Saturday, May 23, 2015

शोध में अवरोध


राजीव रंजन प्रसाद
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(यह पाठकीय प्रतिक्रिया जनसत्ता अख़बार को भेजी गई है)

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सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी ‘दुनिया मेरे आगे’(22 मई) स्तंभ में मौजूदा अकादमिक हाल-स्थिति को लेकर चिंतित दिखाई देते हैं। वाजिब हैं, इस बारे में उनका इस तरह संवेदनशील होकर सोचना। शोध को भारतीय ज्ञान-मीमांसा में ज्ञानोत्पादन की नवाचारी विधा अथवा शाखा कहा गया है। किन्तु आज शैक्षणिक संस्थान पहले भ्रष्ट हुए हैं, सत्ता-शक्तियां बाद में उनसे संक्रमित-प्रभावित हुई हैं। मेरी दृष्टि में उच्चशिक्षा में व्याप्त अनैतिक विधानों ने किसी भी चीज को सम्यक् अथवा विधिसम्मत मानने से इंकार कर दिया है। लिहाजा, मौजूदा व्यवस्था इसका निर्बाध-निर्विघ्न अंतःपाठ करने में जुटी हुई है। अकादमिक अध्येताओं को देखें, तो अधिसंख्य पीएचडीकर्मी स्तरहीन हैं और योग्यता के नाम पर उनके पास डिग्री मात्र है। बाकी सब नील-बट्टा-सन्नाटा। एक शोध-छात्र के रूप में यह कहना खुद को मर्मांहत करना है, पर हकीकत यही है। कौन बोलेगा, यहां तो जो बोलो सो निहाल की स्थिति है। राम-राम, हाय-बाय, हंसी-ठिठोली, गप-शप, चाय-पानी, फैशन-रोमांस आदि पीएचडीधारियों की आवश्यक शोध-प्रविधि है। ये वे टुल्स हें जिनके बिनाह पर हम उपकल्पना, शोध-प्रारूप, अध्यायीकरण, सामग्री संकलन, सर्वेक्षण, साक्षात्कार, प्रश्नोत्तरी, बहस-परिचर्चा आदि-आदि विभिन्न ढर्रों को आजमाते हैं और इसी बरास्ते निष्कंटक शोध-उपसंहार तक पहुंचते हैं। 

इस सच पर निगाह सबकी है; लेकिन सब सब्र के पुतले हैं, तो मौन के अधिष्ठाता। प्रतापी प्रोफेसरों की अदाकारी इतनी जबरदस्त है कि वे अपनी पीड़ा भी आपके कहे में जोड़ देंगे, लेकिन निर्णय-क्षमता से चुके ऐसे सुधिजन इस बारे में समुचित-अपेक्षित कदम उठाने से सदा हिचकिचाएंगे। वे जानते हैं कि इसमें पड़ना पूरी गंदगी को उलीचना है और यह अकेले उनके जिम्मे का काम नहीं है। फिर क्या? सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी आईना दिखाएं या कोई और...होइहें सोई जो राम रचिराखा। भारतीय समाज का इस कदर चरित्रहीन और अविवेकी होना यह दर्शाता है कि भारत में बुद्धिजीवियों का सच्चा कहा-सुना बिल्कुल अप्रासंगिक हो चला है। नतीजतन, झूठे लोग लगातार जयघोष कर रहे हैं, तो आमजन की बोलती बंद है यानी सिट्टी-पिट्टी गुम। 

यह तोहमत नहीं अपना ‘प्रतिरोध’ है। प्रश्न है, हम विद्यार्थी ही हमेशा कठघरे में क्यों खडे हों? क्यों दुनिया भर की सारी बलाएं हमारे ही मत्थे मढ़ दी जाएं? क्यों हम ज्ञानसुख में अपनी पूरी जिंदगी झोंक दे और हमारे लिखे को पुस्तकालयों में दीमकों के हवाले कर दिया जाए? है आपके पास जवाब कोई? भारतीय विश्वविद्यालय मौलिक एवं उम्दा शोध-कार्य को कितना महत्त्व देते हैं; उन्हें स्वयं से प्रकाशित कर एक मिसाल अथवा उदाहरण के तौर पर औरों के सामने प्रस्तुत करते हैं? सोचिए। यदि वे ऐसा नहीं कर रहे, तो सब धन बाइस पसेरी ही होगा। आप अच्छा शोध-कार्य खोजते रह जाएंगे; लेकिन वह नहीं मिलेगा।  फिर आप रोए-गाए या बजाएं कि हमारे विश्वविद्यालय विश्व के उच्चस्थ 200 शीर्ष विश्वविद्याालयों की सूची में नहीं हैं या 500; कोई फर्क नहीं पड़ता है?

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