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राजीव रंजन प्रसाद का एक समाजमनोभाषिक रिपोर्ट
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''मोदी जी की ‘मेक इन इंडिया’
ने हम शोध-छात्रों की अध्येतावृत्ति में दिसम्बर माह से बढ़ोतरी का घोषणा किया। लेकिन
विश्वविद्यालय ने फरवही माह तक के जो शोध-अध्येतावृत्ति प्रदान की है उसमें यह बढ़ा
हुआ पैसा नहीं प्राप्त हुआ है। यही नहीं पूछने पर विश्वविद्यालय के लोग कहते हैं कि-'जाइए, मोदी जी से पूछ लीजिए।' यार! आपलोग की हैसियत हो तो
मेरी बात उनतक पहुंचा दीजिए कि ऐसी धोखाधड़ी और ग़लत नियत रही, तो आपकी दुकानदारी ज्यादा
दिन नहीं चलने वाली।-राजीव रंजन प्रसाद''
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भारत युवा देश है। आंकड़ों में
सिर-पांव-हाथ मिला दें तो देश की पूरी आबादी की लगभग दो गुनी। यहां प्रत्येक पांच में
से एक खुद को दूसरों से भिन्न और असाधारण मानते हैं। प्रत्येक पच्चीस के समूह में
से एक नेता होने का दावा करते
हैं। कोई दलीय छात्राधिकारी है, तो कोई पद-विभूषित संयोजक-सचिव-अध्यक्ष। सब के सब अपने दावे में किसी
बड़े नामचीन अथवा स्वनामधन्य नेता के बिरादर हैं, रिश्तेदार हैं या फिर अरीबी-करीबी।
ऐसे युवा नेता के पास दो-चार मुफ़्त के सवार हैं, खाने-पीने के संगी चटोर हैं और ये
सब खाते-पीते घर से हैं; इसलिए इनके युवा नेता होने की कहानी चल पड़ती है। इनमें से
अधिसंख्य की
भाषा बदज़ुबानी
में लहराती है।
उनको देखकर और
उनकी हरकतों को दूर से निहार कर लगता है कि भारत का भविष्य उज्ज्वल है; भारतीय राजनीति
में युवा ज़मात संख्याबल में इज्ज़त के साथ सम्बोधन करने योग्य है। आस-पड़ोस, चैक-चैराहे, गली-मुहल्ले
से लेकर महाविद्यालय-विश्वविद्यालय तक उनकी आवाजाही और उठन-बैठन देखकर सुखद आश्चर्य
होता है कि ऐसे नेताओं के रहते कोई देश पतनशील, भ्रष्ट और चरित्रहीन कैसे हो सकता है?
कैसे युवाओं की इतनी
मौजूदगी के बीच
झूठ के तबेले में कोई इंतमिनान से गोरखधंधा कर सकता है? कैसे कोई नेता आम-आदमी से दुहराए
जाने वाले वादों से मुंह फेर सकता है या फिर उन्हें सियासी राजनीति के षड़यंत्र में
फांस कर हर बार
दगा दे सकता है?
लेकिन सच बिल्कुल उलट है। सर
से पांव तक युवा नेता होने के गुमान एवं गुरूर कंधा और सर झटकते; दो मिनट की बातचीत
में कई बार दाएं-बाएं देखते ऐसे नेताओं से मिलिए, तो लगेगा कि देश में जाल-जोकड़, दांव-पेचं,
झूठ-सच आदि को पैदाइशी संस्कार में लिए लोग अधिक पैदा हो गए हैं; और यही सर्वथा नेता
होने के योग्य और काबिल भी माने जाने लगे हैं। तभी तो, इनके कहकहे में धौंस का छौंक
होता है,
या नाटकीय याचनावत
मुद्रा। इनकी ख़ासियत यह है कि ऐसे
युवा नेता प्रभाव पैदा करते हुए पद पाते हैं और अन्य कई किस्म के लाभ। ख़ास मौकों पर इनकी मनमर्जिया
दुरंतो ट्रेन की तरह हर तरफ विचरण करती है लेकिन कोई पंगा नहीं लेता। कोई इन्हें सुझाव-सलाह
देने की हिमाकत नहीं करता।
वे अक्सर शब्दों
में हेकड़ी की फ़िरकी मारते हैं-‘चल-चल निकल यहां से’, ‘चल फूट’, ‘रास्ता नाप’, ‘तेरी तो’, ‘ठोक दे’, ‘बजा दे’, ‘छोड़ना नहीं’, ‘और मार’, ‘जबान
खोलेगा’, ‘पहचानता है कि नहीं’, ‘आज के बाद वह जान जाएगा’, ‘काम करना सिखाउं क्या’,
‘करता है या पिटेगा’, ‘गए कि लगाएं कान के नीचे’,
‘खींच’, ‘मार’, ‘जाने न देना’, ‘आज धुनो जम के’, ‘खर्चा-पानी चाहिए क्या’ वगैरह-वगैरह।
अलग से सुनाने की जरूरत नहीं
है कि देश की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति
में विवेक आधारित चेतना का सत्यानाश हो गया है। जिन कुछ लोगों के पास हैं वे खामोंशी
का चकलाघर चलाते हैं। वे जानते हैं कि सच बोलने का मतलब है अपने को जोखि़म में डालना;
