Monday, July 30, 2018

भाषा : अर्जन-सम्प्रेषण और बाज़ारवाद

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बहुत कुछ लिख चुकने के बाद मन पैतरा मारता है, तो लगता है बस यहीं-‘पूर्णविराम’। पर यह चाहने से होता नहीं है। लिखना जारी रहता है।...
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राजीव रंजन प्रसाद

मातृभाषा को सीखने, समझने, जीने और उस पर यथेष्ट विचार का काम बचपन से ही शुरू हो जाता है। सामाजिक-पारिस्थितिकी के बीच रह रहे बच्चों की हरकतों, प्रदर्शित गतिविधियों, हाव-भाव, क्रिया-प्रतिक्रिया आदि में ये बातें सर्वाधिक देखने को मिलती हैं। भाषा अर्जन-सम्प्रेषण की इस प्रक्रिया में देश, काल, परिवेश, समाज, समुदाय, धर्म, शैक्षणिक स्थिति, सामाजिक स्तरीकरण इत्यादि की भूमिका सिर्फ महत्त्वपूर्ण होती है, बल्कि उसकी प्रकृति स्थूल-सूक्ष्म हुआ करती हैं। किसी नवजात शीशु के भीतर जानने-समझने की जो आन्तरिक प्रेरणाएँ जन्म लेती हैं; वे धीरे-धीरे कुतूहल से ऊपर की चीज हो जाती हैं। इसे ही जिज्ञासा (Curiosity) का नाम दिया गया है जो भाषा अर्जन-सम्प्रेषण मेंओपिनियन लीडर’ (Opinion Leader) की भूमिका निभाती है।
            हमारे मन-चित्त के स्तर पर उमगी यह जिज्ञासा एक मौलिक प्रवृत्ति है जिसका कोई विशिष्ट आधार नहीं है। जब किसी जीव के सामने कोई नवीन या अपरिचित वस्तु आती है तब उसमें स्वभावतया इस वस्तु को जानने या समझने की इच्छा हो जाती है। जिज्ञासा द्वारा जीव परिवेश से परिचित हो जाता है और उसे अनुकूलन करने में सहायता मिलती है।[1] यद्यपि भाषा अर्जन-सम्प्रेषण की प्रक्रिया से गुजरते बच्चों की दशा, स्थिति और उनके आंतरिक मन को समझना सचमुच अबूझ पहेली को हल करना है। कवि टी. एस. इलियट ने अपनी कविताशीशु-वर्णनमें बालमन की हरकतों और भाषा में व्यक्त होने को आतुर अंतर्द्वंद्व तथा अन्तर्विरोध को बड़ी बारीकी के साथ रूपाकार दिया है-‘परम पिता परमेश्वर के हाथों की रचना/सरल आत्मा’/भरा है विश्व जिसके लिए/अनेक प्रकार के शोर और प्रकाश से,/प्रकाश, अंधकार, सूखा या नम; शीतल या गर्म;/घूमता वह मेज और कुर्सी के पायों में,/उठता, गिरता, पाता अनेक चुंबन और खिलौने,/साहसी आगे बढ़ता, कभी चौंकता/कोहनी और घुटने छीलता हुआ/बार-बार चाहता है करना जिज्ञासा शांत,/लेता आनंद/चमकदार, खुशबूदार, क्रिसमस ट्री का/आनंद-हवा में, धूप में और सागर का,/देखता जानता सूर्य प्रकाश में चमकते फ़र्श को/चाँद की तश्तरी में दौड़ते मृग को;/स्वीकारता वास्तविक और काल्पनिक को,/पहचानता हाथ के राजा-राजाओं को,/कूढ़ती हैं क्यों परियाँ और/क्या कहते हैं नौकर।/विकासमान शिशु पर है बहुत भार/दिन-प्रतिदिन दिग्भ्रांत और परेशान/सप्ताह-प्रति-सप्ताह होता और भी दिग्भ्रांत परेशान/ऐसा लगता है कि आज्ञाओं के बीच/ऐसा हो सकता है, नहीं हो सकता है-/इच्छा और नियंत्रण।
