Monday, May 18, 2015

नकली आदमी

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एक हद के बाद चीजें बेकार पड़ने लगती हैं, खराब होने लगती है।
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ज़िन्दगी लफ्फाजी से नहीं चलती है, कौन नहीं जानता!

पर मैं बेहद प्रसन्न कमरे में दाखिल हुआ।

‘चाय पिला...सीमा...’
‘हां, मैं नौकर बैठी हूं न...’

‘पी लीजिए खुद बनाकर, हां मैं भी पीउंगी।’
‘और देव-दीप’

कुछ नहीं बोली। यानी जो मन में आए सो करो। मुझसे क्यों पूछते हो। सुनते हो कभी मेरी।...
यह मैं सोच रहा थ...यह शोध-पत्र छप जाए!

‘किस से बात कर रहे हो,’
‘खुद से’
‘क्यों हम सब आदमी नहीं हैं क्या...?’
‘आज मेरा रिसर्च पेपर फाइनल हो गया। चार महीने से जम्भ जैसा उस पर लगा था।'

‘तो..’
‘तो क्या, कुछ भी मत कर...चाय पी!’
‘बस यही न करना है!’
‘अरे! यार चीनी का डब्बा किधर रख दी, तुम अजीब मेहरारू हो...’
‘और तुम जो डब्बे का ढक्कन ऐसे बंद कर देते हो कि किसे से न खुले।’

‘सीमा, सर खुश हैं...अच्छा बन पड़ा है पेपर’
‘इसी से नौकरी भी मिल जाएगी’
‘नहीं, वो अलग बात है!’
‘आयं जी, आपको इ सब करने में अच्छा लगता है; लेकिन इ काहे नहीं सोचते हैं कि बचवन सब बड़ा हो रहा है।’

‘हां यार, कर ही, तो रहा हूं!’
‘कर नहीं रहे हैं, गवां रहे हैं।’
‘तो क्या कहती हो छोड़ दे यह-सब?’
‘हां...’
‘हां, पापा...हमलोग सब एकसाथ दादा-दादी के पास रहेंगे!’

देव-दीप चहक कर बोले। चारों तरफ अटे पड़े किताबों के खदान से उनकी मासूमियत नजरअंदाज होती जा रही थी। उनकी तड़प जायज थी कि वे मुझसे अपने लिए समय की इल्तज़ा कर रहे थे।

मैं मुसकरा दिया। शोध-पत्र का शीर्षक मेरे दिमाग में नाच रहा था-'अथातो शब्दजिज्ञासाः चेतना का....’ और सीमा का कहा भी। जोड़ती-हिसाब में पढ़ते 18 साल हो गए। हाईस्कूल से बाहर हूं। हमेशा काम, पढ़ाई और चक्कर। इंटरव्यू में न मेरे लेख-आलेख देखे जाते हैं और न ही ‘रेफरी’ का नाम। आजकल चिट्ठियां छपने लगी है, जनसत्ता में। पचासियों ख़त किसी ज़माने(2003-06) में खूब छपती थीं। सुमन-सौरभ में ढाई दर्जन के करीब कहानियां। ‘सबलोग’ पत्रिका में एक दहाई के करीब आलेख। फिर मीडिया-विमर्श, परिकथा, समकालीन तीसरी दुनिया, कादम्बिनी, समकालीन जनमत.....हाल ही में परिकथा के नए अंक में ‘मेरा नाम मैरी काॅम’। यह समीक्षा इतनी लम्बी हो गई कि अगले अंक में आधा प्रकाशित होगा।

लेकिन, घर में अन्धकार गाढ़ा हो रहा है और मन कड़ा।

इस बीच आपसी संवाद के मध्य मैंने झोले से अपना शोध-पत्र निकाल लिया था जो अब ज़मीन पर औंधे मुंह गिरा था। स्थितियां साफ हो रही थी कि आपके लिए जगह नहीं है, आप की किन-किन चीजों पर पकड़ नहीं है या आप क्या-क्या नहीं जानते हैं।

एक पर्ची मेरे ललाट पर किसी न साट दिया था-‘फस्र्ट डिजर्ब देन डिज़ायायर...,'

जबकि हाथ की हथेली में गुदा था 76 प्रतिशत अंकों के साथ परास्नातक। गोल्ड मेडेलिस्ट। ‘जनसंचार एवं पत्रकारिता’ विषय में नेट-जेआरएफ। सम्प्रतिः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रयोजनमूलक पत्रकारिता पाठ्यक्रम के शोध-छात्र।

‘चाय आज भी गिराएंगे, हटिए आप-से नहीं होगा कुछ...’

सीमा चाय छानकर कप में ढार दी। फिर मेरी ओर बढ़ाया। मैं अब भी सोचने में मगन था।

‘...फिर नहीं गरमाएंगे!’

सुनते ही चाय सीड़कने लगा। दिमाग में पंक्ति कौंधी थीः ‘वियतनाम पर बम गिरने का दुःख बहुत है लेकिन, इतना भी नहीं जितना अपने चाय के ठंडे होने का’।
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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...