कल सुबह यह स्टोरी पूरी की, तो दिमाग में कनहर में किसानों पर पुलिसया कार्रवाई की बर्बर घटना थी, मुझे क्या पता था कि दोपहर तक विनाश का नया मंजर आने वाला है। भूकम्प से पूरी दुनिया हिली, तो लोगों का बुरा महसूस हुआ होगा। खैर! अब अच्छे दिन गए तेल लेने...क्यों ग्लेशियर....,
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राजीव रंजन प्रसाद
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राजीव रंजन प्रसाद
हमारा प्रश्न देश के नेता से है, उन टूटपुंजिए नेताओं से नहीं जो नाम आम-आदमी रखते हैं; लेकिन जिनका काम विचारशून्य, असंवेदनशील और दृष्टिबाधित हुआ करती है! हमारा प्रश्न उस समाजवादी युवा कपोत से नहीं है जो लाल-टोपी पहनने को समाजवादी हो जाने का एकमात्र गुण मानता है। जिसके शासनादेश से बर्बर पुलिस सोनभद्र में कनहर मुद्दे पर गोलियां चलाती है और निहत्थे-बेजुबान जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। हमारा प्रश्न न तो शारदा चिटफंड करने वालों से है और न ही व्यापं घोटाला में नाम आने के बाद भी अपनी मर्दानी पर ताव देने वाले मुख्यमंत्रियों से। हमारा प्रश्न दोयम दरजे के नेताओं से नहीं हो सकता; क्योंकि जनता की हैसियत और नाक दुत्तलछन चरित्र वाले राजनीतिज्ञों से कहीं ज्यादा ऊँची है; संस्कारित और मर्यादित भी।
हम सोलह आना लोकतंत्र में विश्वास करते हैं। सांविधानिक अनुशासनों और नियमावलियों का अक्षरशः पालन करते हैं। फिलहाल हमारा सवाल उस नेता से है जो लालकिले से बोलते हुए जनता का दुलारा प्रधानमंत्री-सा भाषिक व्यवहार कर रहा था। जिसके उच्चार में यह गर्वबोध था कि देश की करोड़ों-करोड़ जनता ने उसकी भूमिका को महत्त्वपूर्ण माना है; उस पर अपना पूरा भरोसा जताया है। जिस नेता ने लगभग हकड़ते हुए चुनावों के दौरान यह दावा किया था कि वह भारत मां का सपूत है और वंशवादी नेताओं के गोत्र से उसके जात सर्वथा भिन्न है। जिसने सीमा पर सर कटाते जवानों के लिए कहा था कि हम जीते, तो ऐसा कभी नहीं होगा भाइयो एवं बहनो। जिसने अपने मछुआरों को समुद्री सीमारेखा उल्लंघन के एवज में कैद कर लिए जाने या गोली मार दिए जाने की बात पर कहा था कि ऐसा होना सरकार की अक्षमता और सामथ्र्यहीन होने की निशानी है। जिसने किसानों की सूरत बदल देने के लिए हीक भर ‘गुजरात माॅडल’ देखने का नारा दिया था। जिसने कहा था हमारी पार्टी का मन स्वच्छ है इसलिए वह स्वच्छता अभियान चलाएगी और वह राजनीति की पुरानी रवायत को बदल कर नई बयार/बहार लाने में सफल होगी। जिसने बेरोजगारों को कहा था कि यदि आपको रोजगार न मिले तो अपने मन की बात सीधे प्रधानमंत्री को लिख भेजना; आपकी समस्या का शत-प्रतिशत निदान होगा और आपकी काबिलियत का पूरा सम्मान करते हुए योग्यतानुसार आपको शीघ्रताशीघ्र नौकरी दी जाएगी। और भी बहुत कुछ। बेटी बचाने से लेकर शौचालय बनाने तक। सब वादे दावे के साथ निभाने का संकल्प लिया ही नहीं था; बल्कि जनता से कबूलवाया था-'आई कैन डू इट!’