बालभाषाविज्ञानी आॅलपोर्ट ने अपने मनोवैज्ञानिक प्रयोग-परीक्षण से पाया है कि,‘‘बालभाषित व्यवहार अनुभव, याचना और आदेश के रूप में होता है जिससे वह दूसरों को अपनी विभिन्न अपेक्षाओं के प्रति ध्यान देने के लिए विवश करना चाहता है, विचार-प्रेषण की इच्छा बाद का विकास है।सामान्यतया इच्छा और नियंत्रण की यह कामना या कहें प्रवृत्ति भाषा का बाना पहनकर बाहर आती हैं। ज़ाहिर बातों से ही यह पता चलता है कि किसके मन में क्या कुछ चल रहा है, या किसके भीतर कैसे-कैसे भाव जन्म ले रहे हैं।जब तक मनुष्य अपने विचारों और भावों को अपने तक सीमित रखता है वह किसी को नहीं छेड़ता। ज्यों ही वह उन्हें व्यक्त कर देता है वह उनसे दूसरों को प्रभावित कर देता है।भाषा अपने प्रकटन में यही तो करती है। वह एक तरफ संभाव्य चेतना से लैस मनोगतिकी की चूलें कसती हैं, तो दूसरी तरफ भाषा विशेष की विभिन्न अर्थच्छटाओं का साधारणीकरण भी करती जाती हैं। मातृभाषा इन्हीं अर्थ-सन्दर्भों में एक सामाजिक-सांस्कृतिक उपलब्धि है जिनके व्यक्ति-समाज केन्द्रित सह-सम्बन्ध खंगालने के बहुतेरे प्रयास हुए हैं। भाषाविज्ञानियों ने यह माना है कि भाषा कोई जड़ या जोड़ी गई चीज नहीं है; वह हमारी वागेन्द्रियों की अतल गहराइयों से निःसृत है। वह अत्यन्त सजीव है और बेहद भाव-सम्पन्न। भाषा द्वारा प्रत्यक्ष की जाने वाली चीजें प्रतीकात्मक होती हैं, लेकिन उनमें गूढ़ अर्थ निहित रहता है। भारतीय दर्शन मेंमनकी शक्ति को अपरिमित माना गया है। माना तो यह भी गया है कि अभिव्यक्त तथा अभिव्यंजित होने से पूर्व अंदरूनी धरातल पर भीतरी संवेगों-संवेदनों कारिहर्सलया कह लेंकैटवाकहोता रहता है; इसे मनोभाषाविज्ञानियों नेआन्तरिक संभाषण’ (Interal Speech) कहा है। मन के इसी स्तर पर चिंतन का काम भी होता है जिससे व्यक्तित्व का स्थायी स्वरूप बनता है और इसी से किसी व्यक्ति के चरित्र का निर्धारण होता है। दरअसल, सोचना (Thinking) मनुष्य का उच्चतर गुण है। सोचने का कार्य यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता, परन्तु यह मनुष्य को असीमित आनन्द देता है। यह अनुभवसिद्ध तथ्य है कि चिन्तन की गहराई और विस्तार के बाद अर्थ बदल जाते हैं, किसी वस्तु के प्रति हमारे दृष्टिकोण में भी अन्तर जाता है। यही नहीं, जिस तरह आन्तरिक संभाषण के दौरान निर्मित भाषिक-प्रत्ययअंतःसुखायहोते हैं; वैसे ही लिखित रूप में लिपिबद्ध होने के बाद रचयिता के लिए वेस्वान्तःसुखायबन जाते हैं और, देखना होगा कि इन सबका केन्द्रक मस्तिष्क है। यानी मस्तिष्क हमारे भीतरी जीवन का ब्रह्माण्ड है। यह भाषा प्रयोगकर्ता का भीतरी लोक है जिसमें क्षण-प्रतिक्षण लौकिक-परालौकिक चमात्कार घटित होते हैं। अगर ये प्रकट हो लिए, तो यह हमारे व्यक्तित्व, व्यवहार, चिन्तन, दृष्टि, विचार इत्यादि का हिस्सा या अंग मान लिए जाते हैं; अन्यथा यह एक रहस्य की भाँति हमारे चेतन-अवचेतन में