पुस्तक का नाम ः अविराम काव्य-यात्री नागार्जुन
लेखिका ः डाॅ. मीना कुमारी
प्रकाशन ः शिल्पायन, 10295, लेन न. 1, वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
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नागार्जुन कौन हैं? इस प्रश्न का जवाब जनता देगी; क्योंकि नागार्जुन जनता का है। डाॅ. मीना कुमारी ‘नागार्जुन जनता का है...’ शीर्षक से लिखती हैं-‘‘उनकी कविताएँ हमें उत्तेजित करती हैं। भाव-विह्वल करती हैं, सत्य का पक्षधर बनाती हैं, हमें आन्दोलित करती हैं, हमसे नारे लगवाती हैं और मन को ऐसी परिष्कृत भावधारा में ले जाती हैं कि तमाम तटस्थ्ताओं और व्यस्तताओं के बावजूद हम उनके जुलूस में शामिल हो जाते हैं। इसलिए वे बहुसंख्यक जनता के आदर्श बन जाते हैं। आदर्श इसलिए क्योंकि हमारे मन-आत्मा में भी मनुष्यता हिलोरें मारती हैं। हम भी उनके जैसे निर्भीक, संवेदनशील और जनआस्थावादी होना चाहते हैं। उनके जैसे विशिष्ट, उनके जैसे जनवादी कवि हम न भी हो पाएँ तो भी वायवीय भावबोध के बरक़्स ठोस एवं अष्टधातुई सत्य का ज्ञापन करने वाले, विचारशील मस्तिष्क के मालिक बनें। एकदम उघड़े एवं निराकृत राजनीतिक चरित्र को समझने वाले ठोस चेतना से सम्पृक्त मन के स्वामी।’’ वह आगे कहती हैं-‘‘उनकी कविता मनुष्य के उस दृढ़ संकल्प, अविरल आस्था और प्रबल इच्छाशक्ति की संकेतार्थक बनकर उभरी है जो उसके जीवन एवं अस्तित्व का मूलाधार है और प्राण-प्रश्न भी। वे उन चन्द बुद्धिजीवियों की महफ़िल से बाहर के कवि हैं जहाँ सामाजिक यथार्थवाद की चेतना को आत्मसात न कर माक्र्स, लेनिन, माओ-त्से-तुंग के मुखौटे पूजे जाते हैं। वे ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ गाकर भी बौद्ध नहीं हैं। वे उनसे सम्बद्ध होकर भी सर्वथा असंपृक्त हैं, मुक्त हैं।’’
मैथिली साहित्य में ‘यात्री युग’ का आविर्भाव करने वाले इसी औघड़ मैथिल नाग जी अर्जुन पर केन्द्रित पुस्तक है-‘अविराम काव्य-यात्री नागार्जुन’। वर्ष 2013 के उत्तरार्द्ध में शिल्पायन प्रकाशन से छपी इस पुस्तक में नागार्जुन का जीवन-वृत्त, काव्य-यात्रा, वैचारिक-तीर्थ, भाव-भूमि, मनोभूमि सबकुछ भास्वरित है। अपने बारे में जो कवि यह कहने की कुव्वत रखता है-‘मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व/रुद्ध है, सीमित है-/आटा-दाल-नमक-लकड़ी के जुगाड़ में/पत्नी और पुत्र में!/सेठ के हुकुम में!’-यह पुस्तक उसी कवि की अकथ कहानी सदानीरा गंगा की तरह निष्कलुष और निद्र्वंद्व बयान करती है। इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका डाॅ. मीना कुमारी जीवन एवं कविता की अध्येता एवं भाषाविज्ञानी हैं जिनके मुताबिक नागार्जुन का नाम पर्याय है उस सादगी का जिसे समझना जितना आसान है, जीना उतना ही मुश्किल। कवि अरुण कमल ने नागार्जुन की इस रहस्यात्मक रचनाधर्मिता को ‘सतरंगे पंखों वाली’ भाषा कहा है। इस संतरंगी भाषा-संसार को अपने प्रत्यक्ष-बोध के ‘प्रिज़्म’ से गुजारने तथा संवेदन-पक्ष के अंतःकरण द्वारा उसे पुनश्चः भाषा में प्रकट करने में लेखिका को अथाह धैर्य, अपार साहस और अपरिमित उत्साह की जरूरत पड़ी होगी; यह सच है। यह पुस्तक इसलिए भी महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है; क्योंकि यह अपने पठन-प्रक्रम में गांभीर्यपूर्ण पाठकीयता-बोध की माँग करती है। लालित्यपूर्ण शैली और शिल्पगत नवता के स्तर पर यह पुस्तक पाठक-मन को बारम्बार बाहर से भीतर तक स्पर्शती है; संवेदना के सजग-तार को छेड़ती है। रसग्राही आस्वादक के लिए इस छुअन का अहसास महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि जब आप किसी भाषा में रमते हैं तो उसके मुहावरों, प्रोक्तियों, छंद, संगीत अथवा शब्द-संगतियों में भी रमना होता है। इस पुस्तक में शब्द, पद, पदबंध, वाक्य इत्यादि का सुगठन जबर्दस्त है। रामानुजाचार्य की भाषा में कहें तो ज्ञान, क्रिया, इच्छा, प्रेम और माधुर्य की आपसी सहमेल और संगति से जो शब्दार्थ सम्बन्ध यहाँ उपजे हैं; उसकी अन्विति-आवृत्ति अत्यन्त मनोरम है।
यद्यपि समाजभाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण और अनुप्रयुक्त शैलीविज्ञान के निकष पर नागार्जुन की कविताओं को विषय, प्रसंग अथवा दृष्टांत के आधार पर अलगा पाना दुष्कर कार्य है; तथापि यह पुस्तक अपनी सन्मार्गी-यात्रा सम्पूर्ण भाषिक-विधानों को विवेचित-विश्लेषित करते हुए अविरामतः पूर्ण करती है। जब हम इसे पढ़ना शुरू करते हैं, तो सबसे बड़ी हैरानी यह जानकर होती है कि किसी वक्त एक-एक दाने की खातिर जनकवि नागार्जुन को सौ-सौ पापड़ बेलने पड़े थे। वही नागार्जुन पुस्तक के आखिर तक आते-आते पाठक की दृष्टि में अविराम काल-यात्री बन जाते हैं। देश के ख्यातनाम 42 मानिंद साहित्यकारों एवं आलोचकों की दृष्टि में नागार्जुन के व्यक्तित्व का नाप-जोख परिशिष्ट में दिया गया है। भाषासाध्वी लेखिका ने इस प्रस्तुति को नागार्जुन की ही आत्मस्वीकृति में-‘वामन हूँ मैं, मैं विराट हूँ’ शीर्षक से प्रस्तुत की है। नागार्जुन को समझने अथवा उनके बारे में अपनी राय बनाने की दिशा में यह संक्षेपांश पाठक की बहुत सहायता करता है।
