Saturday, October 6, 2018

‘जा सकता, तो जरूर जाता’ पर काश! और लिखा जाता


@  राजीव रंजन प्रसाद

कविता-संग्रह     : ‘जा सकता, तो ज़रूर जाता’
लेखक                   : दिनकर कुमार
प्रकाशन               : बोधि प्रकाशन; सी-46; सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन;
                  नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-302006
प्रथम संस्करण   : 2018
मूल्य                       : 120 रुपए
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पेशे से पत्रकार, कवि एवं लेखक दिनकर कुमार पूर्वोत्तर का चर्चित नाम है। वह इन दिनों गुवाहाटी में रहते हैं। उनका लेखकीय संसार कितना समृद्ध है इसका अंदाजा इस बात से ही हो जाता है कि यह उनका नवाँ कविता संग्रह है। इसके अतिरिक्त उन्होंने दो उपन्यास व जीवनियाँ लिखी है और असमिया भाषा के तकरीबन पचपन पुस्तकों का अनुवाद किया है। यूँ तो हरेक ‘जैनुइन’ कवि के लहू का रंग हम-सबकी तरह लाल होता है; किन्तु उसका पसीना लाल होता है, यह सुनकर सहज विश्वास नहीं होगा। यह यक़ीन कर पाना प्रायः मुश्किल होता है कि ज़मीन की आँच में पकता कवि बुरी तरह घवाहिल व जख़्मी होता है। जबकि यही सच है। वह हजारों बार टूटता और तोड़ा जाता है। जनज्वार की भाषा में बोलता-लिखता कवि अधिसंख्य बार खुद ही अपना मरहम-पट्टी करता चलता है-‘चरैवति-चरैवति’ का उलगुलान करते हुए।
‘जा सकता, तो ज़रूर जाता’ कविता-संग्रह में दिनकर कुमार की कविताएँ पढ़ते हुए तो यही लगता है जब वे कहते हैं-‘अपनी शामों को गिरवी रखकर/मैं खरीदता रहा रोटी/एक कोमल सपने को सीने में सहेजता रहा/साल-दर-साल/एक दिन मेरी पसंद की सुबह ज़रूर आएगी’। आज की भागदौड़ वाली और आपाधापी भरी इस दुनिया में बेहतर की टोह-तलाश दुनियादारी निभाते सारे लोग किया-करते हैं। पर जितना सहना एक कवि-हृदय को होता है, वह बात ही कुछ और है। दिनकर कुमार इसी कविता में आगे कहते हैं-‘नहीं चाहते हुए भी मैं शीश झुकाता रहा/अन्याय तंत्र की चौखट पर/काजल की कोठरी में पसीने बहाता रहा/मुद्रित अक्षरों के साथ कुछ लोग/जब खेल रहे थे झूठ और सच का खेल/मैं अंदर ही अंदर/किसी घायल परिंदे की तरह/छटपटाता रहा’। अपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं को तिलाजंलि देते हुए जनराग गा रहा कवि इस सचाई से पूरी तरह वाकिफ़ होता है कि-‘अगर शामों को गिरवी नहीं रखा होता/तो मैं भी शहर के नए-पुराने कवियों के साथ/पान-बाज़ार के काफी हाउस में ठहाके लगा रहा होता/रवीन्द्र भवन में डूबकर कोई नाटक देख रहा होता/शुक्रेश्वर घाट पर बैठकर सूर्यास्त का मंजर देख रहा होता’। पर नियति ने जैसा उसे गढ़ा है या कि उसके व्यक्तित्व को बना दिया है; उसके लिए आराम बिल्कुल हराम है।