सुषुप्त दबे-पड़े रहते हैं। डाॅ. श्याम परमार ने लोक माध्यमों के वैशिष्ट्य को इस रूप में भी उजागर किया है कि शाश्वत कलाएँ सिर्फ कैनवासों, दीवारों अथवा शिलाओं पर ही उकेरी हुई नहीं होती हैं; वे हमारी स्मृतियों में भी ज़िन्दा रहती हैं। वे हमारी निजी स्मृतियों को सामूहिक और शाश्वत बनाती हैं। इसीलिए उनका कोई व्याकरण अथवा साहित्य नहीं होता। वे मौखिक या क्रियात्मक स्रोतों पर निर्भर होते हैं तथा नैतिक और संवेदनात्मक (संवेदनापरक) आवश्यकताओं की शृंखला तैयार करते हैं।अस्तु, यादृच्छिक ध्वनि-संकेतों के माध्यम से प्रतीक-व्यवस्था का हिस्सा बनने वाली हर भाषा में कई प्रेरक (Motives), प्रवृत्तियाँ (Propensities) एवं आवश्यकताएँ (Needs) सहभागी-सहयोगी होती हैं। यथा: शारीरिक (Physiological), मनोवैज्ञानिक (Psychological), आन्तरिक (Innate), अर्जित (Acquired), वैयक्तिक (Personal), सामाजिक (Social) इत्यादि।
इन सब प्रत्यक्ष-परोक्ष मानवीय खूबियों के साथ यदि हम पारम्परिक माध्यमों पर दृष्टि डालें, तो ज्ञात होता है कि हमारे पीछे कई शताब्दियाँ खड़ी हैं जिनमें अवाक् मानव से लेकर उसकी भाषा के विकास, संकेतों के उद्भव, लेखन, चित्रण और अन्य उपायों द्वारा संदेश के आदान-प्रदान का स्मरण होता है जबकि वर्तमान शताब्दी में संचार की नित्य नवीन क्रान्ति की संभावना बरकरार है।[2] विदुषी लेखिका कृष्णा सोबती सही लक्ष्य करती हैं कि, “आज हमारे जीवन में, भारतीय सोच में जो अदल-बदल और फेरबदल, परिवर्तन हो रहे हैं या हो चुके हैं उन्हें हमारा साहित्य अंकित करता है। इन्हीं परिवर्तनों का बाहरी हिस्सा हमारे रोजमर्रा के क्रियाकलाप में परिभाषित होता है। यहीं इसी प्रक्रिया में जीवन, राजनीति, सत्ता और तंत्र के रूप् में इसे अपने में सोखता चला जाता है। परिवर्तन जब भी होते हैं अचानक नहीं होते। वे इतनी ख़ामोंशी से भी नहीं होते कि उनके बदलाव, टकराव आप सतह पर और सतह के नीचे महसूस कर सकें। सच तो यह है कि परिवर्तन लगातार होते चले जाते हैं और अपने बदलावों के सन्दर्भों में विपरीत दिशाओं से लोकमानस की कसौटी पर खरे होकर ही टिकते चले जाते हैं। इन्हीं के द्वारा, इनके सरोकारों में क्षोभ, हलचलें, सामाजिक-राजनीतिक टकराहटें जुड़ने-भिड़ने की स्थितियाँ; समय से संवाद करती रहती हैं और साहित्य कला और विचार में रेखांकित होती रहती हैं।[3]
संचार आधारित भाषा के क्षेत्र में हाल के दिनों में हुए क्रांतिकारी परिवर्तनों पर विचार करें, तो यह प्रणाली बहुरूपीय है और कई मायनों में बहुआयामी भी। वाणी के माध्यम से बोली जाने वाली भाषा अपनी वास्तविक एवं मूल संरचना में जटिल तंतुओं से बनी होती है। पारस्परिक अंतःक्रिया के तहत जब भी वक्ता और श्रोता के बीच अर्थग्रहण की साझी क्रिया सम्पन्न होती है, तो यह अर्थग्रहण आपसदारी की अंतःक्रिया में शामिल वक्ता और श्रोता के सम्प्रेषण-क्षमता के