अविराम काव्य-यात्री की उनकी जन-छवि गँवई है, किन्तु मन-मस्तिष्क पूर्णतया सजग और सतर्क। गोकि ‘‘व्यक्ति अपने जीवन के अभावों को पूरने में पूरा जीवन झोंक देता है; कई बार तो वही उसके जीवन का उद्देश्य बन जाता है। नागार्जुन ने भी यही किया। अपने जीवन में प्रेम के अभाव की पूर्ति उन्होंने उस सर्वहारा पर प्रेम लुटा कर की जिनका न केवल बचपन, वरन् पूरा जीवन ही वितृष्णा एवं कुंठा का पर्याय है।’’ यद्यपि प्रेम एवं सौन्दर्य को विकुण्ठ भाव से भोगना नागार्जुन का स्वभाव है; तथापि उनके मन और आत्मा में जैसा स्फुरण आता है, उसे वह तिरोहित नहीं करते, यथातथ्य उसे अभिव्यक्ति प्रदान कर उसे स्वीकारने का साहस दिखाते हैं। इस कवि में कर्म और वर्ग-संघर्ष की चेतना जितनी जाग्रत है, उतनी ही उन्मुक्त है रस-चेतना। ‘यात्री’ नारी-सौन्दर्य मात्र को ही अपनी कविता का विषय नहीं बनाते, वरन् उसकी वेदना और त्रास को भी अपनी कविता का विषय बनाते हैं।’’ नागार्जुन इस समाज में स्त्रियों की स्थिति-दशा को लक्षित करते हुए पुरुष-सत्ता अथवा पितृसत्ता के ऊपर सीधा प्रहार करते हुए कहते हैं-‘‘किसी भी पुरुष का कैसा भी चारित्रिक पतन उससे सामाजिकता का अधिकार नहीं छीन लेता, उसे गृहजीवन से निर्वासन नहीं देता, सुसंस्कृत व्यक्तियों में उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं बनाता, और धर्म से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में ऊँचे-ऊँचे पदों तक पहुँचने का मार्ग नहीं रोक लेता। साधारणतः महान दुराचारी पुरुष भी परम सती स्त्री का आलोचक ही नहीं, न्यायकत्र्ता भी बना रहता है।’’(पृ. 184) स्त्रियों से सम्बन्धित नागार्जुन की यह चिन्ता जनसम्बोध्य हैं। उनकी सारी की सारी कविताएँ अंततः जन-जन तक पहुँचकर ही परित्राण पा सकती हैं जिनके प्रति नागार्जुन आजीवन सम्बद्ध रहे, शतधा प्रतिबद्ध रहे। फ़िलहाल वर्तमान के जनकवि नागार्जुन ने अपनी लोकप्रियता और महत्त्व को आम जनता के हितों के बरक़्स रखकर भुनाने की कोशिश कभी नहीं की। इसीलिए उनमें हँसने की, हँसाने की, हँसी को फैलाने की, दूसरों को गुदगुदाने की गहरी तमीज़ है। अपने इसी तमीज़दार सद्गुणों की वजह से नागार्जुन की लोक में पैठ सर्वाधिक और गहरी है।
लिहाजा, विराट-वामन व्यक्तित्व के धनी इस ‘बाबा’ की काव्य-कुटी में धुनी सभी रमाते हैं और लोट-पोट कर सिद्ध भी हो जाना चाहते हैं। लोक-मन की भाषा, शब्द और साहित्य के प्रहरी इस काव्य-यात्री के समक्ष शीश नवाते हैं; साष्टांग दंडवत करते हैं। नागार्जुन के रचना-कर्म में उद्भासित शब्द लोक-मन के प्रतिरूप हैं; लोक-जीवन और लोक-दर्शन के मूल अभिधेयार्थ हंै, और यथार्थपूर्ण अभिव्यंजना भी। इस यथार्थपूर्ण अभिव्यंजना को अर्थपूर्ण बनाने में साहित्य के रचना-विधान का योग-संयोग अप्रतिम होता है। कोई भी काव्य बिम्ब, प्रतीक, मिथक इत्यादि के बिना मूत्र्तमान नहीं हो सकता है। इस पुस्तक में लेखिका ने भाषिक रचना-विधानों की इयता और इसकी महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए ‘अविराम काव्य-यात्री का रचना-विधान’ शीर्षक से एक सम्पूर्ण सारगर्भित अध्याय जोड़ा है। इस अध्याय में एक जगह वह बिम्ब के सन्दर्भ में कहती हैं-‘‘प्रत्येक संवेदनशील मनुष्य जो कुछ देखता है, अनुभूत करता है, उसे किसी-न-किसी माध्यम से सम्प्रेषित करने के लिए उद्युक्त रहता है। इसी कारण रचनाकार भी एक सर्जक होने की हैसियत से अपने अन्तस की हलचल और अपनी आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा के लिए जिन सृजनशील उपादानों का संयोजन करता है, उनमें बिम्ब प्रमुख है। बिम्ब कविमानस के चित्र और साथ ही काव्य-भाषा के अन्तरंग सहचर हैं।’’(पृ. 201) तत्त्वतः भाव, रस, विचार, चिन्तन, व्यक्तित्व, व्यवहार, लिंग, वय, वर्ग, श्रेणी, धर्म, परिवार, समाज, क्षेत्र, प्रान्त, राष्ट्र इत्यादि से सम्बन्धित समस्त जन-देवियों एवं जन-देवताओं का आह्वान इस पुस्तक में लेखिका ने नागार्जुन की कविताओं के सन्दर्भ में सर्वोचित ढंग से किया है। किसी गंभीर अध्येता पाठक के लिए बहुविषयी कला-विधाओं, तथ्यों, विचारों, व्यवहार-शालाओं, जीवन-वृत्तों इत्यादि का ‘कागद की लेखी’ साहित्य में अवतरण का नाम ही है-‘अविराम काव्य-यात्री नागार्जुन’। जीवन के कंटिकापूर्ण मार्ग पर बाधाएँ अनगिनत हैं; दुख-तकलीफ असीम हैं जिसके पालने में उनका व्यक्तिव वामन है और विराट भी। अविरल-अविराम यात्रा की स्तुति वह निद्र्वद्व एवं निर्वैयक्तिक भाव से करते हैं:
तू चलता अविरल अविराम/मैं चलता अविरल अविराम/
तू जलता अविरल अविराम/मैं जलता अविरल अविराम/
जय जन-सीता जय जन-राम.....’’
नागार्जुन खारे चिन्तन के उद्गाता रवि हैं। यह उद्गायन कई अर्थों-रूपों में विशेष है। उनके भीतर मानुष प्रेम, सौन्दर्य, विचार, चिन्तन, उकताहट, टकराहट, आक्रोश, संघर्ष इत्यादि की लौ और लावा भरपूर है। अर्जित भाषा का बल-आघूर्ण अभिव्यक्ति का अपना मार्ग और ठौर स्वयं तलाश लेता है; यह पुस्तक इसकी गहरी तफ़्तीश एवं तसदीक आद्योपांत करती चलती है। नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त हिन्दीतर-भाषा(मैथिली, बाङ्ला और संस्कृत ) में भी विपुल काव्य-सामग्री को सिरजा है। यह चतुःभाषिक रचाव-बसाव पाठकीय माँग आधारित लोकप्रिय अनुवाद या संवेदनात्मक तर्जुमा मात्र नहीं है। यह उनके काव्य-यात्री होने की सार्थकता है; और उनके मानुष-प्रेम, सौन्दर्य और संघर्ष में पूर्णतया रीझेे-सीझे होने का गवाह भी। अपनी अभिव्यक्ति के लिए नागार्जुन हिन्दीतर भाषा की विभिन्न कोटियों एवं भाषिक-गुणधर्मों में निर्वैयक्तिक ढंग से विचरण करते हैं। उनका ध्येय एवं अंतःदृष्टि भाषा की दुनिया को द्विध्रुवीय(स्रोत-भाषा/लक्षित-भाषा) बनाने की आज की कोशिश को नकारना है। वे रचनाधर्मिता के आत्मबल और तपबल द्वारा अपनी विश्वदृष्टि को बहुआयामी बनाने को प्रतिबद्ध हैं। ध्यातव्य है कि ‘यात्री’ संस्कृत में कविता रचने के लिए वेद अथवा शास्त्रों को अपना उपजीव्य नहीं बनाते हैं। इसके लिए वे वर्तमान का अवगाहन करते हैं। सहयात्री-सहधर्मी त्रिलोचन को अपनी रंचना-संसार का निमित्त मानते हुए उन्होंने ‘त्रिलोचन त्रिकम्’ शीर्षक से कविता लिखी है। इस कविता में भावों का प्रबल आवेग और उछाह दर्शनीय है:
‘‘त्रिलोचनः पंचमुखः/दिगन्ते सुप्रतिष्ठितः।
चतुर्दशपदी शैली/साधिता येन सिद्धिदा।।/
भूतलं सुतलं येन्/पदाभ्यामेव संभृतम्/सूयर््याचन्द्रमसौ श्रान्तों।/
धरिणीहि सुखास्थिता।। पश्यामो वयमेकत्र/बन्धुरूपे प्रकल्पिता/
शतसाहहस्त्रकी कीर्तिः/महाभारतकालिकी।’’
इसी तरह उनका प्रभूत साहित्य मैथिली भाषा में बहुपठित और लोक-सुपरिचित है। लोक-लगाव, स्मृति और जीवनानुभव उनकी काव्य-यात्रा के सहयोगी हैं और जीवंतकारी मार्गदर्श भी। अतः यात्री का काव्य-जगत सामाजिक चिन्ताओं, दुश्वारियों और अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध का काव्य है। इससे आगे ठीकर मामा, लखिमा, गाँव की चिट्ठी, उनके जीवन की सबकुछ उनकी पत्नी, गाँव के बच्चे, भोर का सौन्दर्य, गाँव-ज़्वार, अड़ोस-पड़ोस उनकी कविता के मिज़ाज को आत्मीय और गहन मानवीय भी बनाते हैं। उनकी कविताओं में उनका प्रेम बोध और मानवीय करुणा के भाव देह पर पसीने की तरह छलछला जाते हैं।...समाज के खुरदुरे यथार्थ और संघर्ष को उकेरने के लिए वे अपने ही व्यक्तिगत जीवन की विविध अनुभूतियों का संचयन कर ऊर्जा प्राप्त करते हैं। डाॅ. मीना अपनी इन बातों की पुष्टि में नागार्जुन की एक चर्चित मैथिली कविता भी देती हैं:
‘‘हे हमर आद्या जननी/हे हमर प्रथमा प्रेयसी/हे हमर सभ किच्छु/
हे हमर किच्छु नहि/हे हमर शून्य/हे हमर पूर्णता/हे हमर अहाँ/हे हमर हम/
हमरा आशीष दियऽ/अनुमति दियऽ हमरा/बीच-बीच में/काल प्रवाहमे/
अहिना हम भसिआएल घुरी/लिप्त महालिप्त रहि अहिना/अहिना निर्लिप्त रही/
हमरा आशीष दियऽ/हे हमर आद्या/हे हमर आद्या/हे हमर आद्या।’’
आजकल प्रेम की लहर और बहार है, लेकिन प्रेम कहीं नहीं है। सौन्दर्य-सर्जकों, साधकों एवं उपासकों की पूरी खेप विद्यमान है; लेकिन सौन्दर्य कहीं नहीं है। हर वस्तु घोषित रूप से पावन और पवित्र है; लेकिन पावनता या पवित्रता सम्बन्धी मूल प्रत्यय कहीं दिखाई नहीं देता है। नागार्जुन इसी विडम्बना को लक्ष्य करते हुए कहते हैं:
‘‘प्लास्टिकक लत्ती/प्लास्टिकक फूल/रंगवेश चटकदार/
गंध मुदा बीभत्स/ रासायनिक मिक्सचर केर सड़लहा काटि सन!/
कोना क’ कोनो देवी होइती अनुकूल/सूँघि-सूँघि क’ ई फूल!’’
कहना न होगा कि नागार्जुन को किसी एक भाषा को चुनकर उसे ही अपना ‘भाग्यविधाता’ मान लेना स्वीकार्य नहीं है। डाॅ. मीना कुमारी ने इस बारे में यत्नपूर्वक नागार्जुन की चतुःभाषिक काव्य-यात्रा को शब्दबद्ध एवं भाषाबद्ध किया है। बाङ्ला में लिखी उनकी रचनाओं के सम्बद्ध में वह कहती हैं-‘‘आश्चर्य होता है कि जनयुग के सैनिक कवि नागार्जुन की बाङ्ला कविताएँ नक्सलबाड़ी आन्दोलन के तेज और ताप से वंचित रह गयी हैं। खासकर तब जब वह जीवन-भर बाङ्ला भाषा की क्लासिक और अत्याधुनिक रचनाओं से निकटता बनाए रखे। निकट से जानने वाले जानते हैं कि उनके झोले में बाङ्ला की सद्यःप्रकाशित पुस्तकें भी रहती थीं। बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम की दस्तक उनकी हिन्दी और मैथिली कविताओं में नहीं मिलती, जबकि उनकी कविता की नज़र पैनी किए परिलक्षित होती है।....नागार्जुन की बाङ्ला कविताएँ उनकी मैथिली और हिन्दी जनमानस की कविताएँ हैं, सिर्फ उनकी भाषा बाङ्ला है। हिन्दी के काव्यानुभव, संवेदनशीलता, काव्यचेतना, जीवन-संघर्ष, सौन्दर्यबोध ही उनकी बाङ्ला कविताओं में रूपान्तरित हुए हैं। यथा:
''येटा-सेटा/एटा-ओटा/तोरइ पेटे/आमार कोटा/एदिक-ओदिक/
कोठी-कोठा/बीबी मोटी/सेठ मोटा/
येटा-सेटा/येटा-ओटा/ओटा-ओटा/येटा-सेटा।’’
नागार्जुन के इस चतुःभाषिक काव्य-प्रतिभा को उनके नामों के बहुसंस्करण द्वारा आसानीपूर्वक समझा जा सकता है। स्वयं इस जनकवि के लिखे यानी छापे के अक्षरों में वे सकुशल दर्ज हैं-‘ब्रह्याण्डे सो पिंडे जानि’ की तर्ज़ पर’। नागार्जन का यह बहुनामा व्यक्तित्व लोक-संसार में विशुद्ध देसी भाषा में बिलोया हुआ है। यथा-‘वैद्यनाथ मिसिर’, ‘ठक्कन’, ‘वैदेह’, ‘यात्री’, ‘नागार्जुन’, ‘नागार्जुन भिक्खु’, ‘अर्जुन नागा’, ‘वैद्यनाथ बाबू’, ‘बाबा’, ‘जनकवि’, ‘घुमन्तु यायावर’, ‘गरीबक नेना’, ‘परिव्राजक’, ‘चिर-प्रवासी’, ‘अविराम-यात्री’ आदि। ये सभी नाम एकमेक दिखाई देते हैं; लेकिन सबका अपना अलग-अलग अर्थ है; व्यक्तित्व है; भिन्न-भिन्न व्यवहार, आकार-प्रकार, शक्ति और सामथ्र्य है। यह भी सच है कि सबका एक समन्वित-सम्मिलित प्रभाव भी दिखाई देता है जो प्रतिरोध की संचेतना के साथ स्फुट-अस्फुट ढंग से भाषा में अभिव्यक्ति पाता है। इस सम्बन्ध में विष्णुचन्द्र शर्मा मार्के की बात कहते हैं-‘‘यात्री, नागार्जुन और वैद्यनाथ मिश्र तीनों के भीतर एक-सा धड़कता हुआ दिल है; एक-सी खीज़ है-आज की व्यवस्था से; एक-सी मायूसी है और कहीं अंतर्विरोध भी है।’’(पृ. 165)
''भूँक-भूँककर हम तो हारे/बैठे रहते हैं मन के मारे।
लाए मीठे वचन कहाँ से/फीका मन है, चिन्तन खारे।।''