आप कहेंगे, जो कहना चाहता हूं वह सीधे कहूं। मेरा आपसब से पूछना है कि आखिर सीधी बात क्या होती है-‘यही न कि यदि ज्यादा दिक्कत है, तो मर क्यों नहीं जाते?' भारतीय जनता मर रही है। ‘अच्छे दिनों’ के आस देखने वाले किसान फसरी लगा कर मर रहे हैं, तो कई की ससरी टंगी हुई है। भारतीय मीडिया क्या देख रही और क्या दिखा रही है; पूछिए ही मत। उनका खाना-पीना-सोना-ऐश-मौज सब 'पाॅलिटिक्ल पैकेजिंग' का हिस्सा है। मानो वह ‘लिव इन’ में स्वतन्त्र-उन्मुक्त वास-निवास कर रही हो। सरकारी रकम खाकर बउआती मीडिया त्रासदीजनक घटनाओं का तमाशा बनाती है। राजनीतिज्ञों की भूमिका उसमें उस्ताद और जमूरे सरीखा है जो भारतीय लोकतंत्र में अपनी कमीनगी, दुचित्तापन और अमर्यादित आचरण के लिए जाने जाते हैं। जनसेवक, जनपक्षधर, जन-नुमाइंदा, जननेता आदि शब्द उसके उस तरह की अटैची में बंद है जिसे लेकर प्रायः सरकारी नेता संसद में प्रश्न पूछने जाते हैं; बजट पेश करने के लिए निकलते हैं या फिर किसी अध्यादेश अथवा हुक्मी शासनादेश द्वारा जिन्हें देश का विनाश और सत्यानाश करना होता है।
हम उस देश के बाशिंदे हैं जहां चाय बेचने वाला एक साधारण लड़का जब प्रधानमंत्री बनता है, तो जनता की सूरत बदलने से पहले अपना शक्लोसूरत, हुलिया, हाव-भाव, टोन-लहजा और शब्दार्थ सर्वप्रथम बदलता है। सबसे पहले वह महंगे सूट-बूट में टीप-टाॅप दिखना चाहता है। अपनी ही सरज़मीं को पूरी दुनिया के बाज़ार के खुले स्पेस के लिए प्रचारित करने लगता है। जिस देश के अधिसंख्य लोग अंतिम सांस लेने तक अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा आदि का नाम तक नहीं सुने होते; वहां के लोग, परम्परा, संस्कृति आदि का भर-भर मुंह गुणगान उलीचना कैसे जान जाएंगे, सोचिए जरा! लेकिन भूलिए मत कि इसी ‘मेक इन इंडिया’ में मैक्डोनाल्ड ‘शाकाहारी’ भोजन तैयार करने में जुटा है, तो केएफसी परोसने में। ओएलएक्स आपके लिए बेशकीमती समान सस्ते में उपलब्ध करा रहा है, तो फ्लिपकार्ट ‘होम डिलेवरी’ द्वारा आपको जूते से लेकर पेन-ड्राइव और फ़िल्मी वीसीडी तक तुरत-फुरत में घर-द्वार तक पहुंचा रहा है।
अतः सीधी बात यह कि नरेन्द्र मोदी जो चुनावी हुंकार, गर्जना और शंखनाद में अपना सीना दिखाते फिर रहे थे; आज उन्होंने जनता-जनार्दन की ओर से मुंह फेर लिया है। उनका ध्यान शेयर बाज़ार पर है, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष पर है। नरेन्द्र मोदी विश्व-ताकत का हिस्सा बन चुके हैं और दुनिया उनके चमत्कारी गुणों का लोहा मान चुकी है; यह बात गलाबाज भाजपा जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित कर रही है। जिसे भी उनके ठेकेदार पैसा दे रहे हैं, उनकी जेब गर्म कर रहे हैं; वह उनके पक्ष में, उनकी महानता के बारे में बालने लग रहा है। यहां तक कि ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि के राष्ट्राध्यक्षों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। जबकि