Friday, March 14, 2014

रजीबा-सूक्ति


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जब लोकतंत्र बनिए की दुकान बन जाता है, तो हमें छोटी-से-छोटी चीजों की भी कीमत चुकानी पड़ती है। ध्यान रहे, यह कीमत जीवन-मूल्य और जीवन-बोध से निर्देशित अथवा अनुप्राणित नहीं होता है।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...