इस सन्दर्भ में यह कहना समीचीन होगा कि ‘‘सामाजिक स्तर पर भी आपसी अन्तर्विरोध बदलाव की स्थिति पैदा करते हैं; इस द्वंद्व की निरन्तरता और इसकी आन्तरिक टकराहटों से घबराकर कोमल संवेदना के लेखक प्रायः संघर्ष को सृजन का विरोधी तत्त्व मान लेते हैं क्योंकि इससे उन्हें अकर्मक चिन्तन और मानसिक जुगाली अधिक सुरक्षित लगती है। यही वजह है कि आज लेखकों की आइडेंटिटी नहीं है।’’ लेकिन, नागार्जुन कोरी ऐन्द्रिक अनुभूति के प्रस्तावक नहीं हैं। वे जनता के हैं; यह सर्वविदित है। वास्तव में, कोई भी बड़ा लेखक अपने समाज, समय एवं संस्कृति से असम्पृक्त नहीं रह सकता। युगप्रवाह से निरपेक्ष कोई भी प्रभाव न तो काव्य रूप में रूपायित होता है और न जीवित रह पाता है। युग का सम्पूर्ण प्रभाव आर्द्र रूप में कवि की रचना के भीतर चुपचाप निःसृत होता रहता है। नागार्जुन का मूल्यांकन लेखिका ने इन शब्दों में किया है-‘‘नागार्जुन की कविता ऐसी ख़बर(दमूे) है जो हमेशा ताज़ा(दमू) ही रहती है, वह अख़बारी ख़बर की तरह कभी बासी नहीं होती। उनकी कविता के इस ‘टटकेपन’ का कारण बकौल नामवर सिंह ‘व्यंग्य की विदग्धता’ है। उनका मानना है कि ‘‘जो वस्तु औरों की संवेदना को अछूती छोड़ जाती है वही नागार्जुन के कवित्व की रचना भूमि है।’’ यह बात उनकी बाङ्ला कविता के लिए भी अक्षरश सत्य सिद्ध होती है। उनकी बाङ्ला कविता में भले ही वह ऊर्जस्व ताप और ताव न मिले, लेकिन वे बाङ्ला साहित्य के कथ्य एवं भाषिक जगत को एक नया धरातल, नया आयाम देकर उसका मान बढ़ाती लक्षित होती हैं। वाणी की सच्ची साधना में पगे एवं जीवन में गहरे धँसकर पाए हुए अनुभवों की सच्ची तस्वीरों से वे बाङ्ला के रिक्थ को भरते हैं।
यही नहीं नागार्जुन की कविताओं में गहरी प्रश्नाकुलता और विद्रोह की बेचैनी है। उनकी कविताएँ भूख, गरीबी, अशिक्षा, अत्याचार, अमानवीयता और बेरोजगारी के बीच खड़ी होती हैं और प्रश्न करती हैं। ‘हरिजन गाथा’ साक्षी है। यह कविता नागार्जुन ने 1977 में पटना के करीब के गाँव ‘बेलछी’ के नरसंहार पर लिखी है। इस नरमेध की पीड़ा को कवि नागार्जुन जितनी शिद्दत से महसूस करते हैं और कालांतर में उस वर्ग की मुक्ति के लिए जिस तरह के स्वप्न देखते हैं, वह विरल है। मैथिल ब्राह्मण कवि नागार्जुन ने अवर्ण जाति के शिशु को विष्णु का अवतार कहा है। इस कविता के माध्यम से नागार्जुन राजनीतिक पार्टी के स्वरूप, हथियारबंद हिंसक आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रान्ति की कल्पना करते हैं जिसे इस नवजात शिशु के द्वारा साकार होते देखना चाहते हैं। यह स्वप्न आसानी से प्राप्य नहीं है; क्योंकि अपने जन्मजात संस्कारों से मुक्त हो पाना बहुत कठिन होता है; सवर्ण सामन्त इसी बुर्जुआ मानसिकता की पैदाइश हैं। लेकिन जनकवि ने इसको लक्ष्य कर ‘हरिजन गाथा’ का जो प्रतिपाद्य तैयार किया है; यह सिर्फ उन्हीं के बूते की बात थी। लेखिका यह भी याद दिलाती हैं कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नागार्जुन ने इस कविता का विकास माक्र्सवादी नजरिये से किया है, दलितवादी नजरिये से नहीं। इसलिए इस कविता का दलित-विमर्श वास्तव में ‘सर्वहारा-चेतना’ को रेखांकित करने के साथ पूरा हो जाता है। कला में माक्र्सवादी समझ-संवेदना का यह अप्रतिम उदाहरण है और सवर्णों के ओछेपन का सार्थक प्रत्युत्तर भी। नागार्जुन तो इस मामले में और भी बड़े हैं क्योंकि उनकी कविता में ‘‘भारतीय समाज के पिछले 50 वर्षों के इतिहास की हर घटना से प्रभावित जन-मन की हर धड़कन मौजूद है। नागार्जुन समाज के इतिहास के साथ-साथ जन-भावनाओं के इतिहास के कवि हैं।’’(पृ. 188)
पौरुष के कवि केदारनाथ अग्रवाल जो कि कविता को ‘अभौगोलिक’ कहते हैं; की दृष्टि से नागार्जुन की काव्य-यात्रा को देखें, तो ‘बाबा’ की कविताएँ अभौगोलिक होकर भी एक विशेष केन्द्र से बद्ध है; उनसे नाभिनाल सम्बन्धित हैं और उन्हीं को सम्बोधित भी। लोक एवं भाषा के गहरे मर्म एवं संवेदना से सुपरिचित नागार्जुन के लिए यह शब्दज संसार भौतिक-साधन प्राप्ति का जरिया मात्र नहीं था; इसे वे प्रेरित होने और दूसरों को प्रेरित करने का निमित मानते थे। इसीलिए नागार्जुन पर पूर्ववर्ती महाकवियों का प्रभाव खासा दिखता है। कवि कुलगुरु कालिदास से जनकवि नागार्जुन ने साहित्य-बोध का उपहार पाया था। इसके अतिरिक्त ‘बाबा’ के लालित्य-बोध और भाव-बोध के विकास में बड़ा योगदान जयदेव और विद्यापति का भी है। कालिदास, जयदेव और विद्यापति के प्रभूत प्रभाव, लोकचेतना से प्रगतिशील तत्त्व ग्रहण करने के बाद नागार्जुन कबीर से उनका खरापन हासिल करते हैं। लेकिन, आश्र्यजनक ढंग से वे जीवन के सांध्य-काल में इन सबके समुच्चय तुलसीदास से कविता वैतरणी पार करवाने के लिए आशीर्वाद की भी माँग करते हैं। आशीर्वादी पाने की उनकी यह आकांक्षा खारे चिन्तन के भाव-संवेग में पगी है।
निष्कर्षतः यह समीक्ष्य पुस्तक जीवन-पगडंडियों पर ‘बाबा’ की अविराम-यात्रा की सचबयानी है। इसकी काव्यगत अर्थच्छटाएँ सामाजिकीय रचनामिति का रेखांकन-चित्रांकन मात्र नहीं हैं। पाठक इस पुस्तक का सहयात्री बनकर यह जान जाता है कि-‘‘उनकी कविता में आत्मचेतना के क्षण हैं, मनुष्य से पशु-पक्षी तक पहुँचने वाली करुणा है, दलित-पीड़ित जन की चिन्ता है, प्रखर राजनीतिक चेतना है, जन-संघर्षों से सच्ची सहानुभूति है, नयी पीढ़ी से उत्कट आत्मीयता है, तीखा व्यंग्य है, अकंुठ विनोद है; लेकिन कहीं भी न बासीपन है, न दोहराव है। यह पुस्तक अपनी प्रस्तावना का अक्षरांभ ऐसे ही भावोद्दीपन एवं प्रत्यक्षीकरण के साथ करती है। लेकिन, यह पुस्तक पाठक की कितनी है? यह जानने-समझने के लिए तो पाठकीय-मानस की प्रतिक्रिया ही अत्यावश्यक है। तब भी इतना तो तय है कि यह पुस्तक प्रथम दृष्ट्या अपने श्वेत-श्याम आवरण में पाठक को नागार्जुन का ‘कैरिकेचर’ देखने के लिए आमंत्रण देती है और इसके बाद पाठक संवेदना और विचार, प्रस्फुटन और मौन, शून्यता और पूर्णता की जुगलबन्दी के बीच स्फूर्ततः पैठना आरम्भ कर देता है जहाँ शब्द ही व्योम का वितान और, यह शब्दज संसार रचते हैं।
नोट : यह राजीव रंजन प्रसाद की अप्रकाशित 9वीं पुस्तक-समीक्षा है। इसे मुझे लगता है यह कुछ ठीक बन पड़ा है।
