Monday, March 10, 2014

चलचित्र में घूमती छवियों की अंतःदृष्टि और स्त्री-विमर्श

दिनांक : 9 मार्च
समय : 9 बजे सुबह
स्थान : राधाकृष्णन सभागार, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
शोध-पत्र वाचन : ‘चलचित्र में घूमती छवियों की अंतःदृष्टि और स्त्री-विमर्श’
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‘होठों पे ऐसी बात जो दबा के चली आई; खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई’

स्त्रियाँ जब बातों को अपनी होठों तले दबाकर चलती हैं, तभी तक वह पुरुषों की संगिनी होती हैं, देवी, और शक्तिस्वरूपा साक्षात पार्वती, मैया सीता....आदि-आदि। अन्यथा, अगर मुख़ालफत करने की धृष्टता की तो मर्दाना रवैया बदलने में देर नहीं लगता है। दरअसल, हम मर्दो की जाति अपनी पैदाइशी चेतना में ही दोगली होती है। हमारी तुलना में हमारे घरों की स्त्रियाँ अधिक विनम्र, शान्त, शालिन, मर्यादित आचरण करने वाली, पारिवारिक दायित्व एवं जवाबदेहियों को सही-सही पूरे करने में दक्ष/प्रवीण होती हैं।

अपनी इस बतकही के टेम्परामेंट को बदलने के लिए एक और गाना लेता हूँ:

'मैं तो चला आया सारे सिग्नल तोड़-ताड़ के
अपनी दिल्ली वाली गर्लफ्रेण्ड छोड़-छाड़ के'


जरा इमेजिन कीजिए कि यदि यहाँ यही बात कोई लड़की कह रही होती, तो......

'मैं तो चली आई सारे सिग्नल तोड़-ताड़ के
अपना दिल्ली वाला ब्वाॅय-फे्रण्ड छोड़-छाड़ के'


तब ‘खाप’ की गुहार होने लगती....माता-पिता और अभिभावक ‘अपनी बेटियों को बचाओ’ आन्दोलनों में ‘डायरेक्ट’ कूद पड़ते। और ‘देव-डी’ का देवदास तो सुनते ही कल्टी मार लेता...और लड़की चाहकर भी उसके खि़लाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं करा पाती...खैर! कम्बख़्त ये इश्क नहीं आसांन। 

मैंने यहाँ गानों के उदाहरण फिल्मों से लिए हैं। दरअसल, चलचित्र को मैं ‘लाइव यूनिवर्सिटीज’ कहता हूँ। यानी ज़िन्दा विश्वविद्यालय। जो लोग आजकल की फिल्मों की खूब जमकर आलोचना करते हैं; कहानी-कथानक, अभिनय, संवाद, संगीत, गीत आदि को लेकर नाक-भौं सिकुड़ते हैं...उन्हें मेरी एक खास मशविरा है....एक बार उनको कुछ टाॅप क्लास के भारतीय विश्वविद्यालयों का दौरा अवश्य कर लेना चाहिए। मियाँ, हाल-ए-हक़ीकत देख गश खाकर न गिरें, तो फिर कहना। आजकल भारतीय विश्वविद्यालय पाँवपूजियों का डेरा है; अज्ञानी जातिवादियों का मठ है....लम्पट/लालची और पाखण्डधारी प्रगतिशीलों और प्रयोगवादियों का मचान है। खैर! विश्वविद्यालय अपने मूल अर्थों में समाज का स्रष्टा होता है, व्यक्तिगत-मानस का निर्मात्री विश्वविद्यालय और गुरुकुल ही है...और मैं चलचित्र को इन्हीं अर्थ-सन्दर्भों में ‘लाइव यूनिवर्सिटीज’ से कहता हूँ।

बंधुवर, चलचित्र मानव-दशा और मानव-बोध का सच्चा दर्पण है। इस दर्पण में सामूहिक मानस का नैरन्तर्य दिखाई देता है। मानव समूह की असली साझेदारी या कि तादातम्य हमें यहाँ यथार्थ रूप में देखने को मिलते हैं। इसके अतिरिक्त सामाजिक-सांस्कृतिक स्मृतियाँ, आधुनिक, उत्तर आधुनिक देश, काल, वृत्तियों, क्रियाओं, घटनाओं आदि से जुड़ी चीजें सिनेमा में ही जगह पाती हैं जो एक नया अनुभव-संसार अर्थात जीवन की रंगारंग दुनिया बनाती हैं.....चंद घंटो की यह निश्चित समयान्तराल हमें सही मायने में आदमी और औरत होने की तमीज़ सिखलाती है।