सही का साथ देने का मतलब है अपनी कैरियर से खेल जाना। ऐसे महापंडित बनते और समाज
के ठेकेदार कहे जाने वाले लोग यह कभी नहीं कह सकते कि अगर यह ढंग सही है और बेहतर परिणाम
के लिए आश्वस्त हो और जिसमें समाज के एक बड़े वर्ग-समूह का हित-लाभ छुपा हो, तो उसे
आप दिल से करो। अपवाद हर जगह है। इसे मैं मानता
हूं।
छात्र-नेताओं का चरित्र यदि
पार्टी के चरित्र से ‘मैचिंग’ न खाए, तो उसे आज कोई भाव नहीं देता, छात्र-मोर्चा तक
के नेतृत्व का उसे अवसर नहीं मिलता। आजकल कमोबेश सभी पार्टिया हर चीज एक ही ढर्रे और
ढंग से आज़माना-परोसना चाहती हैं। उन्हें यह आभास ही नहीं है कि दुनिया में नए बदलाव
के सर्जक हमेशा नई पीढ़ी होती है। बूढ़े उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं; अपने अनुभव-संसार
से पार्टी को अनुशासित एवं सांस्कारित रख सकते हैं; लेकिन परिवर्तनकामी राजनीति का
आधारवस्तु हमेशा नए लोग, नई पीढ़ी के लोग बनते हैं। इसके लिए चे ग्वेरा की टोपी या भगत
सिंह मार्का टी-शर्ट पहनने की जरूरत नहीं है। उन्हें राहुल गांधी के आगे-पीछे अपना
चेहरा लेकर घूमने की जरूरत नहीं है। अनुराग ठाकुर की तरह शर्तिया सदस्य बनाने के बाद
ही किसी युवा से मिलना नहीं होता है।
युवा होने का अर्थ अपनी रोम-रोम
को मानसिक वैचारिकी और चिंतन-धारा द्वारा सींचना होता है जैसे ज़मीन पर रोपे गए पौधे
के साथ हम अपनी स्वाभाविक-वृत्ति बरतते अथवा अपनाते हैं। युवा होने का अर्थ किसी कार्य
को करने के लिए चिंतातुर या व्यग्रातुर होना हरग़िज नहीं होता है बल्कि उस दिशा में
कार्यशील होने के लिए अवश्यंभावी औजारों और संसाधनों का माकूल ढंग से जुटाना, सहेजना
और उसे कार्यरूप में परिणत करना होता है। युवा होने का अर्थ है, परिवेश का व्यावहारिक ज्ञान होना;
परम्परा का अनुशीलनकर्ता होना; संस्कृति का उद्गाता और उद्घोषक होना; समय का सहोदर
होना; परिस्थियों का नियंत्रक होना; भष्यि का द्रष्टा होना, तो अतीत और इतिहास से हर
समय सीखते हुए स्वयं में आवश्यक सुधार एवं परिष्कार की गूंजाइश रखने वाला होना। यह होना स्वमेव नेता होना है;
समाज का अगुवा होना है, युवा पीढ़ियों का नायक होना है, तो वर्तमान को सही, सार्थक
एवं निर्णायक तरीके से एकमेक रखने वाला सच्चा नेतृत्वकर्ता होना है।
स्मरण रहे, जनता पत्थर पूजती
है; लेकिन किसी जिंदा इंसान का पांव उस तरह कभी नहीं पूजती कि वह आचरण-व्यवहार में
दानव-दैत्य की तरह पूरे समाज को लील जाने पर आमादा हो और देश उसकी जयजयकार करती फिरे
या कि अंधानुकरण या अंधश्रद्धा में अहर्निश सर नचाती या टेकती दिखे। आधुनिक अर्थें
में आसाराम बापू से लेकर तरुण तेजपाल तक की गिनती हमारे सामने है; आडवाणी से लेकर अण्णा
हजारे तक के नाम हमारी गिनती में है।
अतः जो युवा नेता अपनी टुच्चापन
और छिछोरापन से नहीं उबरेंगे या उसे छोड़कर नए मार्ग नहीं तलाश लेंगे; तब तक उनकी ज़मीनी
दख़ल हवाई ही रहेगी। वह भी प्रचार, पैसा और प्रभाव के बूते उन्हीं ‘प्रोजेक्टेड’ नेताओं
की गिनती में गिने जाएंगे जिन्होंने अपना नाम जनता को बुझाने के लिए सरकारी खजाने से
अरबों-अरब रुपए पिछले कई सालों में फूंक दिए; लेकिन जनता के बीच उनकी सफेदपोश कमीज
को नाम देने वाली आंखें नहीं है। पिछले दिनों अखिलेश यादव को बड़े दु:ख़ के साथ एक आयोजन में कहना
पड़ाः'यूपी में लोग मुझे पहचानते ही नहीं है!’
Oh! Akhilesh, I don't aspect it....,
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नोटः लेखक राजीव रंजन प्रसाद
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में युवा राजनीतिज्ञ संचारकों के व्यवहार,
व्यक्तित्व एवं नेतृत्व को लक्षित-केन्द्रित कर संचार एवं मनोभाषाविज्ञान की दष्टि
से शोध-कार्य में संलग्न है।
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