दिनकर कुमार का दर्द इंसानी तौर पर उस वक़्त और गाढ़ा हो जाता है, जब वे कहते हैं-‘मैं कल्पना करता रहा कि मेरी धूसर खिड़की के बाहर/किस तरह नज़र आता होगा सूर्यास्त का दृश्य/किस तरह ब्रह्मपुत्र की धारा लाल हो गई होगी/किस तरह चिड़ियों का झुंड बसेरों की तरफ/लौट रहा होगा/किस तरह मेरी गैर-हाज़िरी में मेरे बच्चे/बड़े हो रहे होंगेदुःखद यह कि अपने ही बनाये यातना-शिविर में कवि अन्धेरे से घिरा है। कवि को निपट अकेले में विषाद भरे अन्धेरे का गीत गाना पसंद है। उसका आत्मकथन पीड़ादायक है। उसकी प्रतिरोधी स्वीकारोक्ति में चेतना की कराह है-‘अगर मैं तुम्हारी तालियों का तलबगार होता/तो तुम्हारे सामने अपना दामन फैलाता/विदूषक की तरह तुम्हें गुदगुदाने की कोशिश करता/अपनी ही पीठ पर चाबुक बरसाकर/तुम्हें दिल बहलाने का अवसर देता/ अगर मैं तुम्हारी तालियों का तलबगार होता।‘
यह कविता संग्रह इसी वर्ष छपकर आई है। बोधि प्रकाशन ने पेपरबैक में इसे प्रतीकात्मक आवरण संग प्रकाशित किया है। दाम पाठकों के जेब पर बोझ की तरह नहीं पड़ने वाला, क्योंकि इसकी कीमत अधिक नहीं है। यह और बात है कि दाम का बहाना बनाकर कुछ भी नहीं पढ़ने के आदि लोग इस काव्य-संग्रह को भी न पढ़े या कि इसकी चर्चा करना जरूरी न समझें। हाँ, इतना अवश्य है कि पाठक जब पढ़ेंगे, तो उनकी अनुभूतियाँ द्रोह कर उठेंगी। कवि का कहा उनके अंतर्मन को झिंझोड़ता मालूम देगा। हर एक कविता में सच का उठान जबर्दस्त है, तो कहनकला में अभिव्यंजना की साहित्यिक आडम्बर कम अभिधात्मक प्रस्तुति अधिक मालूम देती है। इस काव्य-संग्रह की ‘टाइटल’ कविता में यह बात सोलह आना सच मालूम पड़ती है-‘जा सकता तो ज़रूर जाता/खुद ही देखकर आ जाता/सूखे हुए पत्तों पर लड़खड़ाकर चल रहे अतीत को/उत्सव के शोर-शराबे के बीच भी ठंडे पड़े चूल्हों को/सुराही उठाकर किसी प्यासे होंठ को तृप्त कर देता/दोतारे पर बजाता उम्मीद का राग/घुटनों के बल झुकी हुई आकृतियों को/बता देता स्वतन्त्रता की परिभाषा’। कवि की व्याकुल आत्मा जाने के लिए उद्धत होना चाहती हैं बार-बार, पर स्थितियाँ-परिस्थितियाँ जाने के माकुल नहीं हैं। लेकिन उसकी भीतरी तड़प और बेचैनियों में जाने की चाह और न जा पाने की मजबूरियाँ जो अंतर्द्वंद्व उभारती हैं उनके बीच खड़ा कवि यह कहना नहीं भूलता कि-‘जा सकता तो ज़रूर जाता/खुद ही देखकर आ जाता/और कितनी देर में बदलेगा मौसम/और कितनी यातना के बाद/विद्रोह करेंगे मेरी मिट्टी के लोग/और कितने आदेशों-अध्यादेशों की मार खाकर/सुलग उठेगी प्रतिरोध की आग’।
कवि वर्तमान में जीता है, लेकिन उसकी कविताएँ सिर्फ वर्तमानजीवी होती हों; ऐसी बात नहीं है। वह अतीत से लेकर संभावित आगत तक की मुआयना कर रहा होता है। वह अपने पुरखों-पूर्वजों की गूँज-अनुगूँज सुनने-गुनने का प्रयास करता हुआ दिखता है। कवि कहता है-‘सम्मोहित होकर निहारता हूँ खेतों को/पगडंडियों पोखरों अमराइयों को/पाठशाला की कच्ची सड़क को/अपने बचपन को दौड़ते हुए/उछलते हुए खेलते हुए शोर मचाते हुए/देखता हूँ’। यहाँ द्रष्टा भाव से निहारता कवि महज़ तमाशबीन नहीं है। वह दूरियों-भेदों के बीच इंसानी नस्ल को पहचानता है। वह जानता है कि कई सारे लोग तमाम भिन्नताओं के बावजूद समान रूप से प्रताड़ित और बहिष्कृत किए हुए हैं। बकौल कवि-‘मैं तुम्हारी नस्ल का नहीं हूँ/जबकि तुम भी जानते हो/हमारी धमनियों में बहने वाले लहू का रंग लाल ही है/हमारे आँसू हमारी मुस्कान/हमारे सपने हमारे संघर्ष एक जैसे ही हैं।