Saturday, September 21, 2013

चींटी का साहस

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कई दिनों से धूप नहीं निकले थे। बुढ़ा पेड भूखा था।

देव-दीप, तुमदोनों को तो पता ही है कि धूप में ही पेड़ की पतियाँ खाना बनाया करती हैं। धूप नहीं, तो समझों पेड़ों के घर में सुख-साधन नहीं। उनकी पतियाँ धूप के इंतजार में रसोई में बैठी रहती हैं। अब तुम्हीं बताओ कि मैं अगर कुछ खरीदकर न लाऊँ, तो तुम्हारी मम्मी कुछ बना पाएगी।

देव और दीप मुझे टुकुर-टुकुर देखते हैं।


बेटे, बुढ़ा पेड़ जिस रजवाड़े की ज़मीन पर था। उस प्रदेश का राजा अपनी प्रजा का ही एक नहीं सुन रहा था। फिर बुढ़े पेड़ की क्या सुनता भला?

ऐसा क्यों पापा?-देव ने पूछा।

बेटे, सुनने के लिए सिर्फ आवाज़ नहीं चाहिए होती है। दिल और दिमाग भी कोई चीज है। यदि यह राजा के पास न हुआ, तो उसे कुछ भी नहीं दिख सकता है। आजकल राजा ऐसे ही होते हैं। कहने को तो अब आदमी का राज है। लेकिन, आजकल आदमी का आदमी, आदमी की ही एक न सुन रहा है।

पापा, उस पेड़ को खाना कैसे मिला-देव जिज्ञासा से पूछा।

बेटे, बुढा पेड़ विचारमग्न था। वह सोच रहा था कि कुछ तो उपाय करने ही होंगे। ऐसे तो मरने की नौबत आ जाएगी।

खाना न खाने से हम भी मर जाएंगे-देव ने कहा

हाँ, बेटे! लेकिन, पेड़ आदमी नहीं था। इसलिए उसमें लेशमात्र भी लालच नहीं थी। लालची आदमी चोरी-चकारी कर जी लेते हैं। अपना भूखा पेट भर लेते हैं। बुढ़ा पेड़ ऐसा नहीं था। वही क्या आदमी को छोड़कर दुनिया में कोई दूसरा लालची नहीं है। जहाँ तक बुढ़े पेड़ की बात है...वह तो चोरी कर ही नहीं सकता था।

उसने अपने सभी छोटे-बड़े पेड़ों को सीखाया था कि हमारे जीने के लिए जो चीजें चाहिए...वह सबकुछ हमें मिला है। अतः ज़िन्दा रहने की शर्त पर हमंे दुनिया में हरियाली बनाए रखना है; हवाओं के साथ झूमना है; बारिश की बून्दों के साथ ‘छपा-के-छई’ रेन-गेम खेलना है। हमें ऐसा कोई बुरा काम नहीं करना है जिससे दुनिया का नुकसान हो; दूसरे लोगों के काम में बाधा आए। हम मरते दम तक आॅक्सीजन छोड़ेंगे जो अन्य प्राणियों के साँस लेने के काम आता है। हम शुद्धता का ख्याल रखेंगे, तो वे भी बदले में हमारा भरपूर ख्याल रखेंगे। हम मर जाएंगे, लेकिन चोरी नहीं करेंगे।

ऐसा क्यों पापा?-देव ने आश्चर्य से पूछा। उससे छोटा दीप जो अबतक शांत था, मेरे पेट पर सर रख मेरी बात हँसने लगा था।

बेटे, चोरी करना दुष्टों की संस्कृति है। आदमी ने उसे सीख लिया है। चोरी में कठिनाई यह है कि हमें हर समय डरे-सहमे रहना पड़ता है। भय हमारे सर पर सवार हो जाता है। इस भय को जाहिर होने से कमजोर कहे जाने का एक अतिरिक्त भय होता है। ऐसे में आदमी अपने इस भय से बचाव के लिए हरदम झुठ बोलता है; बहाना बनाता है। एक सही बात छुपाने के लिए कई-कई ग़लत बातें कहता जाता है।

फिर क्या हुआ पापा...?-देव ने दीप के गाल और आँख को छूते हुए कहा था।

बेटे, उस बुढ़े पेड़ के पास गिने-चुने उपाय थे। एक तो यह कि चुपचाप धूप की प्रतीक्षा करे या किसी तरह अपने लिए भोजन जुटाने का प्रयत्न करे। अचानक एक चींटी उस पेड़ के निकट से गुजरी। बुढ़े पेड़ को उदास देख वह चकरा गई। धूप न निकलने से चिंतित तो वह भी थी, लेकिन उसे कोई तकलीफ नहीं थी।