कारण अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि एक ही भाषा बोलने वाले व्यक्तियों की भाषा एकसम नहीं होती है। उनमें यह भिन्नता सम्प्रेषण-क्षमता के कारण भी देखने को मिलती है। इसीलिए हर एक आदमी की भाषा जो अपनी विशेष पहचान लिए हुए प्रकट होती है; ‘व्यक्ति-भाषा (Idolect) कहलाती है। आधुनिक मनोभाषाविज्ञानियों के अनुसार, “यदि हम दो व्यक्ति की समान भाषा में विभिन्नता खोजने का प्रयास करें, तो हमें मुख्य कारक जो दिखलाई देंगे, वे हैं-शब्द, सन्दर्भ, परिस्थिति, वक्ता और श्रोता के हाव-भाव, शारीरिक गति, अंग-संचालन, वाक्-प्रत्यक्षीकरण इत्यादि। यहाँ सम्प्रेषण की प्रकृति को भी समझना आवश्यक है। सम्प्रेषण के दौरान हमारा सबसे अधिक बल इस पर होता है कि शब्द किस प्रकार से अभिप्राय को संकेतित करते हैं; उनका कूटीकरण (कोडीकरण) किस प्रकार किया जाता है तथा वे कूट (कोड) सम्बन्धित पक्ष पर क्या-क्या प्रभाव डालते हैं तथा किस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त होती है आदि मिलकर सम्प्रेषण प्रक्रिया के अंग बनते हैं।
इन्हीं कारणों से प्रत्येक भाषा मानवीय भावों एवं उनमें निहित नैतिक मूल्यों की सर्वश्रेष्ठ प्रतिकृति मानी जाती है। सिर्फ यही नहीं उनको विचारों का संवाहक भी कहा गया है। भाषाविज्ञानियों, मनोविज्ञानियों, मनोभाषाविज्ञानियों ने भाषा के जनमाध्यम स्वरूप एवं संभावनाओं को लेकर बेहद महत्त्वपूर्ण काम किए हैं। बेल, एलेन और स्कैनवेल का काम विशेष उल्लेखनीय है। एलेन के अनुसार, ‘‘जनसंचार माध्यम की प्रस्तुति कुछ लोगों के लिए होकर एक बड़े जनसमूह के लिए तैयार होती है जिनमें से सभी दर्शकों के बारे में हमें ज्यादा ठीक-ठीक अभिज्ञान नहीं होता है। तब भी ऐसे अनाम किन्तु व्यापक संख्या में उपलब्ध दर्शकों के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करना टेढ़ी खीर है। इन सब के बावजूद भाषा सम्बन्धी तैयारी और सामग्री उत्पादित करने को हम बाध्य होते हैं।इस दिशा में बेल द्वारा किए गए प्रयास महत्त्वपूर्ण हैं; उसने दिखाया कि एक मीडिया संचारक अपने दर्शकों के विचारों के साथ तादातम्य स्थापित करता है और उनसे यह जानना चाहता है कि वह आखिर चाहते क्या हैं? इस सिलसिले में स्कैनवेल की भी तारीफ़ करनी होगी जिसने यह दिखाने का प्रयास किया कि, ‘‘किसी भी कार्यक्रम की सफलता का निर्णय दर्शकों से प्रस्तोता/संचारक द्वारा बनाए गए सम्बन्ध पर आधारित है। रेडियो और टेलीविज़न की सारी कवायद जनता को साथ लेकर जनता को शामिल कर आपसी संवाद स्थापित करना है।इन जगहों पर भाषा की भूमिका दोहरी-तिहरी हो जाती है। कारण कि, “सूचना ही अभीष्ट नहीं है, इसका विश्लेषण भी आवश्यक है। हद से ज्यादा वस्तुनिष्ठता ज्ञान को सूचना मात्र में बदल देती है, जबकि सूचनाओं पर तार्किक विचार की जरूरत भी होती है।[4]
