विषय : ‘वर्तमान युवा
राजनीति: चित्तवृत्ति और लोकवृत्त'
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10 सितम्बर, 2013; समय: 3 बजे दोपहर बाद; हिन्दी विभाग
युवा राजनीति पर बात करना मेरे लिए भाषा में सत्याग्रह करना नहीं है।
राजनीति सिनेमा नहीं है कि इसका उद्देश्य या ध्येय मनोरंजन मान लें। राजनीति आदमी की भाषा में आदमी होने की वैध तहज़ीब है। विधान का एक ऐसा वितान जिसमें हर आदमी को अपने हिसाब से सोचने, बोलने और करने की स्वतन्त्र और समान छूट प्रदान की जाती है। इस छूट की तमाम अर्थच्छवियाँ हो सकती हैं; लेकिन इससे किसी को तकलीफ हो, नुकसान हो या वे सामाजिक चरित्र के लिए ख़तरनाक साबित हों...इसकी सख़्त मनाही है। ऐसी विडम्बनापूर्ण स्थिति में रोकथाम के लिए बीसियों तरीके हैं जिससे समाज अपनी राजनीतिक चेतना को उत्तरोत्तर बड़ा और समृद्ध करता है। बशर्तिया विधान-नायक जनता के बीच का आदमी हो। बीच का आदमी कहने का तात्पर्य सामाजिक संस्कार-व्यवहार से पगे उस आदमी से है जो अंतिम आदमी की खै़रख़्वाही के लिए फिक्रमंद होना जानता है। राजनीतिक फिकरे कसने या प्रतिस्पर्धी कहकहे लगाने की कुचेष्टा वह नहीं कर सकता है, तो नहीं कर सकता है। खैर!
हाल के दिनों में भारतीय राजनीति ने राजलिपि विकसित करने में अभूतपूर्व सफलता पा ली है जिसमें राजनीतिक वसीयत लिखे जा रहे हैं। मौजूदा लोकतंत्र में इसी वसियत को वंशानुगत आधार मानकर युवा राजनीतिज्ञ भारतीय जनतंत्र में विराज रहे हैं; यह निर्णय कर रहे हैं कि जनता आधी रोटी खाएगी या पूरी। जिस जनता के साथ इनका बचपन से युवा होने तक सोना-बिछौना कुछ नहीं लगा; उस जनता की भूख को इतिहास बनाने का नारा ये युवा राजनीतिज्ञ लगा रहे हैं। ये ऐसे ही भाषा में तफरी मारते हुए मीलों आ गए हैं...अभी और मीलों जाने की हेठी इनमें बेशुमार हैं। राजनीतिज्ञ जब बेशर्म होते हैं, तो धर्म, जाति, भाषा, वर्ग, क्षेत्र इत्यादि के जन-बैंकर में घुस जाते हैं। सवाल है, जनता की जरूरत क्या सिर्फ पेट की भूख से निपट जाएगी? क्या मंदिर की घंटियाँ टुनटुनाने से उनके घरों में ‘सुजलाम्-सुफलाम’ हो जाएगा? अगर नहीं, तो जनता धृतराष्ट्र और दुर्योधन को ढो क्यों रही है? वह लोकतंत्र की बिनाह पर महाभारत क्यों नहीं लड़ रही है? ये सवाल जितने आसानी से पूछे जा सकते हैं...जवाबदारों को उतनी आसानी से उत्तर नहीं प्राप्त हो सकते हैं।
एक तमाशा यह भी कि हम जिस वर्ग को युवा-मानस कहते हैं; वह सिनेमा हाॅलों, रेस्तराँआंे, जिमखानों, बियरबारों, डिस्कोथिकों आदि में ‘चकाचक राग बसन्ती’ गा रहा है, लेकिन लोकतंत्र की ज़मीन पर वह यहाँ-वहाँ कहीं नहीं है। आश्चर्य यह है कि जिन युवा राजनीतिज्ञों का भारत के किसी विश्वविद्यालय में पढ़ना-लिखना नहीं हुआ है; वहाँ से युवा राजनीति का ‘क-ख-ग’ भी नहीं सीखा है; आज वे उन्हीं विश्वविद्यालयों में जाकर छात्र-राजनीति का बिगुल फँूक रहे हैं; छात्र-संघ की वकालत कर रहे हैं।
आइए, इस पूरी वस्तुस्थिति का मूल्यांकन-विश्लेषण करने के लिए अपने निर्धारित विषयवस्तु ‘वर्तमान युवा राजनीति: चित्तवृत्ति और लोकवृत्त' में प्रवेश करें---,