‘ लोक-मर्म से जुड़ा-गुँथा कवि लोक की संवेदना से सुपरिचित होता है; इसलिए उसकी ‘नोटिस’ में लोकगीतों का महत्त्व अन्यतम है। दिनकर कुमार ‘गीत उनकीकमजोरी थी’ शीर्षक कविता में कहते हैं-‘ये गीत ही थे जिनके सहारे/उन्होंने खुद को बचाए रखा था/प्रतिकूल मौसम में भी/उनके हृदय में आशा का संचार हुआ था/विपदाओं से जूझते रहने की/शक्ति मिल गई थी/...गीत उनकी कमजोरी थी/मौके-बेमौके जाते थे गीत के करीब/गीतों ने ही उन्हें बचाया था पशुता से/तुच्छ कमजोरियों से मशीनी सभ्यता से/विपरीत परिस्थितियों में भी/बची रही थी उनकी मनुष्यता’। भौतिक सुख-साधनों के रसरंजन को ललचाए निगाहों से देखने वालों की कमी नहीं है। आज अधिसंख्य जन भेड़चाल को ही सच्ची लकीर मान बैठे हैं। जबकि ऐसे लोग ‘समाज’ का रूप-वेष धारण किए हुए बहुरुपिए हैं जो पेशगी के तौर पर मिली रकम के एवज में जघन्य और नृशंस हत्याएँ तक करने से नहीं चुकते हैं-‘झूठ और साजिश की बुनियाद पर/खड़े जिस ढाँचे को/समाज कहकर पुकारा जाता है/वह सुकरात को जहर पिलाता है/ईसा को सूली पर लटकाता है’। यह और बात है, सच के सार्गिद झुकते नहीं हैं, घुटने नहीं टेकते हैं-‘इसके बावजूद/जो लीक को तोड़कर चलते हैं/धारा के विरुद्ध अपनी कश्ती आगे बढ़ाते हैं/वे परवाह नहीं करते दुनिया की/प्रतिकूल मौसम से टकराते-टकराते/फौलादी बना लेते हैं अपने इरादे को/एक न एक दिन दुनिया को झुकाते हैं’।
दुनिया की बेदिली भी अजीब है, अटल निश्चय वाले ऐसे लोगों को अपनों तक से उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। बेरुखी तब और सालती है जब वह हमनवां उसकी बेहद ख़ासमख़ास हो, संगिनी हो। कवि की बारीक निगाह की पकड़ में ये बातें साफतौर पर आ जाती हैं, पर इसे भी वह बड़े लाड़-दुलार से कविता में साधता है-‘मैंने कभी तुम्हारी सराहना की अपेक्षा नहीं की/मैं तो केवल इतना चाहता था/जब निराशा के अंधेरे से घिर जाऊँ/जब जीवन की चुनौतियों से टकराता रहूँ/कोई हौले से कंधे  पर रख दे हाथ और कहे/कि मैं तुम्हारे साथ हूँ’। दरअसल, आज सबसे तेज मार मनुष्यता की भाखा, बोली, विचार व संवेदना पर है। समीक्ष्य काव्य-संग्रह का कवि अपनेआप से भी कई सारे सवाल करता दिखता है। वह स्वयं से पूछ रहा होता है-‘क्या मैं इस रफ्तार से बदल नहीं पाया हूँ/जिस रफ्तार से मेरा शहर/जंगल में तब्दील हो गया है/या मैं रेगिस्तान में जल की तलाश करने की तरह/दुनियादारी के इस दौर में/मानवीय संवेदना की तलाश कर रहा हूँ’। कवि का सजीला मन आवाजों की संगत में अपने को बचाने का उपक्रम करता है, तो उसकी स्वीकारोक्ति बेहद मासूम मालूम देती है-‘दिनचर्या की कैद में/जब भी मेरा दम घुटने लगता है/गीत की कुछ मधुर पंक्तियाँ/बचा लेती हैं मुझे/कविता मेरे कंधे पर रखती है हाथ/मुझे आश्वस्त कर देती है/...मैं उस आबादी का हिस्सा बनने से/इनकार कर देता हूँ/जो मोबाइल टीवी इंटरनेट की रंगीन दुनिया में/डुबकी लगाती हुई/आत्मकेन्द्रित भीड़ बनकर जी रही है’। दिनकर का व्यथित कवि-मन दुनिया के चालू रवायतों को मनुष्य-विरोधी संजाल मानता है; जहाँ-‘दुनियादारी का शहर एक अंधा कुआँ है/जिसमें चीखने पर सिर्फ/प्रतिध्वनि सुनाई देती है’।