यह विवेक इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि तकनीकी-प्रौद्योगिकी की गतिकी के अनुरूप या प्रतिक्रिया में संचार की गति, तीव्रता और अनुक्रिया में अनपेक्षित-अप्रत्याशित बदलाव दृष्टिगोचर होता है। जनमाध्यमों के व्यवहार, प्रयोग और प्रयोजन को देखें, तो (आरोपित-प्रक्षेपित) भाषा की भूमिका समझ में जाती है। अर्थात् आपसदारी की बातचीत, संवाद अथवा अंतःक्रिया में सिर्फ संदेशों का आदान-प्रदान नहीं होता है, अपितु इन दिनों जनसंचार-माध्यम बड़े पैमाने पर लक्षित जनसमूह को प्रभावित, निर्देशित तथा नियंत्रित करने का कार्य कर रहे हैं। वह इरादतन चीजों को बदलते हैं और इस बदलाव की आड़ में वे कई बार गैर-जरूरी चीजों को भी अपने उपयोगकर्ता पर थोपते हैं। चूँकि जनमाध्यम में प्रयुक्त भाषा सामान्य होकर विशेष प्रकृति की हुआ करती है और विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए उनका एक लक्षित-समूह पूर्व-निर्धारित होता है; इसलिए वे चालाकीपूर्वक अपनेहिडेन एजेण्डेको आगे बढ़ाती हैं। यथा : भाषिक वैशिष्ट्य, शाब्दिक गुण, भाषण शैलियाँ; सामाजिक रूढ़ियों, प्रथाओं या मान्यताओं  का भाषायी प्रभाव; भाषा की आन्तरिक गूँजें, विज्ञापन, विपणन, राजनीतिक या मीडियावी प्रभाव इत्यादि। देखना होगा कि इन दिनों भाषा औपनिवेशिक मूल्यों और विदेशी अंकुशों की शिकार है। वह नवसाम्राज्यवादी दबाव-समूह यानी काॅरपोरेटी शक्तियों के चंगुल में है। फलतः आज मीडिया आभासी मुद्दे उठाती है, बेवजह की घटनाओं पर लम्बा कवरेज देती है। सोशल मीडिया का हाल के वर्षों में वैकल्पिक मोर्चे के रूप में विकास अवश्य हुआ है। सार्थक हस्तक्षेप और जरूरी प्रतिरोध भी इस माध्यम से देखने को मिले हैं। खुद हिंदी का लोकवृत्त और लेखकीय जनाधार मजबूत करने में इसन्यू मीडियाकी भूमिका अप्रत्याशित रही है। लेकिन, सच तो यह भी है कि सोशल मीडिया बाज़ारवादी ताकतों की गिरफ़्त में है। वे हमारे सोच एवं इरादों के पण्यीकरण या कि उन्हें जिंस अथवा कमोडिटी में बदल देने ख़ातिर पूर्णतया मुक्त है। लिहाजतन, सोशल मीडिया के दखल और प्रभाव ने आमजन के दिलोदिमाग को विकृत-विरूपित करने की पुरजोर चेष्टा की है। विशेषकर पाॅलिसभाषा ने बेहद ही खतरनाक तरीके से अफवाह, प्रवाद, संशय, भ्रम, अन्तर्विरोध, विरोधभाषा इत्यादि को गढ़ने और उसे फैलाने का काम किया है। यह सब वैश्वीकरण के जिन सिद्धान्तों द्वारा संचालित है, उसे वृद्ध-पूँजीवाद (Late Capitalism) कहना काफी होगा। आज हम अपनी भाषा को लेकर जिस कदर लापरवाह या बेपरवाह हो गए हैं; उसमें अब हमें इस बात का अहसास ही नहीं है कि, ‘‘वैश्वीकरण की आँधी में समूचे विश्व की जीवनशैली में एक व्यापक परिवर्तन आया है। नवीनता के अनुगमन के साथ पारम्परिकता का साथ छूटता जा रहा है। आज का व्यक्ति लोकशिक्षण की बात भूल चुका है जबकि पारम्परिक माध्यम लोकशिक्षण के विविध आयाम लिए उपस्थित होते हैं।भारतीय संचार-शास्त्र में घुसपैठ किए इन नवाधुनिक विधानों अथवा उपक्रमों का एकमात्र ध्येय है-‘वास्तविकता से पलायन तथा कृत्रिमता का आलिंगन जबकि, ‘‘व्यापक परिर्वन सामान्य-जन से सामाजिक आस्था का आधार छीन लेते हैं और व्यवहार के क्षेत्र में एक अराजक शून्य उत्पन्न कर देते हैं। विकास की विफलताएँ और आधुनिकीकरण की विकृतियाँ परम्परा की ओर वापसी की प्रेरणाएँ बनती हैं।"
