ‘मैक्डोनाल्ड’ जैसे महँगे रेस्तराँ में खाना खाकर लौटते समय हम लूट सकते हैं। हम अराजक सामाजिकता में आलीशान ‘माॅल’ या ’बिग बाज़ार’ में टहलते हुए बर्बर हिंसा का शिकार हो सकते हैं। यानी प्रगति के सुपर मानकों पर सवार होने के बावजूद मूल्यहीन समाज हमें जीवन-सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता है। संतुष्टि का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। फिर यह विकास किन अर्थों में मोहक और नवाधुनिक है। किस तरह से मानव-प्रगति अब तक का सर्वोत्तम उपलब्धि है।
आज समाज में तनाव, अवसाद, कुंठा, अलगाव, बिखराव, एकाकीपन, टूटन, घुटन, दंभ, ईष्र्या, महत्त्वाकांक्षा आदि का बोलबाला है। राजनीतिक विधि-विधान अपनी ज़मीर बेच चुके हैं। काले धन की प्रतिष्ठा से पूरा देश आक्रांत है। सांविधानिक नियमावली में इतने सुराख कर दिए गए हैं कि उसकी मूल भावधारा पलायित हो चुकी है। सांस्कृतिक दृष्टि से रोगग्रस्त भारतीय समाज का आज सबसे बड़ा आकर्षण पश्चिमी रंग-ढंग, आबोहवा, कार्यकलाप, शिक्षा, दर्शन, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि है। हमारा अपना इन्द्रधनुष गायब है; क्योंकि उसे उकेरने वाली ज़बान दूसरी भाषाओं में कूटीकृत हो चुकी हैं। अब बाहरी ‘आउटपुट’, ‘रिपोर्टकार्ड’, ‘स्केच’, ‘क्लोज़अप’ आदि में देश आगे बढ़ रहा है, तेजी से विकास कर रहा है। यह और बात है कि आजकल सूचना-क्रांति का जिस तरीके से हवा बुलन्द है, टेलीविज़न, सिनेमा, इंटरनेट, वेबसाइट, ब्लाॅगिंग, ट्वीटर, वाट्सअप आदि की दुनिया दिवानी है। उससे एक बात तो तय है कि हम स्क्रीन पर इतिहास की खूबसूरत पटकथा दिखा-दर्शा और उसकी मनमानी व्याख्या-विश्लेषण कर सकते हैं; किन्तु स्वयं इतिहास कभी नहीं रच-गढ़ सकते हैं।
देव-दीप, ऐसा इस कारण कि इतिहास के निर्माण हेतु अनगिनत लोगों की अभिरुचियाँ, आदतें, स्वभाव, अभिवृत्ति, जिजीविषा, जीवन-दर्शन, जीवन-लक्ष्य, साधना-मार्ग, आकांक्षा-स्तर, संकल्प-शक्ति, उदात्तता, अचेतन प्रेरणाएँ आदि प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से कार्य करती हैं। इसे स्मृति, दृष्टि, अवधारणा, लोक-सन्दर्भ, कला, साहित्य, संगीत, नृत्य आदि विभिन्न मानवीय उपागमों के द्वारा पुनःस्थापित किया जाता है जिसे आधुनिक नवमाध्यम जागृत कर पाने में सर्वथा अक्षम हैं। ध्यान देना होगा कि लोक-संस्कृति आधृत भारतीय समाज सचाई को नकारता नहीं है, उससे सामना करता है। उसकी मूल्यदृष्टि में आत्मालोचना एवं आत्ममूल्यांकन के विधान को स्वीकार किया गया है। इसीलिए भारत का पारम्परिक समाज आत्मचेता है। उसे द्वंद्व अथवा वाद-विवाद-संवाद से परहेज़ नहीं है। उसके लिए मूल्य आधारित चिन्तना सर्वोपरि है; लेकिन आजकल तकनीकी-प्रौद्योगिकी की आड़ में झूठ की जबर्दस्त धौंस है। अनैतिक तथा अव्यावहारिक चीजों में इस कदर इज़ाफा किया जा रहा है कि सच कहीं किसी कोने में दुबक गया है। अतएव, भारतीय समाज अजीबोगरीब तरीके से प्रगति-साधना में जुटा है। वह येन-केन-प्रकारेण अग्रणी राष्ट्र होने-बनने को उतावला है। वह मौलिक सोच की जगह पश्चिमी उतरन से अपने को ज्ञानवान तथा सूचना-समाज बनाने को लालायित है। वाल्मीकि, व्यास, तुलसी, कबीर, रैदास, फुले, विवेकानंद, तिलक, टैगोर, गाँधी, आम्बेडकर आदि के शिक्षा-दर्शन में मन-मस्तिष्क एवं हृदय-हाथ की परिकल्पना कई गई है। इसमें ‘सर्वधर्म समभाव’ की चेतना, भाव और मूर्ति समाहित है; जबकि आधुनिक शिक्षा पूँजी और अर्थशास्त्र आधारित कसौटियों पर अपना ज्ञान बघारता है। जबकि यह कटु सचाई है कि आधुनिक विज्ञान आधारित कुल शिक्षण-प्रशिक्षण के बावजूद व्यक्ति के वर्तमान से प्रक्षेपण-पलायन को रोक सकना असंभव हैं; बुद्ध और महावीर की तरह ‘आत्म’ की खोज तो नामुमकिन ही है।
