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कांग्रेस(आई) राजनीतिक पार्टी है। इस पार्टी के नेता हर तरह के स्टंट करने में माहिर हैं।
नये-नये उपाध्यक्ष बने राहुल का स्टंट आप सबके सामने है। दागी राजनीतिज्ञों से सम्बन्धित अध्यादेश पर उनका बकवास बोल न्यूज़ चैनलों पर फड़क रहा है। इस बयान में वे जिस अध्यादेश को फाड़ने के लिए कह रहे हैं, यह बात जनता उसी दिन से कह रही है; राहुल ने अपने कान में अभी तक ठेपी लगा रखा था।
युवा राजनीतिज्ञ राहुल गाँधी से पिछले सालों में जनता की उम्मीद यह रहती थी कि वे बोलें, तो सबसे पहले बोलें....साफ और निष्पक्ष बोलें....या फिर बिना बोले सारा कुछ साफ और निष्पक्ष करें। लेकिन उन्होंने आज तलक सबकुछ जनता के चाहे के उलट कहा और किया है।
अजीबोगरीब फर्राटा बोल |
राहुल गाँधी का आज का बयान पूरी तरह पूर्व-नियोजित ‘स्टंट’ है। उसी तरह जैसे यूपीए सरकार एक तरफ अनावश्यक खर्चों में भारी कटौती करती है; दूसरी ओर, सातवें वेतन आयोग की घोषणा कर अपने सहज-बुद्धि का कचूमर निकाल देती है। दरअसल, यूपीए के खातेनामे में दागियों, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय देने का ‘रिकार्ड’ जबर्दस्त है; वह उसे हर हाल में बरकरार रखना चाहती है।
यूपीए जिस राहुल गाँधी को तुरुप का पता समझ रही है; सारा दोष इस समझदारी में ही है। आज अजय माकन राहुल गाँधी के जिस बयान को कांग्रेस का बयान कह रहे हैं...या कि मनीष तिवारी जिसे संज्ञान में लेने की सोच रहे हैं....यह सब उस अध्यादेश के सन्दर्भ में है जिसे राहुल गाँधी बे-सिर-पैर का अध्यादेश करार दे रहे हैं। राहुल गाँधी के इस बयान ने यह साफ कर दिया है कि उपाध्यक्ष पद पर आसीन इस युवा राजनीतिज्ञ की पार्टी में लोकतंत्र नहीं है। सबकी अपनी-अपनी टोपी है जो जनता को अलग-अलग ढंग से पहनाने के लिए स्वतंत्र हैं।
अध्यादेश जैसे संवेदनशील एवं महत्तवपूर्ण विषय सदन में पारित होकर राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए पहुँच जाते हैं...लेकिन राहुल गाँधी को इस बारे में पता नहीं होता...! क्या यह विश्वास योग्य बयान है? ऐसे हल्के बयानों से राहुल गाँधी जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं...नहीं पता; लेकिन, इतना अवश्य है कि उनमें राजनीतिक दृष्टिकोण, निर्णय-क्षमता और नेतृत्व का सर्वथा अभाव है। इस तरह के बयानों से वे अपनी प्रचारित छवि का नुकसान ही कर रहे हैं। यह कैसी विडम्बना है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिस राहुल गाँधी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में सबसे योग्य उम्मीदवार बता रहे हैं...उनके बयान अन्तर्विरोध और विरोधाभास से अटे पड़े हैं।
अध्यादेश फाड़ देने जैसे हास्यास्पद बयान में एक बात साफ है कि राहुल गाँधी की चिन्तन को मालिश-मरम्मत की सख्त जरूरत है। एक बात और कि वे जिस पद पर हैं...वहाँ से अपने व्यक्तिगत मत का हवाला देकर नहीं बच सकते हैं। वे नेतृत्वकर्ता हैं और उनकी जिम्मेदारी है कि अपने नेतृत्व की सरकार के किए का नैतिक जवाबदेही लेना भी सीखें। राहुल गाँधी जो अभी तक जनता को सम्बोधित करने लायक भाषा-संस्कार भी नहीं सीखे सके हैं। उनके बोल में या तो पार्टी ‘क्रिया-कर्म’ का गुणगान सर्वाधिक होता है या फिर सरकारी योजनाओं-परियोजनाओं से जिक्र-दर-जिक्र।
यह सच है कि जतना भाषा या भाषण के आसरे किसी राजनीतिज्ञ को नहीं चुनती है, लेकिन आप क्या है...आपकी मंशा क्या है...आपकी समझ और समझदारी का स्तर क्या है? यह सब जानकारी जनता को आखिर भाषा के माध्यम से ही तो मिलती है। क्यों....?
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