यहाँ भाषा पर विशेष बल इन्हीं कारणों से है कि‘‘भाषा अनुभव की सूचना मात्र देने का कार्य नहीं करती, अपितु उस भाषा को बोलने वाले लोगों के अनुभवों को परिभाषित करने का अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य भी करती है, अपितु उन्हें रूप भी प्रदान करती है।"[5] अतएव, यह जरूरी है कि हम भाषिक राजनीति की इन साज़िशों को समझें; शक्ति-आधिपत्य (Power Hegemony) की चालाकियों के प्रति सावधानी बरतें। दरअसल, भाषा को लेकर इन दिनों एक चलताऊ किस्म का रवैया अपनाया जा रहा है। आज उन्हीं बातों को अधिक प्रश्रय दिया जा रहा है जो चलन में हैं; कि उन चीजों को जिनका होना हमारे भारतीय होने से ताल्लुक रखता है। भाषा सम्बन्धी भारतीय दर्शन और चिन्तन-कर्म की बात भी करें, तो आधुनिक समय में भारतीय भाषाओं कोडंपकरने की साजिश बर्बर एवं क्रूर तरीके से जारी है। वरिष्ठ सम्पादक शेखर गुप्ता की चिंता भी गौरतलब है-‘‘लगातार बँटते ध्यान और 140 अक्षरों तक सिमट गए भव्य से भव्य विचारों के इस दौर में अब शोध-प्रबन्ध भी इस आधार पर तय किए जा रहे हैं कि क्या कुछ चलन में है।यहट्रेंडसर्वथा ग़लत है और यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी मातृभाषा को नज़रअंदाज करते हुए हम चाहे दूसरी भाषा में खुद को कितना भीजीनियससाबित करें, लेकिन एक भारतीय के रूप में हम अपनी भाषायी गरिमा और राष्ट्रीय आत्मसम्मान खो देते हैं। आजकल यह खुले तौर पर स्वीकार किया जाने लगा है कि भारतीय शासन व्यवस्था में राजनीतिक गतिरोध तथा दिशाहीनता के कारण नागरिकों में जनतंत्र के प्रति अब कोई निष्ठा नहीं बची है। इस सम्बन्ध में कुछ समय पूर्व भारत के उच्चतम न्यायपीठ द्वारा की गयी कटु टिप्पणी द्रष्टव्य है-‘भारतीय मनुष्य के जीवन का कोई सम्मान नहीं हैजबकि मन और विचार में जीने वाले मनुष्य के लिए आत्मसम्मान सबसे महत्त्वपूर्ण संवेग या संवेदनवृत्ति है। चर्चित मनोविज्ञानी मैक्डूगल ने यह साफतौर पर माना है कि आत्माभिमान (Self Assertion) या स्वाभिमान का संवेग मनुष्य के चरित्र का मूल आधार होता है। 
