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राजीव रंजन प्रसाद
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मुझ
जैसे लड़के के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सीखने-जानने-समझने ख़ातिर कर्मस्थली रहा।
घोर जातिवादी कुलपतियों द्वारा बार-बार हिन्दी विभाग की नियुक्ति-प्रक्रिया निरस्त
करने के बावजूद हम अपने इस संस्थान से बेइंतहा प्यार करते हैं। क्योंकि आज हम जो कुछ
हैं, जितनी भी अक़्ल के लायक हैं; काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की देन सर्वाधिक है। आज
जो लोग अंध-राष्ट्रवाद या खि़लाफ-राष्ट्रवाद का कपोत उड़ा रहे हैं; टेलीविज़न स्क्रीन
या विभिन्न माध्यमों पर बीएचयू का पक्ष रख रहे हैं; आलाप-प्रलाप कर रहे हैं, उन्होंने
बीएचयू की गरिमा को कब और कितना बढ़ाया है, मुझे तो अपने 10 वर्षों के रहवास में तनिक
याद नहीं।
काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय यानी बीएचयू का माहौल अराजक और हिंसक नहीं
है। प्रतिरोध और विरोध, सहमति
अथवा असहमति के पर्याप्त ‘स्पेस’
यह
विश्वविद्यालय मुहैया कराता रहा है। घटना जो हुई, उसकी
निंदा जितनी की जाए कम
है। लेकिन संस्थान को बदनाम करने
की साजिश उचित नहीं है। क्योंकि बिना नाथ-पगहा के हम जैसे
जिज्ञासु और सीखने के लिए इच्छुक विद्यार्थियों को आगे बढ़ाने
में इस विश्वविद्यालय की
भूमिका अकथनीय है। तमाम अकादमिक खामियों एवं प्रशासनिक गड़बड़ियों के बावजूद इस
संस्थान का योगदान कम
कर आँकना अपनी मुर्खता का प्रमाण-पत्र
प्रस्तुत करना है। भारत का कौन-सा
विश्वविद्यालय है जहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से लेकर नवाचारी
अनुसंधान तक इससे बेहतर
स्थिति में है। हिन्दीपट्टी के इस विश्वविद्यालय
का मस्तक इसलिए नीचा नहीं हो सकता कि
ये घटनाएँ घटी। यह पूरे देश
में हो रहा है।
दुर्भाग्यवश यहाँ भी घटित हो
गया।
सबसे ख़राब
बात यह हुई कि इस पूरे घटनाक्रमों के दौरान बौद्धिकता अकर्मण्य और किंकर्तव्यविमूढ़
दिखी। एक भी ऐसा सक्षम व्यक्ति नहीं सामने आया जो विद्यार्थियों की ‘जैनुइन’ माँग को
समझकर उस पर समय रहते ठोस निर्णय ले सके। ‘कंफ्लिक्ट
मैनेजमेंट’ और ‘विमेंस स्टडीज’ का पाठ्यक्रम चलाने वाले धराशायी हो गए। मूल्य अनुशीलन
केन्द्र चलाने वाले हवा हो गए। साप्ताहिक गीता-पाठ करने वाले बिला गया। वेदपरायण संस्कृत
श्लोक उवाचने वाले पोगापंथियों के मंत्र की ताकत हेरा गए। घोर कर्मकांडियों के बाबा
विश्वनाथ अंतर्धांन हो गए। अतः जो हुआ, सामने है। मढ़ दी गई सारी तोहमत हमारे बीएचयू
पर। जिस बीएचयू ने हमें अवसर दिया। हम जैसे अनगिनत लोगों को बनाया; ज़बान को आवाज दी;
खड़े होकर और आँख मिलाकर बात करने की चेतना विकसित की; आज उसी विश्वविद्यालय को लेकर
देश भर में हुँआ-हुँआ हो रहा है। उसे विश्वविद्यालय होने या कहलाने पर तोहमत जड़ा जा
रहा है।
तकलीफ है
इस बात की कि बीएचयू को ऐसा दिखाया जा रहा है जैसे इसके डीएनए में ही ख़राबी है। होशियारचंद
आपके पास अपने खूबी के प्रमाण-पत्र क्या है। बीएचयू की डिग्रियाँ न होतीं, तो मैं असिस्टेंट
प्रोफेसर नहीं हो पाता। इसी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जातिवादी विद्यार्थियों
द्वारा थप्पड़ खाने के बावजूद मैं अपने कोर्स में टाॅपर रहा, और उनके सीने पर मूँग दला।
मुझे दुख है कि हम जैसे विद्यार्थियों से बीएचयू छीना जा रहा है। हम दूर-दराज के लड़के-लड़कियाँ
