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वह ट्रेन हर रोज प्लेटफार्म नंबर 1 से दिल्ली को रवाना होती थी।
पिछले दिसम्बर की 24 तारीख को दिन सोमवार था। एस-4 कोच में दिल्ली जाने को बैठी स्काॅलर अर्पणा किसी हड़बड़ाहट में नहीं थी।
अर्पणा अपने हाॅस्टल की बाॅलकोनी में खड़े होकर मोबाइल से ही ‘रेडियो मिची’, ‘रेडियो मंत्रा’...इत्यादि खूब सुना करती थी। इस वक्त भी सुनने में जुटी थी।
अर्पणा पिछले पाँच सालों तक प्रेम करती रही थी। इज़हार आज किया था कम्बख़्त ने।
‘मैं बीएचयू छोड़ रही हूँ पापा...मुझे बुरा लग रहा है। लेकिन यह करना होगा।’
समय दिलचस्प कहानियाँ बुना करती हैं। इस बुनाव में पारिवारिक-सामाजिक तागे काम आते हैं। अर्पणा खुद इन्हीं तागों से बुनी थी। अर्पणा का काम तो उन तागों का रंग-रोगन करना मात्र था। उसे वह बड़ी ईमानदारी से कर भी रही थी कि ये स्साली ज़िंदगी.....!
मन साथ न दें, तो चीजें ऊब पैदा करने लगती हैं।
अर्पणा एफ. एम. रेडियो बंद कर ली। काफी देर तक ओठंगी रही। सामने तीन साल की एक प्यारी बच्ची थी। बर्थ पर उसके नन्हें-नन्हें पाँव कुदक रहे थे। अर्पणा उस बच्ची के बजते हुए पायल की आवाज़ में खोई थी। अर्पणा ने गौर किया था, वह बच्ची बार-बार अर्पणा की ओर आने के लिए कौउच रही थी। अर्पणा से नहीं ही रहा गया। उसने उसे उसके बर्थ से लोक लिया था।
सफ़र अनगिनत रिश्तों का गवाह बनते हैं। शेरो-शायरी, फूहड़-दोअर्थी चुटकले, मजमेबाजी, बहसबाजी, तू-तकार, मैं-मकार, छेड़छाड़, टोनकसी.....। साथ छूटना तय हो, तो आदमी हर पल टूटकर जीना चाहता है। अर्पणा कई सालों से ट्रेन से आती-जाती रही थी। एक तरह से उसने ट्रेन के साथ अनाम रिश्ता जोड़ लिया था।
ट्रेन की अपनी रौ है, अपनी ही ज़िदगी है। वह जिन्हें अपने गंतव्य तक छोड़ती है...उनसे अपने लिए कोई उम्मीद नहीं करती है...और न ही किसी तरह की इल्तज़ा। ट्रेन समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की सबसे बड़ी पालक है। सामूहिक चेतना का दृश्य-बंध है। सिनेमा की एक ऐसी रील जिसमें पात्रों का आना-जाना लगा रहता है...कहानियाँ बनती रहती हैं...बढ़ती रहती हैं।
अर्पणा को गुलाम अली याद आ रहे थे।
‘‘वो पिछले रुत के साथी...अब की बरस मैं तन्हा हूँ;
अपने धुन में रहता हूँ...मैं भी तेरे जैसा हूँ!’’
पिछले पाँच साल से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोधशील अर्पणा आज तन्हा थी। बिसरा कोई नहीं था; लेकिन, बिछुड़ सभी गए थे।
‘एक बार फिर सोच लो....अर्पणा, तुम सड़क पर आ जाओगी....’
‘सोचने का काम आप जैसे बुद्धिजीवी प्राध्यापकों का है सर जी...यह सड़क बीएचयू से सिर्फ बाहर ही नहीं निकलती है...उन सभी जगह जाती हैं...जहाँ मैं जाना चाहती हूँ....’
‘अर्पणा....भावुकता भी एक तरह की उन्माद है; बचो इनसे! ज़िदगी में कई समझौते करने पड़ते हैं...और यह भी....’
‘जी, शुक्रिया! मुझे अधूरे वाक्य के साथ सलाह देने वाले नापसंद हैं। और मैं अपने नापसंदगी का हमेशा विशेष ख्याल रखती हूँ....’
अर्पणा लंका चैराहे पर कैंट जाने के लिए टेम्पू के इंतजार में खड़ी थी।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को अर्पणा की पीठ साफ दिखाई दे रहे थे। अर्पणा सिंहद्वार से सीधे निकलकर सड़क पर आई थी। वह मालवीय जी के गोलम्बर के निकट से होकर बाईं ओर जा खड़ी हुई थी।
सहसा, एक हवा का झोंका करवट बदलने की सुकून माफिक बगल से गुजरा था।
‘वेलडन...वेलडन....वेलडन....!’
एक पल के लिए लगा जैसे महामना मदन मोहन मालवीय जी की मूर्ति अर्पणा का पीठ ठोंकते हुए कह रही थीं।
‘तेरा तुझको अर्पण...क्या लागे मेरा...’ अर्पणा की आँख गिली हो ली थी।
फिलहाल, अर्पणा आते वक्त भी चुप थी और अब भी।
‘‘अरे! इसने तो आपके ऊपर छिया कर दिया...’’
अर्पणा का चेतस मन ट्रेन के डिब्बे में प्रकट हो लिया था। इतने ही देर में काफी लोग आ-बैठे थे इर्द-गिर्द।
वह बच्ची हँस रही थी। अर्पणा उसे देख मुस्कुरा दी। सोचा, बच्चे बड़ो की राजनीति से अनभिज्ञ होते हैं...इसलिए हँसते रहते हैं खुलकर। बड़े बच्चों के मन को थाह पाने में असमर्थ रहते हैं...इसलिए अपना बोझ उनकी हँसी पर लादते-थोपते रहते हैं...चीखते-चिल्लाते रहते हैं।
कुछ देर बाद अर्पणा जब कपड़े बदलकर वापिस अपने बर्थ पर बैठी...ट्रेन चल पड़ी थी।
ट्रेन का खुलना अर्पणा के लिए किसी पुराने गाँठ के खुलने जैसा था। वह लम्बी साँस ली थी
उसने उस बच्ची को फिर से अपनी गोद में बिठा लिया था।
अर्पणा को अपने बर्थ के पीछे से कुछ अस्पष्ट-सी आवाज़े सुनाई पड़ रही थी। कोई किसी सर्वे का हवाला देकर भारत की उच्च शिक्षा संस्थानों की स्थिति का बयान कर रहा था...भारत का एक भी विश्वविद्यालय विश्व के 200 विश्वविद्यालयों की सूची में नहीं शामिल है...,
स्काॅलर अर्पणा उस ओर से अपना कान फेर ली।
बच्ची और अर्पणा एक-दूसरे में मशगूल हो गए।
गाड़ी मड़ुवाडीह स्टेशन के प्लेटफार्म से लगने वाली थी; उधर सुमिजीत का काॅल अर्पणा के मोबाइल में घर्राना शुरू हो गया था।
(जारी...)
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