यह सबकुछ सरकारी टिटिमा है, शत-प्रतिशत प्रायोजित है। यह ‘आॅन रिकार्ड’ ऐसा ही कहने की नवसाम्राज्यवादी पेशकश है, ताकि भारतीय जनता को उल्लू बनाया जा सके। उनके जल-जंगल-ज़मीन को प्रवासी-विदेशी विकास और स्मार्टी बदलाव के नाम पर हथियाया जा सके। यह भारत की जनता को बताया जा सके कि आपका कल्याण इसी रास्ते है। केन्द्र की वर्तमान सरकार सबको आभिजात्य, पूंजीपति और सर्वशक्तिमान बनाने का ख़्वाब दिखा रही है। यह झूठ, सरासर झूठ है। लूटेरों के साथ गलबहियां कर आप ‘सुरक्षा-बोध’ और ‘सम्पन्नता’ हासिल करने का कितना भी ख़म ठोंक लें; लेकिन उसका परिणाम क्या होगा; सब जानते हैं।
सोनभ्रद के कनहर में गोलिया बरसेंगी और देश चुप। अरविन्द केजरीवाल की रैली में एक किसान को लोग जानबूझकर उकसाएंगे और वह पेड़ से लटक कर अपनी जान दे देगा। ऐसे ही ख़बर-दर-ख़बर किसान पूरे देश में मरता रहेगा और रूटीन ख़बरों में उनकी मौत का जनाजा उठेगा। बच्चे नौनिहाल दिखाए जायेंगे जबकि होंगे बदहाल। देश की जनता को खुशहाल बनाने के लिए सरकारी नीति-नियंता और हुक्मरां अपनी तनख़्वाह और सरकारी सुविधाओं में घनघोर इज़ाफा करेंगे और देसी ज़मीन पर लोग अपनी ऐंठती अतड़ियों संग दाने-दाने के लिए बिलखेंगे, बिलबिलाएंगे; लेकिन जनसुनवाई, निष्पक्ष न्याय और आमजन को जीने लायक साफ-सुथरी माहौल नसीब न होगी। और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी तस्वीर अथवा पहलू बेहद संतोषजनक नहीं होंगे। यानी देश संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थायी सदस्य बनने के गिड़गिड़ाएगा, लेकिल संगठित ताकतें कान नहीं देंगी। संयुक्त राष्ट्र संघ में अपनी भाषा हिन्दी को शामिल करने के लिए साझे बयान पढ़े जाएंगे; लेकिन होएगा-जाएगा कुछ नहीं। इसी तरह भारतीय सम्पदा अधिकार को भारत विदेशियों से आयातीत कर धन्य महसूस करेगा; लेकिन उसे अपनी शिक्षा-प्रणाली में सुधार की बात फूटी न सुहाएगी। वह ज्ञान का उधोगीकरण, वस्तुकरण, विदेशीकरण आदि करने के लिए लालायित होगा; किन्तु अपनी भाषा, दर्शन और ज्ञान-सृजन की परम्परा पर शत-प्रतिशत विश्वास कदापि नहीं करेगा। ऐसे में आमजन के लिए यह बात ही सत्य साबित होगी कि,‘‘ये बारिश बड़े अमीर जैसे लोगों के वास्ते हैं; हमारे-तुम्हारे जैसा गरीब के वास्ते नहीं....हमारे लोगों का क्या होगा, हमारी झोपड़ी का क्या होगा?’’
फिल्म बूटपाॅलिस का यह मार्मिक संवाद आज के किसानों पर आफत के रूप में आन पड़ा है। वह असमय हुए बारिश और तबाह हुए फसल से सदमें में है। किसानों के खुदकुशी का मामला तेजी से बढ़ा है। पूरा देश सकते में है और सरकार का वित्तमंत्री ‘जिएसटी’ की पैरोकारी में उलझा है। विपक्ष बाॅयकाट कर रही है। वामपंथी पुनर्विचार के दबाव डाल रहे हैं। और कुदरती प्रकोप से परेशानहाल लोग गा रहे हैं-‘लपक..झपक..तू मत आ रे विनशवा...’।
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