Monday, March 31, 2014

वह कामरेड न हो सका


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वह कामरेड न हो सका

उसे 
बोझ ढोने से 
फुर्सत नहीं मिली 
जो बनाता 
मुट्ठियाँ
लगाता नारे 
उठाता झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

उसके घर का चूल्हा
 दो वक्त 
जला नहीं कभी 
नियमित 
जो जा सके वह 
किसी रैली में 
सुनने किसी का भाषण 
ढोने पार्टी का झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

वह कभी 
स्कूल न गया 
फिर कैसे पढ़ पाता वह 
दास कैपिटल 
वह सुनता रहा 
मानस की चौपाइयां 
कबीर की सखियाँ 
वह कामरेड न हो सका 

उसे 
बचपन से ही 
लगता था डर 
लाल रंग से 
प्राण निकल जाते थे उसके 
छीलने पर घुटने 
उसे प्रिय था 
खेतो की हरियाली 
वह कामरेड  हो न सका
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अरुण चन्द्र राय जी के ब्लाॅग ‘सरोकार’ से इस बार का साभार!

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