Monday, September 2, 2013

हमारा यह जीवन सिर्फ संज्ञा-सर्वनाम नहीं है....!


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(शोध-पत्र प्रस्तुति)

पश्चिम वाले हमारी ओर मुँह करके सूर्य-नमस्कार करते हैं;
और हम पश्चिम की ‘चियर्स लिडरों’ को देखकर आहे भरते हैं।
वे हमारी आस्था की ड्योढ़ी पर सर नवाते हैं,
हमारी पवित्र गंगा में घंटों खड़े हो कर जल ढारते हैं;
वहीं हम अपने देसी रेस्तरां में विदेशी डिश चखते हुए अपनी गर्लफ्रेण्ड को
शानदार ‘प्रपोज’ मारते हैं, या सड़कछाप मंजनूओं की तरह
उनकी स्कूटी पर बैठकर  हैंडिल सम्भाल रहे होते हैं।
वे देह की साँस से ऊब चुके होते हैं। हम पूरबवासी देह की साँस लेते हुए अपना जीवन-पबितर कर रहे होते हैं; हमारे घर की स्त्रियां भी ऐसा ही कुछ कर रही होंगी फिलहाल....!  धन-दौलत को दुनियादारी निभाने का जरिया मात्र मानते हैं; और हम अपने काले धन को सफेद करने के लिए अपने भगवान के दरबार में
सोने का कंगन, चेन, लाॅकेट, बिस्कीट, अशर्फी, गिन्नी.....बना रहे होते हैं।

महोदय/महोदया,

मानव-जीवन सिर्फ पश्चिम-पूरब या उत्तर-दक्षिण नहीं है।
हमारा यह जीवन हम-वे, मैं-तुम-वह भी नहीं है।
मैं स्पष्ट शब्दों में यहाँ अपनी बात रखना चाहता हूँ कि
हमारा यह जीवन सिर्फ संज्ञा-सर्वनाम नहीं है.....!

तो सवाल उठता है....क्या है हमारा यह जीवन?

दरअसल हम और हमारा व्यक्तित्व सांख्यिकी की भाषा में चर-सरीखा है।
हमारा समस्त जीवन-व्यापर इन चरों के व्यवहार पर ही आधृत है।
ये चर स्वतन्त्र चर भी हैं, और आश्रित चर भी।

(इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में राजीव रंजन प्रसाद से बार-बार सिर्फ अबस्ट्रेक्ट पढ़ने के लिए कहा जा रहा है, फिर भी वे अपनी बात जारी रखे हुए हैं...)

मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व स्वतन्त्र चर है जबकि उसका बाह््य व्यक्तित्व आश्रित चर है।
बाह््य व्यक्तित्व हमेशा आन्तरिक व्यक्तित्व से ‘इंटरलिंक’ होता है। यह ‘कनेक्शन’ ही दोनों के आपसी अंतःक्रिया का मूलधन है। व्यवहार अथवा भाषा/वाक् में प्रकाशित हमारे सारे करतब/कर्तव्य/अधिकार इत्यादि तो प्राप्त ब्याज मात्र हैं जिन पर हमारा समस्त वाक्-व्यापार एवं जीवन-व्यवहार टिका होता है। यहाँ मैं अपनी बात थोड़े विस्तारपूर्वक कहना चाहता हँू। उम्मीद है, आपसब धैर्य के साथ सुनेंगे....,
 
(कार्यक्रम संचालक का अनुरोध, मुख्य वक्ता को हवाई मार्ग से दिल्ली पहुँचना है। वक़्त कम बचे हैं। इसलिए उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित किया जाता है। राजीव रंजन प्रसाद अपना कृशकाय शरीर लिए अपनी जगह आकर धँस जाते हैं। श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग जो उन्हें आज सुनना चाहता था....वंचित रह जाता है।)

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...