हमारी युवा पीढ़ी ‘स्वयं में’ एक वर्ग बन चुकी है, लेकिन अभी स्वयं के लिए स्वतन्त्र नेतृत्व की भूमिका में नहीं है। बच्चों! देश में युवाओं की कमी नहीं है। लेकिन, आधुनिक भारतीय राजनीति के बैठकखाने में सामान्य युवाओं का प्रवेश लगभग वर्जित-सा हो गया है। ऐसा क्यों है? इस विषय पर हमारा बहसतलब होना बेहद जरूरी है। आज संसद में जितने युवा राजनीतिज्ञ पदस्थ हैं उनमें से अधिसंख्य पैतृक राजनीति की उपज हैं; परिवारवादी सलतनत के बैण्ड-बाज़ा-बारात हैं। इन युवा राजनीतिज्ञों के पास क्या कुछ नहीं है, सिवाय व्यक्तित्व, मूल्य और भारतीय आत्मा के। विडम्बना यह है कि वे ही ताकत में हैं। वे ही सत्ता और नेतृत्व में हैं। इन युवा राजनीतिज्ञों का ज़मीनी जनाधार ठनठन-गोपाल है। ‘मास अपील’ के नाम पर भाषा में लीपापोती अधिक है। इसके बावजूद वंशवादी पैराशूट से ज़मीन के सबसे ऊपरी टीले(संसद) पर काबिज़ यही हैं, हाथ यही हिला रहे हैं; कमल यही खिला रहे हैं; साइकिल यही चला रहे हैं; हाथी यही दौड़ा रहे हैं; यहाँ तक कि ‘आप’ में भी हम शामिल नहीं हैं। हम सिर्फ संज्ञा और सर्वनाम से नवाज़े जा रहे शब्द हैं। इन शब्दों के प्रयोग में भी सत्ता की राजनीति है; अर्थतंत्र का अर्थबोध-निरोधक खेल है। युगचेतना के कवि धूमिल की सीधी किन्तु सधी भाषा में कहें, तो-‘‘उन्होंने कभी किसी चीज को/सही जगह नहीं रहने दिया है/न संज्ञा/न विशेषण/न सर्वनाम/एक समूचा और सही वाक्य/टूटकर बिखर गया है/उनका व्याकरण इस देश की/शिराओं में छिपे हुए कारकों का हत्यारा है.../वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं/उसके रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है’’
देव-दीप, निज स्वार्थ की कड़ाही में देश की जनता को पकौड़े की तरह छानते ये राजनीतिज्ञ(यदि तुम्हें हँसी आ रही हो, तो हँस लो) कहीं किसी मौके पर ‘क’ भी बोलते हैं तो वह मैनेजमेंट थ्योरी के किसी न किसी सिद्धान्त पर टिका होता है। वे चुनावी-सीज़न में कहीं किसी घर-बस्ती, जवार-इलाका, कुँआ-तालाब, स्कूल-संस्था आदि को छू-छा भी रहे होते हैं, तो वह आधुनिक प्रचार के किसी न किसी जुगाड़-तकनीक से मेल खाता है। चूँकि नैतिकता का दमन है, शोषण का बाहुल्य है; अतः इन्हें अधिकार है कि ये मंच से बोलें, टेलीविज़न में दिखें और अख़बार में छपें। अपने पुरनिए सत्तासीनों की तरह जनता को ये मूर्ख मानंे, उन्हें भोला और भालू कहें। वे पूँजी के लम्बरदारों की माफ़िक हम को भेड़, गड़ेरिया, हेडलेस चिकेन, मैंगोज पिपुल इत्यादि कहें और हम चुपचाप हँेसे...मौन विहंसे। ख़्यातनाम कवि रघुवीर सहाय की कविता की तर्ज़ पर-‘हँसो-हँसो, जल्दी हँसों।’
देव-दीप, यहाँ सचाई का एक पहलू यह भी है कि वर्तमान राजनीति से लड़कियाँ बुरी तरह बेदख़ल हंै। दिल्ली से लेकर जम्मू-काश्मीर तक लैंगिक भेदभाव की मानसिकता में लिपटे राजनीतिज्ञ अपने बेटों को ही अपना सत्ताधिकारी घोषित करते हैं। उनके गुणगान-बखान में रैली-रेला आयोजित होते हैं। और लड़कियाँ...? उनके लिए राजनीति में आने की सोच तक पर पहरा जमा होता है। हाँ, जिन सियासी राजनीतिज्ञों के लड़के नहीं होते....वे अपने बेटियों को ‘प्रमोट/प्रोजेक्ट‘ अवश्य करते हैं। यह स्वभाव और चरित्र का उदारीपन नहीं है, बल्कि यह समझ के स्तर की काइयाँगिरी है जिसमें उनका लक्ष्याार्थ अपनी राजनीतिक वंशावली के ‘डीएनए’ को हर हाल में ‘सेफ-साउंड’ रखना होता है। यह एक कुटनीतिक चाल है जिसमें विकल्पहीनता की स्थिति में ही लड़कियों को राजनीतिक दावेदार के रूप में ‘बाई-प्रोडक्ट’ की भाँति इस्तेमाल किया जाता है। इस मुद्दे पर पूरी संवेदनशीलता के साथ अलग से विचार किए जाने की जरूरत है।
देव-दीप, यह स्थिति तब है जब भारतीय युवक-युवतियाँ जीवन के विविध क्षेत्रों में विभिन्न विकल्पों का सामना करते हैं; उन्हें कार्यान्वित करते हैं। यथा-पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, व्यावसायिक, वैश्विक इत्यादि। युवजन के लिए ये सभी जीवन के सक्रिय स्वभाव और व्यवहार हैं जिसका तात्पर्य है-ज्ञान, कुशलता और प्रतिबद्ध कार्रवाई एवं इन तीनों की परस्पर गहन अंतःक्रिया। आज भारतीय समाज इस अंतःक्रिया का अनुसमर्थक है; और हितचिन्तक भी। इस समर्थन या पैरोकारी की वजहे हैं-समाज में युवकों की विशिष्ट स्थिति, इसके मूल्यों एवं आदर्शों का सक्रिय आत्मसातीकरण, जीवनानुभव, यथार्थबोध, संचार की अभिप्रेरणा, पारस्परिक सम्बन्धों के विभिन्न पहलुओं से जुड़ी प्रयासें इत्यादि। युवजन चेतना की ये विशिष्टताएँ राजनीतिक समाजीकरण की प्रक्रिया को समझने और युवजन आन्दोलनों और संगठनों के विकास की गत्यात्मकता की खोज करने के लिए बहुत जरूरी है।
चलो...., विस्तार से चर्चा होगी इस पर फिर कभी!
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