राजीव रंजन प्रसाद
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(यह पाठकीय प्रतिक्रिया जनसत्ता अख़बार को भेजी गई है)
हालिया घटना ‘दलित की बरात’ में पत्थरबाजी का है जिसे जनसत्ता ने अपने 14 मई की सम्पादकीय में संवेदनशील ढंग से सामने लाया है। ये फुटकल घटनाएं नहीं हैं। यह समाज की रीढ़ में छेद कर उसमें जातीय वर्चस्व की अंकुशी लगाने वाली ‘अचेतन’ कील है। हमें समझना होगा कि भारत में जातीयता एक दंभ और अहंकार का काॅकटेल तैयार कर वर्गीय-संघर्ष को सदैव दावतखाने पर न्योंतती है। इसके पीछे सामंती मानसिकता के विषाणु-कीटाणु हैं जिसे भारतीय समाज ने कथित पुरोहितवादी ढकोसलों के आधार पर ‘चारमीनार’ के रूप में गढ़ा है, पोसा-पाला और निवाला बनाकर गटका है। आरक्षण-देवता का एक अनुदानिक-प्रपंच खड़ा कर अपनों को अपने से अलगा दिया है, परे टेर दिया है। आरक्षण के बहाने पूरे देश में राजनीतिक षड़यंत्र फल-फूल रहा है; बौद्धिक-सयंत्र प्रयोगशील है, जो यह मानता है कि किसी को योग्य बनाने से अच्छा है कि उसे ‘प्रतिभाशाली’ होने का सर्टिफिकेट थमा दो; किन्तु उसमें कबीर के कथनानुसार ज्ञान, क्रिया और इच्छा के हुनर-कौशल, काबिलियत, साहस एवं संकल्पशक्ति न पनपने दो।
हद है, आदमी घोड़े पर नहीं चढ़े क्योंकि वह दलित है; दूध-भात न खाए क्योंकि वह निम्न जाति का है; एक ही शौचालय का प्रयोग न करे क्योंकि वह अछूत है। वाह भाई, कबूतर का ‘क’ नहीं जानते, पर सामाजिक ठेकेदारी की कबूतरबाजी या करतब सीखना हो, तो आपसे जानें! परले दरजे का बेवकूफ होते हुए भी आपको सिर्फ इस नाते दंडवत करे कि आप फलानां जाति के चिल्लाना वंश-बिरादर के हैं। समाजविज्ञानी, भाषाविज्ञानी, मनोविज्ञानी, नृत्तत्वविज्ञानी, संचारविज्ञानी इत्यादि विशेषणों से अलंकृत भारतीय बौद्धिकों...क्या कहना है आपका इस पर? विश्वविद्यालयी प्राध्यापकों क्या कहता है, आपका अनुसंन्धान, शोध-पत्र? किन वजहों और मूल कारणों का खुलासा करती हैं इस सन्दर्भ में आपकी 'आईएसएसएन' नंबर वाली पत्रिकाएं या कि 'इंपेक्ट फैक्टर' वाला अन्तरराष्ट्रीय जर्नल? क्यों दुहराव-भरी ऐसी घटनाओं से हम और हमारा समाज दो-चार है? क्यों ऐसी अमानुषिक मनोवृत्तियां सर उठा ले रही हैं प्रायः? क्यों अत्याचार-अनाचार की भयावह घटनाओं में इज़ाफा हो रहा है; और आमजन कोई समुचित काट नहीं ढूंढ पाने के कारण रोज-ब-रोज प्रताड़ित-पीड़ित, शोषित-शासित, दमित एवं हर ओर से दबा-कुचला हुआ है?
ज़ाहिरा तौर पर भारत में आज दो वर्ग हैः सिविल सोसायटियन और सनातन भारतीय। सनातन भारतीय के हिस्से में आज़ादी के परख़च्चें उड़ाने वाली सचाइयां हैं। इस वर्ग के लोग आर्थिक चिंता से ग्रस्त हैं, तो युवा पीढ़ी दोराहे पर है। खुदकुशी, अपराध, लूट, हिंसा, बलात्कार, जुआ, शराबखोरी, नशाखोरी, गाली-गलौज, बेशहूर शोहदेबाजी, उत्तेजनापूर्ण प्रतिक्रिया, असामाजिक बर्ताव, अराजकतावादी रवैया आदि-आदि के कसूरवार के रूप में उन्हीं के नाम पर सरकरी मुहर लगा है। कथित ‘हाई प्रोफाइल’ शहरातियों द्वारा कुछ भी कह-लिख देने पर वे सदा-सर्वदा के लिए वही हो-बन जाते हैं। यानी अनाथ, अवारा, कुता, लिच्चड़, हरामी आदि-आदि। वर्तमान अर्थयुग में उन पर कुछ भी आरोप मढ़कर या आक्षेप लगाकर छोड़ दो, बस काम हो गया। उनकी बोलती बंद कर दो, कोई हिसाब लेने नहीं आएगा। गोकि गरीब आदमी सरकार चाहता है और बदल देता है; लेकिन अपना किस्मत बदल पाना उसके अपने हाथ में नहीं है। सरकार कहती है, नरेगा कमाओ, मनरेगा कमाओ; प्रधानमंत्री कहते हैं कि यह पिछली सरकार के किए-धरे और बोए का कर्मफल है, इसे मैं समाप्त नहीं सकता। अतएव, मौजूदा जनतांत्रिक दुर्भावना एवं आर्थिक असहयोग का शिकार सभी जातियां, मज़हब एवं समुदाय एकसमान हैं। दरअसल, हमें लड़ना उन ताकतों से है जो हमारा घर-बार चैपट कर रहे हैं, लोक-कला और कारीगिरी को तबाह कर रहे हैं; हमारे उद्योग-धंधे ख़त्म कर रहे हैं। लेकिन, हम लड़ रहे हैं घोड़े पर चढ़े दुल्हे के साथ, सिर्फ इसलिए कि यह झूठी शान और जातीय श्रेष्ठताग्रंथि से रोगग्रस्त समाज को चिढ़ा रहा है।
बावजूद इन सबके सामाजिक-जन को भरोसा है कि अपने ही किए सुधार एवं अपेक्षित बदलाव होंगे। हम-आप ही बुराइयों का ख़ात्मा करेंगे। हमलोग ही समाज की ग़लतियों को आइना दिखाएंगे। गोया सरकार एवं सरकारी-तंत्र से यह उम्मीद करना कि वह स्वतःस्फूर्त समाज-सुधार करे या लोगों को विवेकी बनाए, अब संभव नहीं रहा। लेकिन यह भी सत्य है कि यदि वह हमारी प्रेरणाशक्ति से चाह जाए, तो बड़ी से बड़ी घटना तत्काल टल सकती है। हिंसा-वारदात की बढ़ती घटनाओं पर नकेल कस सकता है। स्त्रियां पुरुषवादी यातना के शर्मसार कर देने वाली करतूतों का शिकार होने से बच सकती है। रतलाम की घटना एक बेमिसाल उदाहरण है। बाबा सबके मन की आंखें खोल, आमीन!
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