Monday, July 29, 2013

लद्दाख भी आसमान से धरती जैसा ही दिखाई देता है.....: रामजी तिवारी


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(पढ़िए रामजी तिवारी का लिखा लाज़वाब यात्रा-संस्मरण
‘लद्दाख में कोई रैन्चो नहीं रहता’ शीर्षक से;
परिकथा, जुलाई-अगस्त, 2013 अंक में प्रकाशित)

पहाड़ हवा में नहीं होते। वे ज़मीन पर होते हैं। इसीलिए मजबूती से टिके रहते हैं।
उनका ज़मीन से नाभिनाल रिश्ता है। रैन्चोगिरी की ख़ुमारी में डूबे हम पर्यटकों
से प्रायः वे भिन्न महत्व के होते हैं। दरअसल, इस रिश्ते के कई-कई छोर या सिरे होते हैं।
हमारे पाँव इन पहाड़ों को छूते हैं। हमारा देह इन पहाड़ों पर टिकते हैं, तो कई मर्तबा
पर्याप्त आॅक्सीजन न होने का रोना भी रोते हंै। ‘‘साँस उखड़ने की यह कमी लेह में उतरने के
आधे घंटे बाद इतनी शिद्दत से महसूस होने लगती है कि पहली बार आपको अपने स्वस्थ जीवन में यह एहसास भी हो जाता है कि साँस लेना भी एक जरूरी काम है।’’ जरूरी तो पस्त होते तबीयत के साथ पहाड़ों के मन-मिज़ाज को बूझना भी होता है। अक्सर ‘‘हम मैदानी लोगों के दिमाग में पहाड़ों को लेकर कितना भ्रम रहता है। हम सोचते हैं कि पहाड़, रास्ते के हिसाब से बंद जगहें होती हैं लेकिन यहाँ तो इस जगह(लद्दाख) का अर्थ ‘बहुत सारे रास्ते’ के रूप में खुलता है।’’ इसी के साथ खुलता है लोकरंग। ‘‘कुमायूँनी हो या गढ़वाली, हिमाचली हो या डोगरी या फिर लद्दाखी, सभी पहाड़ी लोक धुनों में एक खास किस्म की मस्ती, उल्लास, उमंग और रवानी पाई ही जाती है।’’ अगर आप घूमने निकले हों, तो ‘‘घूमने के लिहाज़ से यह आवश्यक होता है कि आप उस क्षेत्र के गाँवों और दूर-दराज के इलाकों से परिचित हों। विविधताएँ और खासपने की तलाश आपकी वहीं पूरी होती है। वहीं उस समाज का लोक भी बचा होता है, और संस्कृति भी। अन्यथा आप दिल्ली में हों या लन्दन में, न्यूयार्क में हों या मेलबोर्न में, सारे जगहों के पाँच-सितारा होटल एक ही जैसी विशेषताओं से सुसज्जित मिलेंगे।....मेरी राय में लेह जैसे जगहों पर शहरों की कुलाँचे भरती बदहवाश दुनिया को भी जरूर आना चाहिए कि वह इस तथ्य का प्रत्यक्ष अनुभव कर सके कि पृथ्वी की छाती पर मूँग दलते हुए वह अपनी भौतिकता की खातिर जो खेल खेल रही है, आने वाले समय में उसका क्या हश्र हो सकता है। लेह में तो यह काम प्रकृति ने किया है, लेकिन शेष दुनिया में....?’’

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