Friday, April 24, 2015

मि. पाॅलिटिशियन आपको शर्म आती नहीं या है ही नहीं!!

कसाईबाड़े में किसान
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राजीव रंजन प्रसाद
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पूरे देश में शैतानी ताकतों की राजनीति गर्म है। आप आम हो या खास, नाम में नहीं रखा कुछ। भगवा वाले भगवान के नहीं होते, तो किसान का क्या होंगे। ‘मेक इन इंडिया’ से देश में पेट्रोल और डीजल के दाम घट रहे हैं। ‘मेक इन इंडिया’ से स्मृति ईरानी भारतीय शिक्षा-जगत का वारा-न्यारा कर रही हैं। ‘मेक इन इंडिया’ से सुषमा स्वराज की बिंदिया बड़े भाव के साथ चमक रही है।

फिर भी सौ टके का सवाल है कि भारतीय किसान मर क्यों रहा है? केजरीवाल से पूछें जो हाल ही में विदेशी पत्रिका के नाम के साथ चमके हैं; या फिर माननीय प्रधानमंत्री से जो चाय बेचते हुए गरीब-गुरबा के साथ कंधामिलाई करते हुए राजनीति के शीर्ष पर काबिज हुए; आज अपने खिलाफ बोलने वाले की जुबान बंद कर देने तक की नियत रखते हैं?

मि. पाॅलिटिशियन शहर-दर-शहर और गांव-दर-गांव स्यापा है, लोग सरकारी उपेक्षा और प्रताड़ना की मार झेल रहे हैं; उनकी समस्या पर सुनवाई बंद है; बस चिन्तन जारी है....वह चाहे कांग्रेस हो या भाजपा; करात हो येचुरी; ममता हो या पवार; रमन सिंह हो या नीतिश कुमार....मि. पाॅलिटिशियन, तुम्हारे ‘काॅमन सेंस’ को  हुआ क्या है...किस मुंह से आओगे जनता से जनादेश मांगने? 

एक पुरानी कहावत है-‘भेडि़या आया...भेडि़या आया चिल्लाने पर लोग दौड़े चले आये, तो चरवाहे बच्चे ने कहा कि उसने तो बस कौतुहूल बस ये कारनामा किया था। फिर एक बार सचमुच भेडि़या आया और वह चिल्लाने लगा। इस बार लोगों ने कान नहीं दिया।’

जनता के ‘अच्छे दिन’ और आम-आदमी के ‘अमन-चैन’ लूटने वालों को यह सोचना चाहिए कि इस बार दगा दिया, तो अगली बार जनता आपकी दाग नहीं धोएगी; क्योंकि विज्ञापन में दाग भले अच्छे लगते हों; किन्तु जनता अपने घर-परिवार-समाज को बरबाद करने के एवज में आपके राजनीकि दाग को अच्छा कभी नहीं कहेगी।

और किसान; जब तक वह संगठित नहीं होगा। जब तक वह अपनी ज़मीन को टुकड़ों में बांटकर देखता रहेगा। जबतक वह दूसरे की मौत और मैय्यत पर ख़ालिस टेसुआ बहाता रहेगा....; सरकारी-तंत्र द्वारा जबरिया अपना घर-बार लूटे जाने पर सिर्फ और सिर्फ आश्चर्य करता रहेगा, तो इस यथास्थितिवाद से तब तक कुछ नहीं बदलने वाला। लोगों को एकजुट होना चाहिए, जागरूक और लामबंद भी। उन्हें ग्रह-नक्षत्र और सितारे देखकर अपनी दिनचर्या शुरू करने वाले राजनीतिज्ञों का सर नही, नाम तो अवश्य कलम कर देनी चाहिए! 

अब लड़ाइयां हदबन्दी में नहीं; बल्कि सांविधानिक मर्यादा और लोकतांत्रिक दायरे में आर-पार की लड़ाइयां लड़नी चाहिए....

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...