लेखिका ः डाॅ. मीना कुमारी
प्रकाशन ः शिल्पायन, 10295, लेन न. 1, वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
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नागार्जुन कौन हैं? इस प्रश्न का जवाब जनता देगी; क्योंकि नागार्जुन जनता का है। डाॅ. मीना कुमारी ‘नागार्जुन जनता का है...’ शीर्षक से लिखती हैं-‘‘उनकी कविताएँ हमें उत्तेजित करती हैं। भाव-विह्वल करती हैं, सत्य का पक्षधर बनाती हैं, हमें आन्दोलित करती हैं, हमसे नारे लगवाती हैं और मन को ऐसी परिष्कृत भावधारा में ले जाती हैं कि तमाम तटस्थ्ताओं और व्यस्तताओं के बावजूद हम उनके जुलूस में शामिल हो जाते हैं। इसलिए वे बहुसंख्यक जनता के आदर्श बन जाते हैं। आदर्श इसलिए क्योंकि हमारे मन-आत्मा में भी मनुष्यता हिलोरें मारती हैं। हम भी उनके जैसे निर्भीक, संवेदनशील और जनआस्थावादी होना चाहते हैं। उनके जैसे विशिष्ट, उनके जैसे जनवादी कवि हम न भी हो पाएँ तो भी वायवीय भावबोध के बरक़्स ठोस एवं अष्टधातुई सत्य का ज्ञापन करने वाले, विचारशील मस्तिष्क के मालिक बनें। एकदम उघड़े एवं निराकृत राजनीतिक चरित्र को समझने वाले ठोस चेतना से सम्पृक्त मन के स्वामी।’’ वह आगे कहती हैं-‘‘उनकी कविता मनुष्य के उस दृढ़ संकल्प, अविरल आस्था और प्रबल इच्छाशक्ति की संकेतार्थक बनकर उभरी है जो उसके जीवन एवं अस्तित्व का मूलाधार है और प्राण-प्रश्न भी। वे उन चन्द बुद्धिजीवियों की महफ़िल से बाहर के कवि हैं जहाँ सामाजिक यथार्थवाद की चेतना को आत्मसात न कर माक्र्स, लेनिन, माओ-त्से-तुंग के मुखौटे पूजे जाते हैं। वे ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ गाकर भी बौद्ध नहीं हैं। वे उनसे सम्बद्ध होकर भी सर्वथा असंपृक्त हैं, मुक्त हैं।’’
मैथिली साहित्य में ‘यात्री युग’ का आविर्भाव करने वाले इसी औघड़ मैथिल नाग जी अर्जुन पर केन्द्रित पुस्तक है-‘अविराम काव्य-यात्री नागार्जुन’। वर्ष 2013 के उत्तरार्द्ध में शिल्पायन प्रकाशन से छपी इस पुस्तक में नागार्जुन का जीवन-वृत्त, काव्य-यात्रा, वैचारिक-तीर्थ, भाव-भूमि, मनोभूमि सबकुछ भास्वरित है। अपने बारे में जो कवि यह कहने की कुव्वत रखता है-‘मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व/रुद्ध है, सीमित है-/आटा-दाल-नमक-लकड़ी के जुगाड़ में/पत्नी और पुत्र में!/सेठ के हुकुम में!’-यह पुस्तक उसी कवि की अकथ कहानी सदानीरा गंगा की तरह निष्कलुष और निद्र्वंद्व बयान करती है। इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका डाॅ. मीना कुमारी जीवन एवं कविता की अध्येता एवं भाषाविज्ञानी हैं जिनके मुताबिक नागार्जुन का नाम पर्याय है उस सादगी का जिसे समझना जितना आसान है, जीना उतना ही मुश्किल। कवि अरुण कमल ने नागार्जुन की इस रहस्यात्मक रचनाधर्मिता को ‘सतरंगे पंखों वाली’ भाषा कहा है। इस संतरंगी भाषा-संसार को अपने प्रत्यक्ष-बोध के ‘प्रिज़्म’ से गुजारने तथा संवेदन-पक्ष के अंतःकरण द्वारा उसे पुनश्चः भाषा में प्रकट करने में लेखिका को अथाह धैर्य, अपार साहस और अपरिमित उत्साह की जरूरत पड़ी होगी; यह सच है। यह पुस्तक इसलिए भी महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय है; क्योंकि यह अपने पठन-प्रक्रम में गांभीर्यपूर्ण पाठकीयता-बोध की माँग करती है। लालित्यपूर्ण शैली और शिल्पगत नवता के स्तर पर यह पुस्तक पाठक-मन को बारम्बार बाहर से भीतर तक स्पर्शती है; संवेदना के सजग-तार को छेड़ती है। रसग्राही आस्वादक के लिए इस छुअन का अहसास महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि जब आप किसी भाषा में रमते हैं तो उसके मुहावरों, प्रोक्तियों, छंद, संगीत अथवा शब्द-संगतियों में भी रमना होता है। इस पुस्तक में शब्द, पद, पदबंध, वाक्य इत्यादि का सुगठन जबर्दस्त है। रामानुजाचार्य की भाषा में कहें तो ज्ञान, क्रिया, इच्छा, प्रेम और माधुर्य की आपसी सहमेल और संगति से जो शब्दार्थ सम्बन्ध यहाँ उपजे हैं; उसकी अन्विति-आवृत्ति अत्यन्त मनोरम है।
यद्यपि समाजभाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण और अनुप्रयुक्त शैलीविज्ञान के निकष पर नागार्जुन की कविताओं को विषय, प्रसंग अथवा दृष्टांत के आधार पर अलगा पाना दुष्कर कार्य है; तथापि यह पुस्तक अपनी सन्मार्गी-यात्रा सम्पूर्ण भाषिक-विधानों को विवेचित-विश्लेषित करते हुए अविरामतः पूर्ण करती है। जब हम इसे पढ़ना शुरू करते हैं, तो सबसे बड़ी हैरानी यह जानकर होती है कि किसी वक्त एक-एक दाने की खातिर जनकवि नागार्जुन को सौ-सौ पापड़ बेलने पड़े थे। वही नागार्जुन पुस्तक के आखिर तक आते-आते पाठक की दृष्टि में अविराम काल-यात्री बन जाते हैं। देश के ख्यातनाम 42 मानिंद साहित्यकारों एवं आलोचकों की दृष्टि में नागार्जुन के व्यक्तित्व का नाप-जोख परिशिष्ट में दिया गया है। भाषासाध्वी लेखिका ने इस प्रस्तुति को नागार्जुन की ही आत्मस्वीकृति में-‘वामन हूँ मैं, मैं विराट हूँ’ शीर्षक से प्रस्तुत की है। नागार्जुन को समझने अथवा उनके बारे में अपनी राय बनाने की दिशा में यह संक्षेपांश पाठक की बहुत सहायता करता है।
