Thursday, May 14, 2015

ACEPHALOUS HUMAN BIENG: In 22nd Century Era

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कई दशक वैज्ञानिक शोध-अनुसन्धान में निवेश के बाद यह निष्कर्ष प्रमाणित हो पाया था कि मनुष्य के दिमाग को ‘डिरेल’ करने के बावजूद दुनिया यथावत बनी रहेगी। इस दुनिया के होने का कारण मनुष्य मात्र नहीं है बल्कि वह पारिस्थितिकी-तंत्र है जिसे प्रकृति अपने स्वनियमन और स्वनियंत्रण द्वारा परिचालित करती है। लेकिन मनुष्य ने हमेशा कुदरती स्वभाव से अधिक मान स्वयं को दिया। उसने यह माना कि वह चरम बदलाव तथा यांत्रिकी-प्रौद्योगिकी-तकनीकी आधारित ज्ञानकाण्ड द्वारा प्रकृति की अहमियत और उसकी नैसर्गिक सत्ता को अर्थहीन साबित कर देगा। लेकिन जब इसके उलट ‘हाइपोथीसिस’ पर काम करते हुए वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने मनुष्य को ही जागतिक सत्ता में सर्वाधिक ‘डाय्लूट’ कर देखा, तो पाया कि मनुष्य तो प्रकृति का एक ‘एक्सपेरिमेंटल टुल्स’ का हिस्सा मात्र है। अर्थात मनुष्य हो या न हो दुनिया विकल्पहीन नहीं है। 
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राजीव रंजन प्रसाद
''वे हमारे हाथ की लकीर देखते हैं और चेहरे पर पसरी हुई आर्थिक कंगालियत; और यह घोषणा कर डालते हैं कि हमारी औकात क्या है जबकि बीज कभी नहीं बोलते की उनके भीतर वटबृक्ष बनने की ताकत है, आनुवंशिकीय गुणसूत्र है....''
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मानव आधारित शासन ख़त्म करने की संस्तुति की जा चुकी थी। अनगिनत ब्यौरे उपलब्ध थे, डिजिटल ग्राउंड पर। उनकी थाह लेना आसान काम नहीं था; लेकिन निर्णय होना आज ही था। सब बेसब्र-से थे कि देखें, निर्णय क्या होता है? यह सबकुछ जैसे स्वप्न में घटित हुआ और निर्णय होते ही पूरी दुनिया वायवीय कब्जे में आ गई। लोगों को बेहद तकलीफदेह दौर से गुजरना पड़ा; घंटों शरीर में बेचैनी बनी रही। सब के सब ‘डिजिटल ट्रैक’ पर थे। एक साथ पूरी दुनिया वायवीय हुक्मरानों द्वारा ट्रैस की जा रही थी। मानो उनके शरीर में कोई ‘इलेक्ट्राॅनिक चिप’ डाल दिया गया हो और वे लगातार मशीनी आवाज़ के साथ अपना काम कर रही है। 

‘रेड्डी, वी कैन!!!’
‘यस!, वी कैन वायो।’

अचानक एक फोर-डाइमेंशनल आकृति सामने उग आई। यह वायो था। वायवीय दुनिया का बेताज बादशाह। कीटाणु, जीवाणु, विषाणु तक उसके हूक़्म की तामील करते थे। वायो कौन है, कहां से आया है, क्या करने आया है; सबलोग उसका कहा मानने को इस कदर मजबूर क्यों हैं...यह कोई सोच नहीं पा रहा था। सभी ‘असेफलस’ थे यानी अशीर्षी, शिरोहीन, बिना सर-माथा के स्त्री-पुरुष जो सिवाए पुतलगाह के कुछ नहीं थे। सभी पुतले अपने नाक-नक्शे, शारीरिक बनावट और उभार के साथ ‘मेकअप’ किए हुए थे। सबकी आवाज़ भिन्न और उनके कहने का लहजा भी भिन्न था। किन्तु सब ने एक बार में एक ही साथ कहा था-‘यस! वी कैन।’ 

