Friday, September 27, 2013

प्रिय देव-दीप,



हमारी आँखें बाहर के दृश्यों को खूब से खूब 1/10 भाग ही देख पाती है। नेत्र का दिखाव-क्षेत्र सीमित मात्रा में प्रकाशीय कणों को ग्रहण करता है। इसलिए हमारे मानस में बनने वाले दृश्यबिम्ब चयनित/प्रतिनिधि होते हैं। इसी तरह ‘वाक्’ में हम जितना सोचते हैं; उसका कुछ हिस्सा ही अभिव्यक्त हो पाता है; शेष अव्यक्त ही रह जाते हैं। यह अनदेखा दृश्य अथवा अव्यक्त वाणी एक दिन बचावट की बड़ी ढेर बनकर हमारे ही सामने आ खड़ी होती हैं। यह सब हमारे अचेतन का हिस्सा है।

बच्चों, इसी तरह सुनावट की प्रक्रिया घटित होती है। हम जो सुन पाते हैं वे तो एक अंश मात्र हैं; बहुलांश तो अनसुना ही रह जाते हैं। जिन आवाजों को हम नहीं ग्रहण कर पाते हैं, उन्हें प्रकृति अपने संज्ञान में सुरक्षित कर लेती है। यह प्रकृतिगत अचेतन का हिस्सा है। प्रकृति बहुविध आवाजों को न सिर्फ ग्रहण करती है; बल्कि उसे तरंगों में रूपान्तरित कर ब्राह्मण्ड में विस्तारित कर देती है। ये तरंगत्व नाद-अनुनाद के रूप में हमें पूरे जगत में फैले मिल सकते हैं। इस फैलाव में विद्युत्व और चुम्बकत्व दोनों पर्याप्त मात्रा में विद्यमान होते हैं।

बच्चों, तुमदोनों ने रंग-मिश्रण के बारे में कुछ सुना है। प्रकाश, ध्वनि, दृश्य और पदार्थ इत्यादि रंग-मिश्रण की ही तरह आपस में घुलमिल कर जागतिक कार्यकलापों को संभव बनाते हैं। यह अंतःक्रियात्मक मिश्रण मनुष्य के आचरण-व्यवहार को काफी हद तक नियंत्रित-निर्धारित करते हैं। उनके व्यक्तित्व-व्यवहार को बुनते-बनाते हैं। जीवन में घटित हर एक चीज जिन्हें हम समय, समाज और परिस्थिति के आपसी तालमेल और मिलाव-बनाव का परिणााम मानते हैं....वे सभी संचार की गतिविधि, गतिशीलता और गत्यात्मकता के द्धारा मानव एवं मानवेतर जीवन के समक्ष ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ का अद्भुत कोलाज रचते हैं जिसमें हमारी भूमिका सिवाए पात्रगत-अभिव्यक्ति के विशेष या विशिष्ट कुछ भी नहीं है।

बच्चों, भारतीय चिन्तन में पगे ‘वसुधौवकुटुम्बकम्’ की भावना हो या फिर शेक्सपियर की कविता ‘विश्व एक रंगमंच है!’ का मूलार्थ...यह दुनिया हमारे देखे-सुने-कहे की सार्थकता, महत्ता और पूर्णता को ही अंतिम सत्य मानकर चलती है।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...