अविराम काव्य-यात्री की उनकी जन-छवि गँवई है, किन्तु मन-मस्तिष्क पूर्णतया सजग और सतर्क। गोकि ‘‘व्यक्ति अपने जीवन के अभावों को पूरने में पूरा जीवन झोंक देता है; कई बार तो वही उसके जीवन का उद्देश्य बन जाता है। नागार्जुन ने भी यही किया। अपने जीवन में प्रेम के अभाव की पूर्ति उन्होंने उस सर्वहारा पर प्रेम लुटा कर की जिनका न केवल बचपन, वरन् पूरा जीवन ही वितृष्णा एवं कुंठा का पर्याय है।’’ यद्यपि प्रेम एवं सौन्दर्य को विकुण्ठ भाव से भोगना नागार्जुन का स्वभाव है; तथापि उनके मन और आत्मा में जैसा स्फुरण आता है, उसे वह तिरोहित नहीं करते, यथातथ्य उसे अभिव्यक्ति प्रदान कर उसे स्वीकारने का साहस दिखाते हैं। इस कवि में कर्म और वर्ग-संघर्ष की चेतना जितनी जाग्रत है, उतनी ही उन्मुक्त है रस-चेतना। ‘यात्री’ नारी-सौन्दर्य मात्र को ही अपनी कविता का विषय नहीं बनाते, वरन् उसकी वेदना और त्रास को भी अपनी कविता का विषय बनाते हैं।’’ नागार्जुन इस समाज में स्त्रियों की स्थिति-दशा को लक्षित करते हुए पुरुष-सत्ता अथवा पितृसत्ता के ऊपर सीधा प्रहार करते हुए कहते हैं-‘‘किसी भी पुरुष का कैसा भी चारित्रिक पतन उससे सामाजिकता का अधिकार नहीं छीन लेता, उसे गृहजीवन से निर्वासन नहीं देता, सुसंस्कृत व्यक्तियों में उसका प्रवेश निषिद्ध नहीं बनाता, और धर्म से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में ऊँचे-ऊँचे पदों तक पहुँचने का मार्ग नहीं रोक लेता। साधारणतः महान दुराचारी पुरुष भी परम सती स्त्री का आलोचक ही नहीं, न्यायकत्र्ता भी बना रहता है।’’(पृ. 184) स्त्रियों से सम्बन्धित नागार्जुन की यह चिन्ता जनसम्बोध्य हैं। उनकी सारी की सारी कविताएँ अंततः जन-जन तक पहुँचकर ही परित्राण पा सकती हैं जिनके प्रति नागार्जुन आजीवन सम्बद्ध रहे, शतधा प्रतिबद्ध रहे। फ़िलहाल वर्तमान के जनकवि नागार्जुन ने अपनी लोकप्रियता और महत्त्व को आम जनता के हितों के बरक़्स रखकर भुनाने की कोशिश कभी नहीं की। इसीलिए उनमें हँसने की, हँसाने की, हँसी को फैलाने की, दूसरों को गुदगुदाने की गहरी तमीज़ है। अपने इसी तमीज़दार सद्गुणों की वजह से नागार्जुन की लोक में पैठ सर्वाधिक और गहरी है।
लिहाजा, विराट-वामन व्यक्तित्व के धनी इस ‘बाबा’ की काव्य-कुटी में धुनी सभी रमाते हैं और लोट-पोट कर सिद्ध भी हो जाना चाहते हैं। लोक-मन की भाषा, शब्द और साहित्य के प्रहरी इस काव्य-यात्री के समक्ष शीश नवाते हैं; साष्टांग दंडवत करते हैं। नागार्जुन के रचना-कर्म में उद्भासित शब्द लोक-मन के प्रतिरूप हैं; लोक-जीवन और लोक-दर्शन के मूल अभिधेयार्थ हंै, और यथार्थपूर्ण अभिव्यंजना भी। इस यथार्थपूर्ण अभिव्यंजना को अर्थपूर्ण बनाने में साहित्य के रचना-विधान का योग-संयोग अप्रतिम होता है। कोई भी काव्य बिम्ब, प्रतीक, मिथक इत्यादि के बिना मूत्र्तमान नहीं हो सकता है। इस पुस्तक में लेखिका ने भाषिक रचना-विधानों की इयता और इसकी महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए ‘अविराम काव्य-यात्री का रचना-विधान’ शीर्षक से एक सम्पूर्ण सारगर्भित अध्याय जोड़ा है। इस अध्याय में एक जगह वह बिम्ब के सन्दर्भ में कहती हैं-‘‘प्रत्येक संवेदनशील मनुष्य जो कुछ देखता है, अनुभूत करता है, उसे किसी-न-किसी माध्यम से सम्प्रेषित करने के लिए उद्युक्त रहता है। इसी कारण रचनाकार भी एक सर्जक होने की हैसियत से अपने अन्तस की हलचल और अपनी आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा के लिए जिन सृजनशील उपादानों का संयोजन करता है, उनमें बिम्ब प्रमुख है। बिम्ब कविमानस के चित्र और साथ ही काव्य-भाषा के अन्तरंग सहचर हैं।’’(पृ. 201) तत्त्वतः भाव, रस, विचार, चिन्तन, व्यक्तित्व, व्यवहार, लिंग, वय, वर्ग, श्रेणी, धर्म, परिवार, समाज, क्षेत्र, प्रान्त, राष्ट्र इत्यादि से सम्बन्धित समस्त जन-देवियों एवं जन-देवताओं का आह्वान इस पुस्तक में लेखिका ने नागार्जुन की कविताओं के सन्दर्भ में सर्वोचित ढंग से किया है। किसी गंभीर अध्येता पाठक के लिए बहुविषयी कला-विधाओं, तथ्यों, विचारों, व्यवहार-शालाओं, जीवन-वृत्तों इत्यादि का ‘कागद की लेखी’ साहित्य में अवतरण का नाम ही है-‘अविराम काव्य-यात्री नागार्जुन’। जीवन के कंटिकापूर्ण मार्ग पर बाधाएँ अनगिनत हैं; दुख-तकलीफ असीम हैं जिसके पालने में उनका व्यक्तिव वामन है और विराट भी। अविरल-अविराम यात्रा की स्तुति वह निद्र्वद्व एवं निर्वैयक्तिक भाव से करते हैं:
तू चलता अविरल अविराम/मैं चलता अविरल अविराम/
तू जलता अविरल अविराम/मैं जलता अविरल अविराम/
जय जन-सीता जय जन-राम.....’’
नागार्जुन खारे चिन्तन के उद्गाता रवि हैं। यह उद्गायन कई अर्थों-रूपों में विशेष है। उनके भीतर मानुष प्रेम, सौन्दर्य, विचार, चिन्तन, उकताहट, टकराहट, आक्रोश, संघर्ष इत्यादि की लौ और लावा भरपूर है। अर्जित भाषा का बल-आघूर्ण अभिव्यक्ति का अपना मार्ग और ठौर स्वयं तलाश लेता है; यह पुस्तक इसकी गहरी तफ़्तीश एवं तसदीक आद्योपांत करती चलती है। नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त हिन्दीतर-भाषा(मैथिली, बाङ्ला और संस्कृत ) में भी विपुल काव्य-सामग्री को सिरजा है। यह चतुःभाषिक रचाव-बसाव पाठकीय माँग आधारित लोकप्रिय अनुवाद या संवेदनात्मक तर्जुमा मात्र नहीं है। यह उनके काव्य-यात्री होने की सार्थकता है; और उनके मानुष-प्रेम, सौन्दर्य और संघर्ष में पूर्णतया रीझेे-सीझे होने का गवाह भी। अपनी अभिव्यक्ति के लिए नागार्जुन हिन्दीतर भाषा की विभिन्न कोटियों एवं भाषिक-गुणधर्मों में निर्वैयक्तिक ढंग से विचरण करते हैं। उनका ध्येय एवं अंतःदृष्टि भाषा की दुनिया को द्विध्रुवीय(स्रोत-भाषा/लक्षित-भाषा) बनाने की आज की कोशिश को नकारना है। वे रचनाधर्मिता के आत्मबल और तपबल द्वारा अपनी विश्वदृष्टि को बहुआयामी बनाने को प्रतिबद्ध हैं। ध्यातव्य है कि ‘यात्री’ संस्कृत में कविता रचने के लिए वेद अथवा शास्त्रों को अपना उपजीव्य नहीं बनाते हैं। इसके लिए वे वर्तमान का अवगाहन करते हैं। सहयात्री-सहधर्मी त्रिलोचन को अपनी रंचना-संसार का निमित्त मानते हुए उन्होंने ‘त्रिलोचन त्रिकम्’ शीर्षक से कविता लिखी है। इस कविता में भावों का प्रबल आवेग और उछाह दर्शनीय है:
‘‘त्रिलोचनः पंचमुखः/दिगन्ते सुप्रतिष्ठितः।
चतुर्दशपदी शैली/साधिता येन सिद्धिदा।।/
भूतलं सुतलं येन्/पदाभ्यामेव संभृतम्/सूयर््याचन्द्रमसौ श्रान्तों।/
धरिणीहि सुखास्थिता।। पश्यामो वयमेकत्र/बन्धुरूपे प्रकल्पिता/
शतसाहहस्त्रकी कीर्तिः/महाभारतकालिकी।’’
इसी तरह उनका प्रभूत साहित्य मैथिली भाषा में बहुपठित और लोक-सुपरिचित है। लोक-लगाव, स्मृति और जीवनानुभव उनकी काव्य-यात्रा के सहयोगी हैं और जीवंतकारी मार्गदर्श भी। अतः यात्री का काव्य-जगत सामाजिक चिन्ताओं, दुश्वारियों और अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध का काव्य है। इससे आगे ठीकर मामा, लखिमा, गाँव की चिट्ठी, उनके जीवन की सबकुछ उनकी पत्नी, गाँव के बच्चे, भोर का सौन्दर्य, गाँव-ज़्वार, अड़ोस-पड़ोस उनकी कविता के मिज़ाज को आत्मीय और गहन मानवीय भी बनाते हैं। उनकी कविताओं में उनका प्रेम बोध और मानवीय करुणा के भाव देह पर पसीने की तरह छलछला जाते हैं।...समाज के खुरदुरे यथार्थ और संघर्ष को उकेरने के लिए वे अपने ही व्यक्तिगत जीवन की विविध अनुभूतियों का संचयन कर ऊर्जा प्राप्त करते हैं। डाॅ. मीना अपनी इन बातों की पुष्टि में नागार्जुन की एक चर्चित मैथिली कविता भी देती हैं:
‘‘हे हमर आद्या जननी/हे हमर प्रथमा प्रेयसी/हे हमर सभ किच्छु/
हे हमर किच्छु नहि/हे हमर शून्य/हे हमर पूर्णता/हे हमर अहाँ/हे हमर हम/
हमरा आशीष दियऽ/अनुमति दियऽ हमरा/बीच-बीच में/काल प्रवाहमे/
अहिना हम भसिआएल घुरी/लिप्त महालिप्त रहि अहिना/अहिना निर्लिप्त रही/
हमरा आशीष दियऽ/हे हमर आद्या/हे हमर आद्या/हे हमर आद्या।’’
आजकल प्रेम की लहर और बहार है, लेकिन प्रेम कहीं नहीं है। सौन्दर्य-सर्जकों, साधकों एवं उपासकों की पूरी खेप विद्यमान है; लेकिन सौन्दर्य कहीं नहीं है। हर वस्तु घोषित रूप से पावन और पवित्र है; लेकिन पावनता या पवित्रता सम्बन्धी मूल प्रत्यय कहीं दिखाई नहीं देता है। नागार्जुन इसी विडम्बना को लक्ष्य करते हुए कहते हैं:
‘‘प्लास्टिकक लत्ती/प्लास्टिकक फूल/रंगवेश चटकदार/
गंध मुदा बीभत्स/ रासायनिक मिक्सचर केर सड़लहा काटि सन!/
कोना क’ कोनो देवी होइती अनुकूल/सूँघि-सूँघि क’ ई फूल!’’
कहना न होगा कि नागार्जुन को किसी एक भाषा को चुनकर उसे ही अपना ‘भाग्यविधाता’ मान लेना स्वीकार्य नहीं है। डाॅ. मीना कुमारी ने इस बारे में यत्नपूर्वक नागार्जुन की चतुःभाषिक काव्य-यात्रा को शब्दबद्ध एवं भाषाबद्ध किया है। बाङ्ला में लिखी उनकी रचनाओं के सम्बद्ध में वह कहती हैं-‘‘आश्चर्य होता है कि जनयुग के सैनिक कवि नागार्जुन की बाङ्ला कविताएँ नक्सलबाड़ी आन्दोलन के तेज और ताप से वंचित रह गयी हैं। खासकर तब जब वह जीवन-भर बाङ्ला भाषा की क्लासिक और अत्याधुनिक रचनाओं से निकटता बनाए रखे। निकट से जानने वाले जानते हैं कि उनके झोले में बाङ्ला की सद्यःप्रकाशित पुस्तकें भी रहती थीं। बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम की दस्तक उनकी हिन्दी और मैथिली कविताओं में नहीं मिलती, जबकि उनकी कविता की नज़र पैनी किए परिलक्षित होती है।....नागार्जुन की बाङ्ला कविताएँ उनकी मैथिली और हिन्दी जनमानस की कविताएँ हैं, सिर्फ उनकी भाषा बाङ्ला है। हिन्दी के काव्यानुभव, संवेदनशीलता, काव्यचेतना, जीवन-संघर्ष, सौन्दर्यबोध ही उनकी बाङ्ला कविताओं में रूपान्तरित हुए हैं। यथा:
''येटा-सेटा/एटा-ओटा/तोरइ पेटे/आमार कोटा/एदिक-ओदिक/
कोठी-कोठा/बीबी मोटी/सेठ मोटा/
येटा-सेटा/येटा-ओटा/ओटा-ओटा/येटा-सेटा।’’
नागार्जुन के इस चतुःभाषिक काव्य-प्रतिभा को उनके नामों के बहुसंस्करण द्वारा आसानीपूर्वक समझा जा सकता है। स्वयं इस जनकवि के लिखे यानी छापे के अक्षरों में वे सकुशल दर्ज हैं-‘ब्रह्याण्डे सो पिंडे जानि’ की तर्ज़ पर’। नागार्जन का यह बहुनामा व्यक्तित्व लोक-संसार में विशुद्ध देसी भाषा में बिलोया हुआ है। यथा-‘वैद्यनाथ मिसिर’, ‘ठक्कन’, ‘वैदेह’, ‘यात्री’, ‘नागार्जुन’, ‘नागार्जुन भिक्खु’, ‘अर्जुन नागा’, ‘वैद्यनाथ बाबू’, ‘बाबा’, ‘जनकवि’, ‘घुमन्तु यायावर’, ‘गरीबक नेना’, ‘परिव्राजक’, ‘चिर-प्रवासी’, ‘अविराम-यात्री’ आदि। ये सभी नाम एकमेक दिखाई देते हैं; लेकिन सबका अपना अलग-अलग अर्थ है; व्यक्तित्व है; भिन्न-भिन्न व्यवहार, आकार-प्रकार, शक्ति और सामथ्र्य है। यह भी सच है कि सबका एक समन्वित-सम्मिलित प्रभाव भी दिखाई देता है जो प्रतिरोध की संचेतना के साथ स्फुट-अस्फुट ढंग से भाषा में अभिव्यक्ति पाता है। इस सम्बन्ध में विष्णुचन्द्र शर्मा मार्के की बात कहते हैं-‘‘यात्री, नागार्जुन और वैद्यनाथ मिश्र तीनों के भीतर एक-सा धड़कता हुआ दिल है; एक-सी खीज़ है-आज की व्यवस्था से; एक-सी मायूसी है और कहीं अंतर्विरोध भी है।’’(पृ. 165)
''भूँक-भूँककर हम तो हारे/बैठे रहते हैं मन के मारे।
लाए मीठे वचन कहाँ से/फीका मन है, चिन्तन खारे।।''
