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वह कामरेड न हो सका
उसे
बोझ ढोने से
फुर्सत नहीं मिली
जो बनाता
मुट्ठियाँ
लगाता नारे
उठाता झंडा
वह कामरेड न हो सका
उसके घर का चूल्हा
दो वक्त
जला नहीं कभी
नियमित
जो जा सके वह
किसी रैली में
सुनने किसी का भाषण
ढोने पार्टी का झंडा
वह कामरेड न हो सका
वह कभी
स्कूल न गया
फिर कैसे पढ़ पाता वह
दास कैपिटल
वह सुनता रहा
मानस की चौपाइयां
कबीर की सखियाँ
वह कामरेड न हो सका
उसे
बचपन से ही
लगता था डर
लाल रंग से
प्राण निकल जाते थे उसके
छीलने पर घुटने
उसे प्रिय था
खेतो की हरियाली
वह कामरेड हो न सका
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अरुण चन्द्र राय जी के ब्लाॅग ‘सरोकार’ से इस बार का साभार!
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