Wednesday, March 19, 2014

चुनाव-पूर्व जरूरी है ‘वोट-बीमा’

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मतदाताओं को हमेशा तलाश होती है-विश्वसनीय, कर्मठ और जनपक्षधर उम्मीदवार की। भारतीय राजनीतिक नेतृत्व में यह एक ऐसा आसन्न संकट है जिससे गुजरने के लिए मतदाताओं को हमेशा बाध्य होना पड़ता है; लेकिन सही और उपयुक्त उम्मीदवारी को लेकर अंत तक स्थिति दुविधाग्रस्त ही बनी रहती है। चुनाव-पूर्व लोकलुभावन घोषणाएँ राजनेताओं के मुख से सुनने में चाहे जितने भी अच्छे लगते हों; उनकी असलियत सब धन बाइस पसेरी होती हंै। चुनाव के दौरान मतदाताओं के मन-दिल अथवा दिलोंदिमाग में आशांकाओं के बादल घुमड़ना आम बात हैं। जीवन सम्बन्धी असुरक्षा-बोध और लोकतांत्रिक बाने में फिर से ठगे जाने का भय आज जनता पर इस कदर तारी है कि वे कई मर्तबा ‘वोटोफोबिया’ के शिकार होते दिखाई देते हैं। नकरात्मक प्रवृत्तियों के बवंडर के बीच उनकी वास्तविक अंतःप्रवृत्तियाँ कुंद हो जाती हैं। वे मतदान में हिस्सा अवश्य लेते हैं; लेकिन उनकी यह सहभागिता महज़ आँकड़ों में प्रदर्शन-योग्य होती हैं।

गोकि लोकतंत्र के नागरिकों के लिए चुनावी-पर्व राजनीतिक उत्सवधर्मिता का प्रतीक मात्र बनकर रह गया है। चुनावी-प्रक्रिया आमजनों की दृष्टि में उन सामंतदारों, जातदारों, सुविधा-सम्पन्न लोगों के बूते की चीज है जिनका राष्ट्र-राज्य पर नियंत्रण होता है; जिन्हें ठेकेदारी से अवैध पैसे कमाने होते हैं; जिनके पास अपना बिजनेस-व्यवसाय खड़ा करने के लिए अकूत धन-सम्पदा होती हैं; जिन्हें हिंसा और अपराध के बिनाह पर अवाम पर रौब झाड़ना होता है; वे जो अपने नफे-नुकसान पर पूरी तरह विचार करते हुए राजनीतिक दलों को मुहमाँगा दानराशि भेंट करते हैं इस संसदीय प्रणाली पर कब्ज़ा अंततः उनका ही होना होता है। ऐसे संकटग्रस्त समय में जनता-जनार्दन...नीले रंग की स्याही लगी नाखून चबाने को विवश या अभ्यस्त हो चुकी है।
  
वर्तमान में लोकतंत्र और सांविधानिक संस्था ‘साइबर कैप’ और ‘मार्केट कैप’ जैसी उत्तर आधुनिक शब्दावलियों के गिरफ़्त में है। इनका वर्चस्व और प्रभुत्व इतना जबर्दस्त है कि मतदाताओं को आग-पाछ सोच पाने तक की फुरसत नहीं है। नारे के भाषिक खोल का बाना पहने खोखले राजनीतिज्ञों ने इस तरह का सम्मोहनास्त्र(मीडिया-तंत्र) चला रखा है कि हम उनके आगे सजदा करने के लिए विवश हैं। लिहाजा, ऐसे स्वांगधारियों से सीधे मुठभेड़ अथवा मुकाबले के लिए सोचना तो दूर इस बारे में कल्पना करना भी बेमानी लगता है। जबकि हक़ीकत कुछ और ही है। दरअसल, प्रायोजित ढंग से हमारे दिमागी-परसेप्शन को तेजी से बदला जा रहा है। हम जो सोच रहे हैं; आज विचार उस पर न हो कर जो हमें दिखाया जा रहा है; उस पर दिमाग केन्द्रित करने के लिए मनो-प्रेरित है। हमे जानबूझकर बाध्य किया जा रहा है कि हम अरविन्द केजरीवाल को भारतीय लोकतंत्र के नक्शे में ‘डूबते को तिनका का सहारा’ वाले मुहावरे में फिट कर के देखें। बहुविध माध्यमों के प्रयोग एवं आग्रह के द्वारा हमसे यह कहलवाने का उपक्रम किया जा रहा है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में मोदी का कोई विकल्प नहीं है। इसी तरह राहुल गाँधी के गोलमटोल चेहरे को इस कदर साफ-सफाई के साथ पेश किया जा रहा है; मानों आप छूटते ही यह कह बैठें-‘साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना, सिर को झुकाता हूँ तो आइना नज़र आता है।’