इस सन्दर्भ में यह कहना समीचीन होगा कि ‘‘सामाजिक स्तर पर भी आपसी अन्तर्विरोध बदलाव की स्थिति पैदा करते हैं; इस द्वंद्व की निरन्तरता और इसकी आन्तरिक टकराहटों से घबराकर कोमल संवेदना के लेखक प्रायः संघर्ष को सृजन का विरोधी तत्त्व मान लेते हैं क्योंकि इससे उन्हें अकर्मक चिन्तन और मानसिक जुगाली अधिक सुरक्षित लगती है। यही वजह है कि आज लेखकों की आइडेंटिटी नहीं है।’’ लेकिन, नागार्जुन कोरी ऐन्द्रिक अनुभूति के प्रस्तावक नहीं हैं। वे जनता के हैं; यह सर्वविदित है। वास्तव में, कोई भी बड़ा लेखक अपने समाज, समय एवं संस्कृति से असम्पृक्त नहीं रह सकता। युगप्रवाह से निरपेक्ष कोई भी प्रभाव न तो काव्य रूप में रूपायित होता है और न जीवित रह पाता है। युग का सम्पूर्ण प्रभाव आर्द्र रूप में कवि की रचना के भीतर चुपचाप निःसृत होता रहता है। नागार्जुन का मूल्यांकन लेखिका ने इन शब्दों में किया है-‘‘नागार्जुन की कविता ऐसी ख़बर(दमूे) है जो हमेशा ताज़ा(दमू) ही रहती है, वह अख़बारी ख़बर की तरह कभी बासी नहीं होती। उनकी कविता के इस ‘टटकेपन’ का कारण बकौल नामवर सिंह ‘व्यंग्य की विदग्धता’ है। उनका मानना है कि ‘‘जो वस्तु औरों की संवेदना को अछूती छोड़ जाती है वही नागार्जुन के कवित्व की रचना भूमि है।’’ यह बात उनकी बाङ्ला कविता के लिए भी अक्षरश सत्य सिद्ध होती है। उनकी बाङ्ला कविता में भले ही वह ऊर्जस्व ताप और ताव न मिले, लेकिन वे बाङ्ला साहित्य के कथ्य एवं भाषिक जगत को एक नया धरातल, नया आयाम देकर उसका मान बढ़ाती लक्षित होती हैं। वाणी की सच्ची साधना में पगे एवं जीवन में गहरे धँसकर पाए हुए अनुभवों की सच्ची तस्वीरों से वे बाङ्ला के रिक्थ को भरते हैं।
यही नहीं नागार्जुन की कविताओं में गहरी प्रश्नाकुलता और विद्रोह की बेचैनी है। उनकी कविताएँ भूख, गरीबी, अशिक्षा, अत्याचार, अमानवीयता और बेरोजगारी के बीच खड़ी होती हैं और प्रश्न करती हैं। ‘हरिजन गाथा’ साक्षी है। यह कविता नागार्जुन ने 1977 में पटना के करीब के गाँव ‘बेलछी’ के नरसंहार पर लिखी है। इस नरमेध की पीड़ा को कवि नागार्जुन जितनी शिद्दत से महसूस करते हैं और कालांतर में उस वर्ग की मुक्ति के लिए जिस तरह के स्वप्न देखते हैं, वह विरल है। मैथिल ब्राह्मण कवि नागार्जुन ने अवर्ण जाति के शिशु को विष्णु का अवतार कहा है। इस कविता के माध्यम से नागार्जुन राजनीतिक पार्टी के स्वरूप, हथियारबंद हिंसक आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रान्ति की कल्पना करते हैं जिसे इस नवजात शिशु के द्वारा साकार होते देखना चाहते हैं। यह स्वप्न आसानी से प्राप्य नहीं है; क्योंकि अपने जन्मजात संस्कारों से मुक्त हो पाना बहुत कठिन होता है; सवर्ण सामन्त इसी बुर्जुआ मानसिकता की पैदाइश हैं। लेकिन जनकवि ने इसको लक्ष्य कर ‘हरिजन गाथा’ का जो प्रतिपाद्य तैयार किया है; यह सिर्फ उन्हीं के बूते की बात थी। लेखिका यह भी याद दिलाती हैं कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नागार्जुन ने इस कविता का विकास माक्र्सवादी नजरिये से किया है, दलितवादी नजरिये से नहीं। इसलिए इस कविता का दलित-विमर्श वास्तव में ‘सर्वहारा-चेतना’ को रेखांकित करने के साथ पूरा हो जाता है। कला में माक्र्सवादी समझ-संवेदना का यह अप्रतिम उदाहरण है और सवर्णों के ओछेपन का सार्थक प्रत्युत्तर भी। नागार्जुन तो इस मामले में और भी बड़े हैं क्योंकि उनकी कविता में ‘‘भारतीय समाज के पिछले 50 वर्षों के इतिहास की हर घटना से प्रभावित जन-मन की हर धड़कन मौजूद है। नागार्जुन समाज के इतिहास के साथ-साथ जन-भावनाओं के इतिहास के कवि हैं।’’(पृ. 188)
पौरुष के कवि केदारनाथ अग्रवाल जो कि कविता को ‘अभौगोलिक’ कहते हैं; की दृष्टि से नागार्जुन की काव्य-यात्रा को देखें, तो ‘बाबा’ की कविताएँ अभौगोलिक होकर भी एक विशेष केन्द्र से बद्ध है; उनसे नाभिनाल सम्बन्धित हैं और उन्हीं को सम्बोधित भी। लोक एवं भाषा के गहरे मर्म एवं संवेदना से सुपरिचित नागार्जुन के लिए यह शब्दज संसार भौतिक-साधन प्राप्ति का जरिया मात्र नहीं था; इसे वे प्रेरित होने और दूसरों को प्रेरित करने का निमित मानते थे। इसीलिए नागार्जुन पर पूर्ववर्ती महाकवियों का प्रभाव खासा दिखता है। कवि कुलगुरु कालिदास से जनकवि नागार्जुन ने साहित्य-बोध का उपहार पाया था। इसके अतिरिक्त ‘बाबा’ के लालित्य-बोध और भाव-बोध के विकास में बड़ा योगदान जयदेव और विद्यापति का भी है। कालिदास, जयदेव और विद्यापति के प्रभूत प्रभाव, लोकचेतना से प्रगतिशील तत्त्व ग्रहण करने के बाद नागार्जुन कबीर से उनका खरापन हासिल करते हैं। लेकिन, आश्र्यजनक ढंग से वे जीवन के सांध्य-काल में इन सबके समुच्चय तुलसीदास से कविता वैतरणी पार करवाने के लिए आशीर्वाद की भी माँग करते हैं। आशीर्वादी पाने की उनकी यह आकांक्षा खारे चिन्तन के भाव-संवेग में पगी है।
निष्कर्षतः यह समीक्ष्य पुस्तक जीवन-पगडंडियों पर ‘बाबा’ की अविराम-यात्रा की सचबयानी है। इसकी काव्यगत अर्थच्छटाएँ सामाजिकीय रचनामिति का रेखांकन-चित्रांकन मात्र नहीं हैं। पाठक इस पुस्तक का सहयात्री बनकर यह जान जाता है कि-‘‘उनकी कविता में आत्मचेतना के क्षण हैं, मनुष्य से पशु-पक्षी तक पहुँचने वाली करुणा है, दलित-पीड़ित जन की चिन्ता है, प्रखर राजनीतिक चेतना है, जन-संघर्षों से सच्ची सहानुभूति है, नयी पीढ़ी से उत्कट आत्मीयता है, तीखा व्यंग्य है, अकंुठ विनोद है; लेकिन कहीं भी न बासीपन है, न दोहराव है। यह पुस्तक अपनी प्रस्तावना का अक्षरांभ ऐसे ही भावोद्दीपन एवं प्रत्यक्षीकरण के साथ करती है। लेकिन, यह पुस्तक पाठक की कितनी है? यह जानने-समझने के लिए तो पाठकीय-मानस की प्रतिक्रिया ही अत्यावश्यक है। तब भी इतना तो तय है कि यह पुस्तक प्रथम दृष्ट्या अपने श्वेत-श्याम आवरण में पाठक को नागार्जुन का ‘कैरिकेचर’ देखने के लिए आमंत्रण देती है और इसके बाद पाठक संवेदना और विचार, प्रस्फुटन और मौन, शून्यता और पूर्णता की जुगलबन्दी के बीच स्फूर्ततः पैठना आरम्भ कर देता है जहाँ शब्द ही व्योम का वितान और, यह शब्दज संसार रचते हैं।
नोट : यह राजीव रंजन प्रसाद की अप्रकाशित 9वीं पुस्तक-समीक्षा है। इसे मुझे लगता है यह कुछ ठीक बन पड़ा है।
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