लेकिन, अफसोस है कि आधी आबादी का स्त्री-स्वर इस चलचित्र की दुनिया में भी गुमशुदा है, उनका अंतःकरण लापता है, इस खोए हुए स्त्री-व्यक्तित्व के लिए स्त्री-विमर्श की भाषा और शब्दावली में तलाश जारी है....‘संवाद चालू आहे....!’ इसके समानान्तर कुछ और कारगुजारियाँ भी जारी हैं; अगर आप अँधे न हों, तो आप इस अन्धेरे का बाइस्कोप आसानी से देख सकते हैं। हमारे घर-समाज की औरतों के देह/बदन की माँग बाज़ार में किस हद तक और क्योंकर है.....बकौल साहिर लुधियानवी:

'औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया
जब जी चाहा कुचला मसला, जब जी चाहा दुत्कार दिया
मर्दों के लिये हर जुल्म रवाँ, औरत के लिये रोना भी खता
मर्दों के लिये लाखों सेजें, औरत के लिये बस एक चिता
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया....... '


तेज-तर्रार, समझदार और जागरूक जिन स्त्रियों को हमारा मर्दाना समाज ‘चालू’ कहता है; फिल्मों में वैसी औरतों को हम ‘बाजारू’ कहते हैं। यह हक़ीकत जानते सभी हैं; लेकिन इस सचाई को कोई भी स्वीकार नहीं करना चाहता है कि स्त्रियाँ फिल्मों में ठगेपन और धोखेपन का शिकार यदि होती हैं, तो पुरुषों से...मर्दों से। क्योकि यहाँ पुरुषवादी सत्ता का वर्चस्व और एकाधिकार है। वही यह तय करता है कि फिल्मों में स्त्रियाँ क्या पहनेंगी? क्या करेंगी? किस हद तक प्रेमी से फ्लर्ट करेंगी? एक-दूसरे को छूएंगी और किस्स करेंगी, तो एक्सप्रेशन कितने क्लोजअप और एंगल पर ‘टिल-अप/टिल-डाउन’ होगा? यही नहीं, यह भी वे मर्द ही तय करते हैं कि स्त्रियाँ कैमरे के सामने किसी को कैसे जवाब देंगी? भावुकता का उत्पलावन बल क्या होगा? माशाअल्लाह अगर वे मुस्कुराएंगी, तो वह मुसकान कितने इंच की होगी? यह भी मर्दाना-मिज़ाज ही तय करेगा। दरअसल, सिल्वर स्क्रीन पर स्माइल देती ये स्त्रियाँ भीतर से रोती हैं...और हम दम्भी पुरुष बाहरी छवि देख सीटी बजाते हैं, हुड़दंगई, नंगई करते हैं, अश्लील टिप्पणियों के माध्यम से अपनी कुण्ठा का सरेआम इजहार करते हैं: वो भी सुघड़ साउंड और बुफर में:

'बतमीज...दिल बतमीज...दिल माने ना...माने ना..माने ना'

मैं जानता हूँ.....इस घड़ी भारतीय स्त्री विचार-विमर्श के घेरे में है। सब लोग स्त्री-मुद्दे पर बोल-बतिया रहे हैं। सच तो यह भी है कि ज़ाहिराना तौर पर जितनी बातें कही-सुनी जाती है; सब पुरानी और बिल्कुल घिसी-पिटी होती हैं। इस धंधे में शामिल बौ़िद्धकों तथा साहित्यिकों का दोष इसमें नहीं है...क्योंकि इसके सिवा उनके पास कोई काम नहीं है। आज के विद्यार्थी ज़िदगी की जो असली हुनर सीखना चाहते हैं; वह इन्हें खुद ज्ञात नहीं है। इसलिए ऐसे सनातनी कैटिगरी के अध्यापक/प्राध्यापक स्त्री-विमर्श पर गपबाजी करते हैं.....झूठ-मूठ का मंचीय-प्रपंच रचते हैं। कई बार ऐसे लोगों को स्त्रियों की ‘बोल्ड’ छवि से बेहद परेशानी होती है। ऐसे में ये स्त्री शुचिता, शील, सम्मान, प्रतिष्ठा और मर्यादा के प्रश्न को अक्सरहा हवा देते दिखाई देते हैं; जबकि स्त्रियों के लिए यह कोई विशेष मुद्दा नहीं है।

हमें यह देखना होगा कि धर्म, समाज, राजनीति, अर्थजगत, खेल, सिनेमा आदि सभी जगहों पर तथाकथित पुरुषार्थ रीत रहा है। हिन्दी सिनेमा ने भी इस पर काफी ‘होमवर्क’ किया है। 2011 में रिलीज ‘दि डर्टी पिक्चर’ से अपनी बात शुरू करें, तो यह वर्तमान समाज और स्त्री की सामाजिक स्थिति का यथार्थ है। यह आज के सिनेमाई करतब का अपत कतई नहीं है। साफ शब्दों में कहें, तो यह मर्दाना नंगई और कुंठा पर वार है। पूरे पुरुषिया जमात के ऊपर प्रतीकात्मक प्रहार कि-‘जब शराफत का चोला उतरता है, तो सबसे अधिक मजा इन शरीफों को ही आता है।’

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