बीएचयू में दाखिला ही न पा पाए, इसकी परोक्ष मुहिम और साजिश रची जा रही है। पिछले कुछ
वर्षों में जिस तरह प्रायोजित नौकरियाँ दी गई हैं, उसमें हम जैसे लगनशील विद्यार्थियों
को इरादतन परे धकेला गया है। वे हमारे साथ अछूत की तरह व्यवहार करना चाहते है, ताकि
हम बीएचयू का इस तरह स्वर्णिम निर्माण न कर ले जाएँ कि किसी वर्ग-विशेष का वर्चस्व
ही ख़त्म हो जाए बीएचयू पर। अतएव, वे चालाकीपूर्वक इस विश्वविद्यालय परिसर को सवर्ण-मंदिर बनाने में जुटे हैं।
क्या
हम नहीं जानते कि इस विश्वविद्यालय
में लड़के या लड़कियों के
लिए कोई एक ड्रेस कोड
नहीं है। हाॅस्टल में लड़कियों के सुरक्षा-व्यवस्था
की स्थिति इतनी चाक-चैबंद है कि माता-पिता या अभिभावक बेफिक्र
रह सकते हैं। हाॅस्टल भी गिनती की
हैं जहाँ मेरिट वाले ही स्थान पाते
हैं। हाॅस्टल न मिलने की
स्थिति में कई मेधावी लड़कियाँ
दाखिला तक नहीं लेती
हैं। लड़कों के हाॅस्टल भी
इतने सुव्यवस्थित और ‘वेल मेंटेन’ हैं कि क्या कहने।
कैंटिन से लेकर नेट-फैसिलिटी तक मौजूद है।
कम पैसों में गरीब विद्यार्थियों को यह सब
मिल पाता है, तो इसे आज
के खतरनाक और जातिवादी समय
में बड़ी उपलब्धि मानेंगे। बीएचयू में खराब लोगों की नियुक्तियाँ, पैसे
लेकर पोस्टिंग, कुलपति तक की नियुक्ति
में धांधली यह सब कांग्रेस
ने शुरू किया और भाजपा जारी
रखे हुए है। लेकिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हमारा ख़राब नहीं है। हम आज जो
हैं, जैसे हैं; इसी की वजह से
हैं।
देश
के कोने-कोने में स्त्रियों पर हिंसक वार-प्रहार हो रहे हैं;
आप इतने ही होशियारचंद है
तो एकजुट कार्रवाई कीजिए। समग्रता में लड़िए। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की तरह
देश की दुर्दशा पर मिलकर रोइए। मान लीजिए, हम कमजोर-ज़बान रहे हमारी तो नहीं सुनी गई। आपकी कुव्वत
है तो निकलवाइए सूचना, तथ्य और आँकड़े कि पिछले कई वर्षों से जारी नियुक्तियों में देश भर में अच्छे
और योग्य लोगों को क्यों किनारा कर दिया गया और उनकी जगह विशेष कृपापात्र-मातहतों की
नियुक्ति क्यों कर दी गई। आरक्षण जैसे
मुद्दों को इसलिए लटकाया
जा रहा है कि यदि
काबिल लोग अध्यापन में आ गए, तो
हमारी ठकुरई और पंडिताई कैसे
चलेगी। बीएचयू सिर्फ एक या दो जातिदारों की रैयत नहीं है; और न ही वे उसके इकलौते मनसबदार। हमारी हकदारी भी सौ फीसदी
है। हम इसमें पढ़ना
चाहते हैं। आगे बढ़ना चाहते हैं। इस तरह की
घटनाएँ जातिवादी धावा है जो बीएचयू
को सवर्णों का गढ़ बनाने
के लिए रचा-बुना जा रहा है।
बचिए, और पीड़िता के
पक्ष में बोलिए न कि एक-दूसरे या किसी के
खि़लाफ।
हर
चीज की मर्यादा और
अनुशासन है। तमीज और तरीका है।
इसके लिए पूरे विश्वविद्यालय की संरचना पर
सवाल उठाना इन घटनाओं का
पक्षधर होना नहीं इसका राजनीतिकरण करना है। यह करने से
बचिए तो शुभ होगा।
अन्यथा हम सबका हश्र
वही होगा जो अपने राजनीतिक
लाभ के लिए एक
सर्वथा अयोग्य और अदूरदर्शी कुलपति
को नियुक्त कर काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय इस घड़ी भुगत
रहा है। सरकार को चाहिए कि यदि वह विश्वविद्यालय
को इज्ज़त बख़्शना चाहती है तो कृपया अपने एजेंटों की विश्वविद्यालयों में भरती बंद करे।
पिछली सरकार सैम पित्रोदा और मोंटेक सिंह अहलुवालिया पर मुग्ध रही। भाई, आपको अपनी पाॅलिटिक्स बताने की जरूरत नहीं है!
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