समाज की उन्नायिका साहित्य इन दिनों बाज़ारवादी शक्तियों के चंगुल में है। अब भावनाओं, संवेगों व संवेदनाओं की जगह मुद्रा की ‘मार्केट वैल्यू’ कहीं ज्यादा है। इंसानी जज़्बातों की अवहेलना कर रहा मनुष्य बदल ही नहीं रहा है; बल्कि कवि का तो यह भी मानना है कि-‘बाज़ार ने हमें मनुष्य से रूपांतरित कर दिया है/उपभोक्ता के रूप में/लोक-उत्सव को अपने कंघे पर उठाकर/बाज़ार हमारे घरों के अंदर घुस गया है/वह हमें बताने लगा है/किस तरह हम अपनी ज़िंदगी को बदल सकते हैं/किन उत्पादों को खरीदकर/हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।‘ उपभोक्तावादी संस्कृति ने आमजन के अनुभव-कोठार एवं उनके ठेठ बोली-वाणी पर धावा बोल दिया है। साहित्य की स्थिति ख़स्ताहाल है। वहाँ भी शब्द अपना अर्थमूल्य खो चुके हैं, तो उनके भीतर दैहिक ऐश्वर्य और कामनाओं की अर्थछवियाँ पसरने लगी हैं। आधुनिक कुचालों ने मौकापरस्त एवं अवसरवादियों की फौज खड़ा कर दी है। लोक-चेतना का संवाहक साहित्य ऐसे स्वार्थलोलुप लोगों से लपटाया है जिनमें रचनात्मक प्रतिभा के नाम पर देहाकर्षण और स्त्रियोचित्त लटके-झटके ख़ूब हैं। दिनकर कुमार की कविता ‘आइटम नम्बर’ की पंक्तियाँ देखिए-‘वह किसी हुनरमंद शिकारी की तरह/साहित्य की सत्ता के सोपानों पर बैठे/कुंठित बीमार मर्दों को/कनखियों से दे देखती है वासना की मुस्कान के साथ/पलक झपकते ही वह महफिल को लूट लेती है’। यह भी देखना होगा कि ऐसी महफिलें जहाँ साहित्य का स्वर कहकहे का होता है; वहाँ आमजन से जुड़ी बातें सिरे से गायब होती हैं। जनपक्षधरता और जनसरोकार की बातें गुम होती हैं। यह जो चर्चित अड्डा है वह साहित्य के मुलम्मे में अभिजातों का ऐशगाह है। कवि को ऐसी जगहों से घिन आती है, उसकी सांसे उखड़ने लगती है। अभिजातों की इस दुनिया के बारे में कवि दिनकर जो कहते हैं वह अत्यंत गौरतलब है-‘स्वार्थ का परिधान पहनकर यह वर्ग/किस तरह उपभोग करता है/निर्ममता के साथ सारे संसाधनों का/कैसी अजीब मुद्रा में अकड़ी रहती है इस/वर्ग की गरदन/कितनी अश्लील होती हैं/इस वर्ग की भंगिमाएँ/ऐसे अभिजातों की दुनिया में/कदम रखते ही दम घुटने लगता है/यंत्रमानवों के हुजूम से फौरन/बाहर निकल जाने का जी चाहता है।‘
यह बाहर निकलना यथार्थ से पलायन नहीं है। दरअसल, ऐसी पीड़ित आत्माएँ और विकल चेहरे ही प्रतिरोध का इन्द्रधनुष रचते हैं। विरोध का जुलूस-मार्च निकालते हैं। ऐसे लोग मौन होकर भी खामोंशियों के सहारे नवप्रभात का इतिहास रचते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि हुकूमत जब बेहद कमजोर होता है, तो उसे किसी के स्वाधीन बोल भी खतरे का सूचक जान पड़ते हैं। ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वाधीनता भी बंदिशों का शिकार हो जाती हैं और कुछ भी कहने-सुनने पर पहरे लगा दिए जाते हैं। कवि दिनकर ने इसकी अच्छी ख़बर ली है-‘जब शब्दों पर पहरे लगाए जाते हैं तब/रुलाई के साथ सदियों का हाहाकार घोलकर/नकली खुशहाली के मंजर को/मातम में बदला जा सकता है/आपस में फुसफुसाकर ही आकृतियाँ/सम्प्रेषित कर सकती हैं विद्रोह की चिनगारी को/गूगों का अंतहीन जुलूस/रौंद सकता है सिंहासन को।‘ दिनकर जब यह बात कह रहे होते हैं, तो उन्हें आज के मनुष्य और उसके दिक्-काल का पूरा अभिज्ञान है। वह आज के चुप मनुष्य के भीतर सुलगते ज्वाला को धधकते हुए देख रहे होते हैं। इसलिए वह जब आम-आदमी की बात करते हैं, तो असहाय, निर्बल, अकेला आदि रूपकों से इतर कुछ विशेष चयन करना जरूरी समझते हैं-‘हर आदमी माचिस की तीली की तरह/तैयार है सुलगकर जलने के लिए/उसे अफीम चटाकर सुलाया नहीं जा सकता/उसे फर्जी वायदों से भरमाया नहीं जा सकता/उसे आंतरिक खतरा बताकर तहखाने में/कैद नहीं किया जा सकता/अफवाहों का जहर देकर मारा नहीं जा सकता।‘
