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हमारा रूख कई मसलों पर चलताऊ किस्म का होता है। चाहे वह कितना ही गम्भीर
क्यों न हों? हम जबतक खुद किसी दुर्घटना या समस्या का शिकार नहीं हो जाते;
बुरी तरह उसकी चपेट में नहीं आ जाते; तबतक हमें अपनी ज़िदगी की खुशमिज़ाज
रंगीनियाँ ही एकमात्र सचाई मालूम देती है-‘‘ये इश्क़-खुमारी तुमतक...तुमतक,
ये सब तैयारी तुमतक...तुमतक’।
आपमें से कितने हैं जो जानते हैं पोस्ट ट्राॅमेटिक स्ट्रेस डिसआॅर्डर(पीटीएसडी) के बारे में। नहीं जानते हैं, तो जानिए ज़नाब!
यह दिमागी महामारी है। तनाव-अवसाद का ऐसा चरम रूप जो हाल के दिनों में
युद्ध, हिंसा, अपराध, हत्या, अशांति इत्यादि के साए में जी रहे लोगों को
तेजी से लील रहा है। यह तनाव, अवसाद, कुण्ठा, विफलता आदि के लक्षण के साथ
हमारी ज़िदगी में सबसे पहले शामिल होता है....फिर आत्महत्या की परिणति के
रूप में इंसान की इहलीला ख़त्म करके ही मानता है।
यह
मनोविकार/स्नायुविकार है। परिवेश/परिस्थिति की प्रतिकूलताओं के साथ जब
हमारा देह-दिमाग सन्तुलन नहीं बिठा पाता है, तो पीटीएसडी का उभार हमारे
भीतर दिखने लगता है। हम अंतर्मुखी होते चले जाते हैं। जरूरी चीजों से अरुचि
होने लगती है। बार-बार अतीत को टटोलते हैं। भयावह/भयानक सपने देखकर डरते
हैं, बेवजह भयभीत होते हैं। इस स्थिति में चैन की साँस कैसे ली जाए, जब
कई-कई दिनों तक नींद ही नहीं आते आँखों को।
एरिक फ्राम ने जोर
देकर कहा था कि स्नायुविकारों की उत्त्पति सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों से
होती है। आज हमारा सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण अत्यधिक डरावना हो चला है।
हिंसा-प्रतिहिंसा के खेल ने हत्या और मौत को हमारे लिए रसभूमि(वैटिल फिल्ड)
बना दिया है। विषम परिस्थितियों ने इसे ख़ासोआम के साथ ऐसे नत्थी कर दिया
है जैसे यह हमारी नियति का अभिन्न हिस्सा हो। अतः भारत में जम्मू-काश्मीर
का युद्धक्षेत्र हो, नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र हो; गैंगवार का इलाका
हो.....आज लोगों में असुरक्षा की भावना बुरी तरह व्याप्त है। वे किसी न
किसी मनोरोग या फिर पीटीएसडी से पीड़ित हैं। बचाव के लिए लोग नशीली दवाओं का
सेवन कर रहे हैं। ग़लत राह चुन रहे हैं। कई बार आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध
को भी अंजाम दे रहे हैं।
यह स्थिति हमारे द्वारा उपार्जित है।
हमने विज्ञान, तकनीक, यंत्र, मशीन, पूँजी, साम्राज्य, वर्चस्व, प्रभुत्त्व
आदि की जो अंतहीन लड़ाई शुरू की है। यह उसी का मिश्रधन है। ज़िदगी गणित नहीं
होती। लेकिन आजकल हम ज़िदगी में गणित के फार्मूले ही बेहिसाब आजमा रहे हैं।
दुनिया भर में बाज़ार की खोज/कब्जे के लिए अनचाहे/अनावश्यक ढंग से युद्ध लड़
रहे हैं। बदले में हम स्वयं ऐसी घातक/लाइलाज बीमारियों की चपेट में आ रहे
हैं जो हमारे जीवन की बुनियादी ताकत ही ख़त्म कर दे रही है। और हम विजेता
होकर भी ज़िदगी का दाँव हार जा रहे हैं। ब्रिटेन में आई एक रिपोर्ट के
मुताबिक अफगाानिस्तान और तालिबान में जितने सैनिक युद्ध के दरम्यान मारे
गए...उससे अधिक वहाँ से बचकर लौटे सैनिक आत्महत्या कर मर गए। मुख्य वजह,
पीटीएसडी जैसी संहारक बीमारी।
क्या इस विषय पर हम गम्भीरता से
विचार करेंगे? अपने देश के दिन-ब-दिन ख़राब होते जा रहे माहौल को समय रहते
दुरुस्त करने के बारे में कुछ बेहतर सोचेंगे?
आशा है, इस मसले पर आपसब बहसतलब नज़रिए से विचार-विमर्श एवं संवाद करेंगे।
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