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कुकुरमुते जमात में उगते-पनपते हैं। लेकिन, स्त्रियाँ कुकुरमुते की जात नहीं होती।
एक के बाद दूसरी लड़की हुई नहीं कि आदमी के भीतर का अदहन खौलने लगता है। इस अनचाही ताप से समाज का पितृसत्तात्मक चेहरा झुलस जाता है। कोहराम की भाषा में चर्चा के सोते फूट पड़ते हैं। लूटी किस्मत का हवाला दे कर उन नवजात लड़कियों को हीक भर कोसा जाने लगता है जिन्हें सयाने होने तक अनगिनत दुश्वारियाँ झेलनी होती है। राहचलते मजनूओं से निपटना होता है। शोहदों की सीटी की आवाज़ और भद्दे कहकहे सुन चुप्पी में सँवरना होता है। अनचाही आँख जब उनके देह को छूकर निकलती है, तो तन-मन पर क्या कुछ गुजरता है; यह वे क्या जाने जो सिर्फ यह गाना गाना जानते हैं-‘‘लड़की है या छड़ी है, शोला है, फुलझड़ी है....440 वोल्ट है...छूना है मना।’’
ऐसे कठिन परिवेश में पल-बढ़ कर युवा हुई लड़कियाँ भारतीय संसद/राज्य विधानसभाओं में कितनी मात्रा में उपस्थित हैं? अन्दाजिए जनाब! शरमाइए मत, गिनिए। यह सचाई है कि वर्तमान राजनीति आज भी लड़कों की बपौती है। राजनीतिक आकागण अपने बेटों को ही अपना सत्ताधिकारी घोषित करते हैं। उनके गुणगान-बखान में रैली-रेला ठेलमठेल करते हैं। और लड़कियाँ...? उनके लिए राजनीति में आने का रास्ता बंद रखा जाता है। ऐसा नहीं है। बल्कि इस दिशा में उन्हें सोचने ही नहीं दिया जाता है। हाँ, जिन प्रतापी राजनीतिज्ञों के लड़के नहीं होते....वे अपने बेटियों को ‘प्रमोट/प्रोजेक्ट‘ अवश्य करते हैं। यह उदारीपन नहीं है...यह काइयाँगिरी है जिसमें उनका लक्ष्यार्थ अपने राजनीतिक वंशावली के 'डीएनए' को हर हाल में बचाकर रखना होता है। यह कुटनीतिक चाल है जिसमें लड़कियों को राजनीति ‘लाइफलाइन एलीमेंट’ की तरह आजमाया करती है।
बने रहिए आप रजीबा के साथ....जल्द ही आप पढ़ेगें भारतीय राजनीति में शामिल आधी आबादी का सच, हाल-ए-हक़ीकत, मुकम्मल तफ़्तीश और पड़ताल....जो भारतीय राजनीति में आधी आबादी के उपस्थित होने या न होने सम्बन्धी ‘पाॅलिटिकल मोनोपाॅली’ का बखान/बयान करती है।
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