दरअसल, हमने ज्ञान को सिद्धान्त में परिभाषित करके छोड़ दिया है। हर चीज के लिए एक खाका अथवा बाना बना लिया है और उसी के अनुसार हम आचरण-व्यवहार करने को अभिशप्त हैं। हम मौलिक खोज अथवा स्वप्रेरणा के स्थान पर अंधानुकरण का आदी हो चले हैं। इसके विपरीत भारतीय दर्शन हर क्षण नया अनुभव करने, मौलिक सोचने और लीक से अलग हटकर भिन्न किन्तु विशेष प्राप्त करने का हिमायती रहा है। भारतीय समाज की चिन्तना में मानव-जीवन केन्द्र में है जिसके कल्याणार्थ वह शिक्षा को एक जरूरी साध्य एवं साधन मानने का पक्षधर है। लेकिन आज हम जैसे ही इस ओर ध्यान देते हैं। हमें समाज परे धकेल देता है। चूँकि समाज से बाहर हम जिन्दा ही नहीं रह सकते, इसलिए हम अपनी क्षमता भर प्रतिरोध, विरोध, विद्रोह, आन्दोलन आदि का प्रदर्शन करते हुए जीवित हैं। मणिपुर की इरोम शर्मिला का उदाहरण हमारे सामने है। वह अकेले लड़ी। अंतिम दम तक लड़ी। लेकिन पूरा ज़माना उसकी माँग और अधिकार से बेख़बर रहा। जिंदगी इसी तरह याचना में समाप्त करने की बजाए उसने अनशन के स्थान पर दूसरे तरीके से लड़ाई लड़ने का मन बनाया, जो स्वागतयोग्य कदम है।
देव-दीप, पता नहीं आदमी इस ओर से असंवेदनशील क्यों है? किस कारण से वह उन चीजों को नज़रअंदाज कर रहा है जिससे होने वाला परिणाम भयंकर एवं खतरनारक होंगे। सब देख और जान रहे हैं कि आज समाज में चारों तरफ हिंसा-प्रतिहिंसा का खेल खेला जा रहा है। हर तरफ असामाजिकता, अराजकता और अमानवीयता हावी है। मनुष्य के कृत्य/करतूत पूरी मानवता को शर्मसार कर रहे हैं। अशोभनीय घटनाएँ थोकभाव घट रही हैं। दलितों यानी आर्थिक रूप से अभावग्रस्त/विपन्न व्यक्ति पर समाज, राजनीति, संस्कृति, विज्ञान, तकनीक, प्रौद्योगिकी सबकी मार पड़ रही है। स्त्रियाँ मनुष्यता की कोटि से मानो नीचे धकेल दी गई हैं। उन पर होने वाल अत्याचार जघन्य हैं जिसे असभ्य समाज में ही अंजाम दिया जा सकता है। इसी तरह लोकतंत्र का अंधा-कानून चुप्पी साधे हैं और अयोग्य/नाकाबिल राजनीतिज्ञ ऊँटपटांग निर्णय ले रहे हैं या फिर जरूरी कार्रवाई को नज़रअंदाज कर अपनी सुख-साधन, ऐशोआराम में जुटे हुए हैं। ऐसे में कहाँ है-राष्ट्र, राष्ट्रीय भावना, सामाजिक सद्भाव, सांस्कृतिक चेतना, नवाधुनिक दृष्टि....! यह यक्ष प्रश्न है। आज हम सभी विकल्पहीनता को ही जीवन का प्रमुख केन्द्र अथवा आदर्श माने बैठे हैं। अब यही हमारे रोजमर्रा का प्रसाधन है, खाधान्न और मनोदैहिक जरूरत है। इसी को अब हम ओढ़-बिछा और पहन रहे हैं। लोकतंत्र, गणतंत्र, संविधान, समाज, संस्था, सेवा, हित, कल्याण, मानवता, भाईचारा, धर्म, आदर्श सबकुछ बलात् बहिष्कृत हो चुके हैं या होने के कगार पर हैं।
देव-दीप, हम समाज के सेवक हैं और प्रकृति के चेतस उपासक। यदि यह नहीं हैं तो सीधी बात है कि हम मनुष्य नहीं हैं। स्त्री अथवा पुरुष नहीं हैं। हाँ, ऐसा न होकर हम जो हैं उसका इंसाफ प्रकृति करेगी...हम नहीं। मैं-तुम तो किसी कीमत पर नहीं। हम सब जो कभी किसी का बुरा नहीं कर सकते या कि इस बारे में सोच सकते; ‘दैवीय न्याय’ (पोएटिक जस्टिस) की प्रतीक्षा में हैं।
तुम्हारा पिता
राजीव
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