दिनकर की कविताओं में आलोचना का स्वर तीखा है। वह सीधे चोट करते हैं। आज के युग में जब बेबाकीपसंद लोगों की तादाद कम है; दिनकर का यह करारा प्रहार पारदर्शी एवं निरपेक्ष लगता है-‘बौनी प्रतिभाएँ सीधे चरणों में लोटने लगती हैं/विरुदावली गाने लगती हैं/ताकतवर को त्वमेव माता पितात्वमेव कहकर/अपने वश में कर लेती हैं/अपनी कुंठाओं को उगलती हैं तो/कोरस में उसी प्रजाति की प्रतिभाएँ आवाज मिलाती हैं’। ऐसे विरुपित-विकृत समय में जब छद्म वेशधारियों का कोरस-गान मुक्तकंठ प्रशंसित हो रहा है; एक कवि का निश्छल हृदय विषादों से भर जाना स्वाभाविक है। वह अपने को ऐसी जगह पाता है जहाँ कोई उसके साथ खड़ा नहीं दिख रहा है। वह अपने साथ खड़े रहे हुजूम को परछाइयों में बदलते हुए देखता है। वह पाता है कि जो सैलाब थीं, वे तो महज़ आकृतियाँ थीं जो नज़रों का भ्रम था। कवि की दिलेरी देखिए और मुहब्बत की टान अपने प्रति कि वह कहता है-‘मैं विषाद की बातों को झुठलाने की/कोशिश करता हूँ/जो भी है जैसी भी है ज़िन्दगी/मैं इसके सभी रंगों से टूटकर प्यार करता हूँ।‘
समीक्ष्य काव्य-संग्रह की हर पंक्ति को उद्धृत करने का जी करता है; उस पर खूब विस्तार से लिखने का मन होता है। पर अफ़सोस लिखा जा सकता, तो जरूर लिखता। यद्यपि कुछ चीजें बाकी रहने पर अपने होने का अहसास हमारे भीतर जिलाए रखती हैं। फिलहाल, दिनकर कुमार की यह सद्यः प्रकाशित काव्य-संग्रह ढेरों उम्मीदें जगाती हैं। सच को बेलाग-बेलौस कहती हैं। अधिसंख्य कविताएँ मौजूदा समय के सवालों से टकराती हैं; शासन और सरकार को कठघरे में खड़ा करती हैं। वह अपने समय के नब्ज़ को टटोलते हुए यह भी सूचित करती हैं कि सबकुछ एक आदमी द्वारा सही या दुरुस्त कर दिया जाना संभव होता, तो वह स्वयं यह जरूर कर देता। वास्तव में, इसके लिए सामूहिक चेतना के अतिरिक्त जनजांत्रिक शक्ति भी आवश्यक है। आज की सत्ता जिस तरीके से नवसाम्राज्यवादी ताकतों की चेरी बनी हुई है; उससे समस्याएँ और जटिल व खतरनाक होंगी। लोकतंत्र अपनी जगह है, पर वास्तव में जो देश का शासक-वर्ग है उसकी मानसिकता बेहद संकीर्ण है और उसका दृष्टिकोण एकदम अदूरदर्शी। आत्ममुग्धता के कोटर से चाहे जितनी भी बातें क्यों न उवाची जाएँ; प्रचारित, प्रक्षेपित अथवा विज्ञापित की जाएँ लेकिन वास्तविकता यही है कि-सबकुछ ठीक नहीं है। ‘गणशत्रु’ कविता शीर्षक में दिनकर कुमार सही लक्ष्य करते हैं कि-‘जब बस्तियों में ठंडे हो जाते हैं चूल्हें/तब वह राष्ट्रीय प्रसारण में गाता है/खुशहाली का गीत/उसकी मुट्ठी में सिसकता रहता है संविधान/इतिहास को तोड़ता-मरोड़ता है/वह विज्ञापन में दीनबंधु बनकर मुस्कुराता है/लेकिन बच्चा-बच्चा जानता है कि/वह असल में कौन है।‘

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