Monday, May 11, 2015

शताब्दी वर्ष में भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय जी का परिसर

साभारः हिन्दुस्तान; 11 मई, 2015
-----------------
राजीव रंजन प्रसाद
---------
संस्कार और मूल्य पैदा करने और उसे बढ़ावा देने का दावा करने वाला बीएचयू परिसर आज शर्मसार है। यह शर्म भी हम जैसे विद्यार्थियों के नाम दर्ज है। कुलगीत गवाने वाले सेमिनारी-प्रोफसरों अथवा इसी तरह के आयोजकी ढकोसलों में सालों भर फांद-कूद करने वाले बुद्धियाए लोगों के लिए यह कोई बड़ा मसला नहीं है। मसला तो उनके लिए भी नहीं है, जो एक ढर्रे पर काम करने के आदी हैं और जिनकी दृष्टि में ज्ञानोत्पादन नितान्त फालतू काम है, समय का गोबर-गणेश करना है। सिर्फ एक माह की घटनाओं का तफ्तीश करें, तो मालमू देगा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का वास्तविक चरित्र क्या है और रंग-रूप? 

चूंकि इन सब बारे में बोलने का खतरा मोल लेना अपने को असुरक्षित मनोदशा में झोंक देना है या फिर उन शुभचिंतकों तक से मोर्चा ठान लेना है जिनकी निगाह में आप अपनी योग्यता और काबिलियत का लोहा मनाते आए हैं; इसलिए अधिसंख्य की बोलती बंद रहती है; सब अपने कैरियर को उत्कर्ष और चरमसुख की उच्चतर अवस्था पर ले जाने के लिए पेनाहे रहते हैं। 

यह कितना अफसोसजनक है कि माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के संसदीय क्षेत्र में महिलाएं असुरक्षित हैं, तो विदेशी पर्यटक डरे-सहमे हुए हैं। यह वीभत्स चेहरा क्या मानवीय है? क्या स्त्रियों के साथ चाहे वह भारतीय हों या अमरीकी इस तरह के सलूक जायज़ हैं? क्यों हम सचाई को झूठ के लिहाफ में चकमक-चकमक देखने को अभ्यस्त हो चले हैं? क्यों ऐसा हो रहा है कि पूरा कैंपस अराजकता की भेंट चढ़ा हुआ दिख रहा है; असामाजिक तत्त्वों की पौ-बारह है? 

ये सभी सवाल उन मंगलआरतीकारों से है जो अपने ज्योतिषफल से इस परिसर को विश्वस्तरीय दरजे पर ले जाने को आकुल-व्याकुल हैं; जिनकी आत्मा में धर्म, कला, साहित्य, दर्शन, संस्कृति, राजनीति, सूचना-प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, अनुसन्धान, नवाचार, स्वउद्यमिता, अन्तरानुशासनिक अकादमिक शिक्षण-कार्य...और न जाने क्या-क्या अनगिनत पाठ अकादमिक भाषा में गुदे हुए हैं, लेकिन वास्तव में होता-जाता सोलह में दो आना है; किन्तु प्रचारित सोलह का छब्बीस आना होता है! गोकि ऐसे लोगों के पास कायल कर देने वाली प्रतिभाएं हैं; इन अर्थों में कि यह अर्थ-युग है और इस दौर में रूप एवं अन्तर्वस्तु की तरह कथित ज्ञान भी खरीद-फ़रोख्त की चीज है; सदाचार की ताबीज पहन कर घूमने या शिष्टाचार के शब्द-भाषा में संवादी होने का नहीं।

स्मरण रहे, दुर्भाग्य की किसी से रंजिश नहीं होती; विडम्बना का कोई नैतिक पक्ष नहीं होता है। भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय जी आज इसी दुर्भाग्य और विडम्बना के शिकार हैं; वे रो रहे हैं जबकि हमारे आत्मप्रलाप के आगे उनका रोना प्रासंगिक नहीं माना जा रहा है। यह जानते-समझते हुए भी कि युगद्रष्टा मालवीय जी की चिंतन-पद्धति, अंतःदृष्टि और आचार-व्यवहार जनपक्षीय और मूल्यगत आधार पर जनसरोकारी थे और संवेदना एवं सरोकर आमजन की आत्मा से गुंथी हुई। वे दो कदम भी बड़े संयम, संतुलन किन्तु पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ चलते थे। आज उन्हीं के परिसर में उनके नाम पर लोग अनैतिक कर्मों में मुंह मार रहे हैं; ग़लत कार्यों से भारतीय ज्ञान-परम्परा को गंदला कर रहे हैं।

ओह! हर घटना पर गंगाजल छिड़कर लिपापोती करने वालों, तुम जानते भी हो कि इसकी सजा परम परमात्मा क्या मुकर्रर करेगा; तुम्हारे माल-असबाब किस तरह तवाए रह जाएंगे; तुम्हारी भौतिक लिप्सा में कीड़े लगेंगे और यह सब होने से पहले ईश्वर सबसे पहले अच्छे लोगों को तुम्हारे बीच से अलग कर लेगा, अपने पास बुला लेगा क्योंकि जहां सच्चे लोगों की कद्र और अहमियत घट जाती है वहां ईश्वर अपने देवदूतों की भी आवाजाही बंद कर देता है।

No comments:

हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...