            भारतीय भाषाओं की अनदेखी और सरकारी शासकीय-व्यवस्था की उपेक्षा ने हिन्दी ही नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के साथ विश्वासघात किया है। वह भी तब जब भारत की बहुसंख्यक आबादी में से केवल 8 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी जानते हैं और लगभग 90 प्रतिशत लोग संचार के लिए भारतीय भाषाओं पर निर्भर हैं। लेकिन, यहाँ हम इस तथ्य को नहीं भूल सकते हैं कि-‘‘सत्ता का चरित्र अलग होता है। वह अपने को विशिष्ट बनाने के लिए अलग औजार बनाती है। भाषा एक ऐसा औजार है जो उसे सामान्य से विशिष्ट बनाने में बहुत बड़ा योगदान देती है।[6] यह बात सुप्रसिद्ध चिंतक गिरिराज किशोर ने यूँ ही नहीं कह दी होगी। वास्तव में, वे इस बात से पूरी तरह वाक़िफ थे कि, ‘‘हिन्दी को सम्पर्क भाषा स्वीकार करके हमने भारतीय भाषाओं की गरिमा को कम किया। राजभाषा बनाकर उसके प्रचार-प्रसार के लिए धन, शायद तीन सौ करोड़ रुप्ए का आवंटन, भाषाओं के बीच वैमनस्य का कारण बनना स्वाभाविक था। उसी ने गैर-हिन्दी भाषाओं को हिन्दी के ख़िलाफ एकजुट करने में मदद की। हिन्दी प्रदेश का कुलीन कहा जाने वाला अंग्रेजी सत्तापोषित वर्ग भी अपनी अलग पहचान बनाये रखने की ग़रज से अंग्रेजी को सम्पर्क भाषा मानने वालों में शामिल हो गया।[7] लेखक मनस्वी होता है; अपनी निज चेतना में अंतःदर्शी तथा दूरदर्शी भी। गिरिराज किशोर भारतीय भाषाओं की मौजूदा स्थिति को देखते हुए पूरी तरह निराश-हताश नहीं हैं। उन्हें भारतीय लोक-दर्शन और भाषा की अंदरुनी व्याप्ति का पूरा भान है। इसीलिए वह कहते हैं वैसा एक दिन होना तय बात है-‘‘आज जो लोग हिन्दी के समर्थक हैं वे हाशिए पर हैं। लेकिन कब तक? जब भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी का दबाव इतना बढ़ जाएगा कि उनकी पहचान खतरे में पड़ जाएगी तो अन्य भारतीय भाषाएँ स्वतः हिन्दी के साथ मिलकर अपनी पहचान की लड़ाई लड़ेंगी।[8]
            भारतीय जीवन-दर्शन एवं मूल्य-धर्म से सम्पृक्त पहचान की यह मुहिम शुरू होने पाये, इसके लिए नाना प्रयास जारी हैं। आधुनिक बाज़ार की आदमखोर संस्कृति ने लोगों को उनकी प्रगतिशील परम्परा और संस्कृति से अलगा दिया है। अब लोग अपने हित-लाभ को लेकर अधिक सजग, सावधान और सचेत हैं। उन्हें सरकारी भाषा में जो पाठ पढ़ा दिया जा रहा है, वे रट्टू तोता की भाँति उसी को सुने-बोले-माने जा रहे हैं। आधुनिकता का जो नवसंस्करण इन दिनों दिखाई दे रहा है उनमें सचेतन मूल्यों का ही कोई अता-पता नहीं है। अर्थात् आज की आधुनिकता प्रश्नवाचकता, खुलापन, बहुलता, ज्ञानोत्पादन, लोकतांत्रिकता, निरन्तरता, व्यापकता आदि से कोसों दूर हैं। उपभोक्तावादी संस्करण ने भारतीय जन-चेतना तथा जन-पक्षधरता एवं ख़ासकर भाषा को पूरी तरह विकृत तथा विरूपित कर रखा है। बाज़ार-पूँजीकरण के फेर में फँसी जनतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार तक ख़तरनाक कुचक्र रचती है। इस सम्बन्ध में कवि नवारुण भट्टाचार्य की मुख्य चिंता यही थी, ‘‘मनुष्य को जागरूक होने दिया जाए, तो सरकार के अपने लाभ हैं। आप देखें इसमें सरकार टेलीविज़न का भयानक ढंग से अपने पक्ष में इस्तेमाल कर रही है। एक आम-आदमी शाम को थक कर घर पहुँचकर टेलीविज़न खोलता है। वह नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है। टेलीविज़न को खोलना ड्रग लेना है। यह दूसरे ड्रग्स हेरोइन, चरस और अफीम से भी ज्यादा ख़तरनाक है और इसका चरित्र दोहरा भी है। वह एक तरफ़ इन चीजों को बढ़ावा दे रहा है। जैसे-बाज़ारीकरण, अपसंस्कृति आदि, तो दूसरी तरफ दबे मुँह आलोचना भी करेगा। और मजे की बात है कि इस आलोचना के पीछे भी उसकी बाज़ारू मानसिकता है।