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10 सितम्बर, 2013; समय: 3 बजे दोपहर बाद; हिन्दी विभाग
युवा राजनीति पर बात करना मेरे लिए भाषा में सत्याग्रह करना नहीं है।
राजनीति सिनेमा नहीं है कि इसका उद्देश्य या ध्येय मनोरंजन मान लें। राजनीति आदमी की भाषा में आदमी होने की वैध तहज़ीब है। विधान का एक ऐसा वितान जिसमें हर आदमी को अपने हिसाब से सोचने, बोलने और करने की स्वतन्त्र और समान छूट प्रदान की जाती है। इस छूट की तमाम अर्थच्छवियाँ हो सकती हैं; लेकिन इससे किसी को तकलीफ हो, नुकसान हो या वे सामाजिक चरित्र के लिए ख़तरनाक साबित हों...इसकी सख़्त मनाही है। ऐसी विडम्बनापूर्ण स्थिति में रोकथाम के लिए बीसियों तरीके हैं जिससे समाज अपनी राजनीतिक चेतना को उत्तरोत्तर बड़ा और समृद्ध करता है। बशर्तिया विधान-नायक जनता के बीच का आदमी हो। बीच का आदमी कहने का तात्पर्य सामाजिक संस्कार-व्यवहार से पगे उस आदमी से है जो अंतिम आदमी की खै़रख़्वाही के लिए फिक्रमंद होना जानता है। राजनीतिक फिकरे कसने या प्रतिस्पर्धी कहकहे लगाने की कुचेष्टा वह नहीं कर सकता है, तो नहीं कर सकता है। खैर!
हाल के दिनों में भारतीय राजनीति ने राजलिपि विकसित करने में अभूतपूर्व सफलता पा ली है जिसमें राजनीतिक वसीयत लिखे जा रहे हैं। मौजूदा लोकतंत्र में इसी वसियत को वंशानुगत आधार मानकर युवा राजनीतिज्ञ भारतीय जनतंत्र में विराज रहे हैं; यह निर्णय कर रहे हैं कि जनता आधी रोटी खाएगी या पूरी। जिस जनता के साथ इनका बचपन से युवा होने तक सोना-बिछौना कुछ नहीं लगा; उस जनता की भूख को इतिहास बनाने का नारा ये युवा राजनीतिज्ञ लगा रहे हैं। ये ऐसे ही भाषा में तफरी मारते हुए मीलों आ गए हैं...अभी और मीलों जाने की हेठी इनमें बेशुमार हैं। राजनीतिज्ञ जब बेशर्म होते हैं, तो धर्म, जाति, भाषा, वर्ग, क्षेत्र इत्यादि के जन-बैंकर में घुस जाते हैं। सवाल है, जनता की जरूरत क्या सिर्फ पेट की भूख से निपट जाएगी? क्या मंदिर की घंटियाँ टुनटुनाने से उनके घरों में ‘सुजलाम्-सुफलाम’ हो जाएगा? अगर नहीं, तो जनता धृतराष्ट्र और दुर्योधन को ढो क्यों रही है? वह लोकतंत्र की बिनाह पर महाभारत क्यों नहीं लड़ रही है? ये सवाल जितने आसानी से पूछे जा सकते हैं...जवाबदारों को उतनी आसानी से उत्तर नहीं प्राप्त हो सकते हैं।
एक तमाशा यह भी कि हम जिस वर्ग को युवा-मानस कहते हैं; वह सिनेमा हाॅलों, रेस्तराँआंे, जिमखानों, बियरबारों, डिस्कोथिकों आदि में ‘चकाचक राग बसन्ती’ गा रहा है, लेकिन लोकतंत्र की ज़मीन पर वह यहाँ-वहाँ कहीं नहीं है। आश्चर्य यह है कि जिन युवा राजनीतिज्ञों का भारत के किसी विश्वविद्यालय में पढ़ना-लिखना नहीं हुआ है; वहाँ से युवा राजनीति का ‘क-ख-ग’ भी नहीं सीखा है; आज वे उन्हीं विश्वविद्यालयों में जाकर छात्र-राजनीति का बिगुल फँूक रहे हैं; छात्र-संघ की वकालत कर रहे हैं।
आइए, इस पूरी वस्तुस्थिति का मूल्यांकन-विश्लेषण करने के लिए अपने निर्धारित विषयवस्तु ‘वर्तमान युवा राजनीति: चित्तवृत्ति और लोकवृत्त' में प्रवेश करें---,
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