ठहरिए, अब हम मतदाताओं को वादे और दावे से आगे की सोच एवं दृष्टि विकसित करनी होगी। राजनीतिज्ञ एवं राजनीतिक दलों को हमें इस बात का अहसास कराना होगा कि 21वीं सदी का भारतीय मतदाता अब अपने ‘वोट’ का वास्तविक मूल्य(वैल्यू) चाहता है। जनता को जरूरत है तो ‘वोट बीमा’ की। अब वह मतदाता-सूची का एक संज्ञा-पद बनकर रहने को तैयार हरग़िज नहीं है। अब वह मत-प्रयोक्ता है-जनतंत्र का निर्णायक, निर्धारक और नियंत्रक भी है। अतः प्रत्येक मत-प्रयोक्ता का यह जनाधिकार है कि वह अपने जीवन की सुरक्षा, संवृद्धि एवं समृद्धि की माँग उन चुने हुए प्रतिनिधयों से करें जो पाँचशाला शासन-व्यवस्था का हिस्सा हैं या हिस्सा बनने जा रहे हैं। इसके लिए भारतीय मतदाताओं को तबीयत बनानी होगी। सामूहिक चेतना का स्वर मुखरित करना होगा। यह साबित करना होगा कि अगर सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं या चोर-चोर-मौसेरे भाई हैं, तो हमें ऐसी भाईगिरी, चारणगिरी, चटवागिरी कतई पसन्द नहीं है। हमारा यह निर्णय ही अंततः निर्णायक होगा और इसी में हमारी राजनीतिक समाजीकरण सम्बन्धी चेतना, सक्रियता और राजनीतिक सहभागिता की प्रतिपूर्ति भी संभव है। और ‘नोटा’ जैसी चुनावी-प्राधिकार जो जनता को इस बार मिले हैं, उसकी सार्थकता भी इसी चिन्तन-दृष्टि एवं निर्णय-बोध में समाहित है।

ऐसा होने पर हम मतदाता न केवल अपने लोकतंत्र की गौरव एवं गरिमा को पुनर्बहाल कर पाएँगे, अपितु सांविधानिक ढाँचे के रोगग्रस्त इलाकों को सही मायने में दुरुस्त भी कर सकेंगे। हम देखेंगे कि मोदी, केजरीवाल, राहुल अथवा कखग कोई भी भाषा के कितने भी बड़े बाज़ीगर या कि महारती खेल-खिलाड़ी क्यों न हो; उन्हें अपना दाँव अंततः चुनावी मत-प्रयोक्ताओं के हिसाब से ही खेलना होगा। जनता का प्रत्येक लोकसभा संसदीय क्षेत्र शतरंज खेल की माफ़िक वह महत्वपूर्ण खाना है जो अपनी मुक्त एवं स्वतंत्र स्थिति में इतनी कुव्वत तो रखता ही रखता है कि वह किसी भी जितती बाजी का पासा पलट दे। खतरनाक पदचिह्नों वालों राजा-मंत्री के कलुषित मंशा पर जोरदार प्रहार कर उनके निरंकुशतावादी रवैए को ढूह में बदल दे। नवउदारवाद की ओट में पसरते पूँजीवादी प्रचारतंत्र को ध्वस्त करने के लिए हमारी यह प्रतिक्रिया एक ऐसी रणभेरी होगी जिसके कलरव से भविष्य का मानचित्र गूँजायमान होगा।

अतएव, भारत की विरासत की आध्यात्मिक चेतना जिसकी जान लोकतंत्र में बसती है; उसके लिए हमें वोट का चोट करना ही होगा। समाज की सहजात बनी कुप्रथाओं, पाखण्डों, पुरोहितवादी मंशाओं, वंशवादी-परिवारवादी परम्पराओं, जाति की कठबेड़ियों, लिंग-विभेदों, वर्णिक-व्यवस्थाओं, साम्प्रदायिक चालों आदि का समूल नाश करने के लिए इस दिशा में ठोस कदम उठाना अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता और समबद्धता को सही अर्थों में अभिव्यक्ति देना है और यही आधुनिक लोकतंत्र का मुख्य लक्षित उद्देश्य भी है। इस घड़ी हमारी यही मनोकामना और शुभकामना है। आमीन!

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