वायो बेंजिन की आकृतिनुमा ईंट से बना एक धड़ था जिसके छाती में आंख जैसी दो गोल बटन थीं। आवाज़ सुनाई पड़ रही थी लेकिन यह वायो के भीतर से नहीं आ रही थी; क्योंकि वायो बिल्कुल यंत्रवत सामने था। खास बात यह कि सबलोग वायो से मुखातिब थे; और वायो प्रत्येक के लिए हाज़िर-प्रकट था। यह ठीक वैसे ही था जैसे आपके हवाई-यात्रा के दरम्यान आपके सीट के सामने वाले हिस्से पर ‘टीवी स्क्रीन’ चल रहा होता है। यानी वन-टू-वन इन्ट्रक्शन।

अचानक बारिश होने लगी झमाझम। वाये भींग रहा था या नहीं; यह तय करना मुश्किल था। लेकिन लोग बड़ी फुर्ति से अपने छुपने के लिए जगह तलाश लिए। बिना किसी कठिनाई के सभी बारिश से बचे हुए थे। 

अचानक एक आवाज़ उभरी। 
‘काम शुरू!’

...और दुनिया चलने लगी। लिफ्ट गतिशील हो लिए। आॅफिस की घड़ियों में टिक-टिक शुरू हो गई। पूरी दुनिया की ख़बरें टेलीविज़न पर उभरने लगी। स्त्री-पुरुष एक-दूसरे को पुरानी ही रवायत के मुताबिक देख-ताक और मुस्कुरा रहे थें। लेकिन अंतर था तो बस यह कि काम हो रहा था; पर आप सुस्ताने के बारे में नहीं सोच पा रहे थे। अभी-अभी पत्नी द्वारा बच्चे की भेजी गई सेल्फी देख पाने की बेचैनी नहीं थी। सबकुछ एक ‘सिस्टमेटिक’ ढंग से काम कर रहा था। जैसे किसी मशीन की पूर्जे अलग-अलग लगे होकर भी अलग नहीं होते; सबका काम सामूहिक प्रभाव पैदा करते हैं। 

वायो कहीं नहीं था; यह भी नहीं आभास हो रहा था कि सब के सब किसी वायवीय कब्जे में हैं। एक अप्रतिम सुकून। अलहदा आभास। बेलाग-बेलौसपन। पूरी दुनिया पहले ही की तरह किसी ढर्रे विशेष पर चलने के लिए अभ्यस्त। यंत्र में शक्ति होती है, वह शक्तिमना है; लेकिन उसका साम्राज्य मनुष्य द्वारा बनाए गए समाज और सत्ता से इस कदर बेहतर हो सकता है। नहीं सोचा था। शायद! वायो ठीक था; उसका कहना ठीक था।

‘दुनिया में दुःख का सारा कारण दिमाग है, निकाल फेंको!’

दिमाग को झुठलाने की कोशिश मनुष्य ने की थी आज वायो ने मनुष्य की सत्ता को नकार दिया था। लोगों को इससे कोई फर्क नहीं था कि उनका स्वामी/शासक भारतीय है या अमेरिकन; हिन्दुस्तानी है या ब्रितानी। हर इंसान को अपने होने का पूरेपन में अहसास चाहिए होता है। वह अपनी सोच और स्वप्न के मुताबिक कर्मक्षेत्र चुनने और अपने मनोनुकूल काम करने की छूट एवं सहूलियत चाहता है। वह चाहता है कि वह ऐसे जिए कि उससे उसका जीना संतुष्टि दे, खुशी एवं प्रसन्नता दे। आज वायो ने मानवीय सरज़मी पर वायवीय सत्ता का परचम लहराकर एक बड़ी सुकूनदायक ज़िन्दगी बख्श दी थी। अमीम से डरे लोग ऐसा सोच रहे थे। इतिहास में सताए जन वायो की शुक्रिया कर रहे थे।

लेकिन क्या सत्य इनता ही हसीन, संतोषप्रद और सचमुच अनिर्वचनीय था....

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...