क्या चींटी को पेड़ की भाषा आती थी?-देव चैंककर पूछा।

देव-दीप, आँख को जो चीजें नज़र आती है। सबमें सारी बात समायी होती है। यानी बुढ़ा पेड़ बिना कुछ कहे चींटी से सबकुछ कह दिया और चींटी ने समझ भी लिया था।
बुढ़े पेड़ की पेट में कलछुल फिर रहे थे। वह कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं था। चींटी जो बहुत छोटी थी, धूप का टुकड़ा ला नहीं सकती थी; लाती भी तो कितनी मात्रा में। लेकिन, उसने वादा किया िक वह चुप नहीं बैठेगी। कोई न कोई उपाय वह अवश्य करेगी।

सभी ने चींटी को कहा, बुढ़े पेड़ के भूखे होने से तुम्हें क्या परेशानी है? एक जगह कोई मरता है, तो उसकी चिन्ता में दूसरी जगह दुबला होना कैसे ठीक है? आफत को तभी आफत कहना चाहिए जब अपनी गले पड़े।

चींटी ने इस विचार से साफ असहमति जता दी। वे चींटियाँ जो जमाखोर प्रवृत्ति की थीं; जिनके पास इफरात भोजन की सामग्री थी; जिन्होंने कई-कई सेवक अपनी सुख-सुविधा में बटोर रखे थे...सभी ‘हो-हो’ कर हँसने लगी। आजकल ताकत की तूती बोलती है। जो चुटकी भर खाता है; वह भी आज सेर-सवासेर बटोर कर रखता है। ऐसे लोग खाते कम और दिखाते ज्यादा हैं।

उस चींटी ने क्या किया पापा?-देव की उत्सुक्ता बढ़ चुकी थी। उसे मेरी भाषणबाजी अच्छी न लग रही थी। वह सीधे मूल बात जानने को व्यग्र था।

चींटी दिन भर घूमती रही। सबसे मनुहार-विनती करती रही थी। लेकिन, सबको अपनी पड़ी थी। कोई अपना काम छोड़ने को तैयार नहीं था। चींटी ने सोचा कि भलाई-सेवा, दान-पुण्य और धर्म की बातें, तो मनुष्य ग्रन्थों-शास्त्रों से सुन-सुनकर भी भला नहीं बन सका है, सेवापरायण नहीं हुआ है; फिर उसके पास तो न कोई धर्मग्रन्थ है और न ही अपना कोई देवी-देवता।

फिर-देव ने यह शब्द जोर देकर कहा था।

फिर चींटी खुद पास के नदी में गई, डूबकी लगाई। मुँह में पानी भरा और बुढ़े पेड़ की ओर चल पड़ी। वह खुद भी थक गई थी। उससे चला न जा रहा था। आज उसने एक पल भी सांस नहीं लिया था। सबके सामने गिड़गिड़ाने और प्रार्थना करने में ही उसके सारे बल निकल गए थे। अंतिम आस उसके पास आत्मविश्वास था। वह उसी के आसरे बुढ़े पेड़ की ओर बढ़ रही थी।

चींटी पेड़ के पास पहुँची, तो चकित रह गई। ढेरों लोग बुढ़े पेड़ को घेरकर खड़े थे। उसमें छोटे-बड़े सभी जानवर थे। हाथियों के झुण्ड ने तो अपनी सूढ़ों में पानी लाकर बूढ़ू पेड़ को पूरा नहला दिया था। पानी मिलने से उस पेड़ की झुरायी हुई पतियों में जान दौड़ गए थे।

पेड़ सभी लोगों का अभिनन्दन कर रहा था। सबसे छोटी चींटी के कार्य और संकल्प की प्रशंसा कर रहा था।

पापा, चींटी तो बेहद खुश होगी?-देव का जरूरी प्रश्न था। दीप केवल हँस रहा था।
हाँ, बेटे! चींटी अपनी प्रशंसा से खुश नहीं थी। वह सबको खुश देखकर खुश थी। यही तो अन्तर है हममें और उनमें। हम अपनी खुशी से खुश होते हैं या दुःख से दुःखी। जबकि पेड़-पौधे, पशु-पंक्षी, जीव-जन्तु, नदी-पहाड़, बारिश-धूप, चन्दा-सूरज आदि एक-दूसरे को खुश देखकर काफी प्रसन्न होते हैं।

पापा, मैं भी पेड़ को पानी दूँगा।

अच्छा! भाई, अभी सो जाओ। कल देखते हैं कि आप अपना कहा कितना याद रखते हैं....आपमें चींटी जितना साहस है भी या नहीं।

गुडनाइट पापा-देव बोला।

गुजनाइत-दीप के बोलने की बारी थी, उसने भी बोला था।

अगले दिन देव-दीप सोकर उठे, तो देखा कि पूरा आँगन टहकार धूप से रंगाया हुआ है।
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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...