[9]दरअसल,व्यवस्था की इस प्रवृत्ति को व्यापक संदर्भों में देखने-समझने की जरूरत है। सूचनाओं के विश्लेषण की क्षमता का विकास, उन पर तर्क कर सकने की क्षमता का विकास अंततः व्यवस्था को ही चुनौती देगा। किशोर होते बच्चे और युवा होते किशोर अगर तर्क करने लगें, विश्लेषण करने लगें तो सूचनाओं में अंतर्निहित वे तथ्य भी उघड़ सकते हैं जो व्यवस्था नहीं चाहती। तर्क करता युवा, विश्लेषण करता युवा व्यवस्था, यानी कि सिस्टम के लिये खतरा हो सकता है। हद से ज्यादा वस्तुनिष्ठता इन खतरों को कम करती है।[10]
            अतः भूमण्डलीकृत बाज़ार से घिरे भारतीय जनमानस को अपनी भाषा पर किए जा रहे बहुतरफा हमले से बचाव करना होगा तथा वर्चस्वादी गिरफ़्त से बाहर निकलना होगा। इस बदलाव का सारा दारोमदार नई पीढ़ी पर है। उसे ही स्वतन्त्रचेता भारतीय मानस की भाषाओं का आदर करना होगा, उनकी प्रतिष्ठा को पुनर्बहाल करना होगा। कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की आशाओं के अनुरूप पूरे विश्व में भारतीय भाषाओं का मान बढे़, इसके लिए आवश्यक है कि, हम उनका कहा सुने, मानें और उनके निष्कर्ष को पाथेय बनायें- ‘‘मैंने बहुत दुनिया देखी है। ऐसी भाषाएँ हैं जो हमारी भाषाओं से कहीं कमजोर हैं। परन्तु उनके बोलने वाले अंग्रेजी विश्वविद्यालय नहीं चलाते। हमारे ही देश में ये लोग परमुखापेक्षी हैं।...देशी भाषाओं को कच्चे युवकों की जरूरत है। लग पड़ोगे तो सब हो जाएगा। हिन्दी के माध्यम से तुम्हें ऊँचे से ऊँचे विचारों को प्रकट करने का प्रयत्न करना होगा। क्यों नहीं होगा, मैं कहता हूँ-जरूर होगा।"
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[1]  शर्मा, (डाॅ.) रामनाथ; केदारनाथ रामनाथ प्रकाशन; मेरठ; पृ. 71
[2] तद्भव; अप्रैल, 2013
[3] सोबती, कृष्णा; ‘भारतीय संस्कृति और मूल्य’; तद्भव; मई, 2017; पृ.2
[4] https://educationmirror.org/2018/05/27/cbse-result-2018-analysis-from-new-prespective/
[5] व्होर्फ, ली. बैंजामिन; (अनु. डाॅ. रामनिवास शर्मा) ‘भाषा, विचार और वास्तविकता’; हरियाणा साहित्य अकादमी; चंडीगढ़ (भूमिका, पृ. x)
[6] किशोर, गिरिराज; जनसत्ता; 22 मार्च, 2013; पृ. 6
[7] किशोर, गिरिराज; जनसत्ता; 22 मार्च, 2013; पृ. 6
[8] तदेव
[9] प्रगतिशील वसुधा; अंक: 92-93
[10] https://educationmirror.org/2018/05/27/cbse-result-2018-analysis-from-new-prespective/

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