भगत सिंह जीवित तो हैं, किंतु विचारो और व्यवहारो में नहीं। सपनो और उम्मीदो में नहीं। और न ही चिंतन, दृष्टि और दर्शन में। वो जीवित हैं, तो सिर्फ किताबी दस्तावेज़ों में, पोस्टरों में या फिर उपेक्षित स्मारकों में। ये पूर्वकथन किस हद तक सही हैं, यह आकलन का विषय है? अक्सर देखा जाता है, सुध की शुभ घड़ी 23 मार्च को हर साल आती है ‘शहीद दिवस’ के बहाने। छोटे-बड़े शहरों, कस्बों और अंचलों में प्रायः भगत सिंह को याद कर लिए जाने का दस्तूर है। बाद बाकी नील-बट्टा-सन्नाटा। ऐसा क्यों है? आइए, इसकी पड़ताल करें कि 55 फीसदी युवा-आबादी वाले भारतीय युवाओं के जे़हन में भगत सिंह का बिंब-प्रतिबिंब कैसा हैं-अहा! अहो! वाह या फिर कुछ और?
संचारगत साधन से परिचित युवा पीढ़ी को सूचना, तकनीक, कला, विज्ञान, प्रबंधन और प्रौद्योगिकी में तो महारत हासिल है, किंतु वो अपनी ऐतिहासिक विरासत से अनजान है। यह अजनबीपन उस आभासी दुनिया की देन है, जो इन्हें असीमित ‘वर्चुअल स्पेस’ मुहैया करा रही है। जो सोशल-नेटवर्किंग, ब्लॉगिंग और माइक्रोब्लॉगिंग की दुनिया में विचरने के लिए पर्याप्त मौका उपलब्ध करा रही है। बस कमी है, तो विचार की, चेतना की और अपने सांस्कृतिक गौरव पर गर्व करने वाले विश्वास और संकल्पशक्ति की। संभवतः मंजे हुए शिल्पीकारो के हाथो भगत सिंह की प्रतिमा बनवा उसे प्रतीकात्मक रूप में सुरक्षित रखना आसान है, लेकिन उनकी वैचारिकी को लंबे अरसे तक युवाओं के मन-मस्तिष्क में संजोये रख पाना मुश्किल। खानापूर्ति के नाम पर शहादत-पर्व या जन्मशताब्दी वर्ष मना लेना औपचारिकता की षष्ठीपूर्ति के अलावा कुछ भी नहीं है।
मौजूदा परिप्रेक्ष्य में युवाओं की सोच का जायजा लें तो उनकी निगाह में भगत सिंह वैचारिक आक्रामकता से ओत-प्रोत एक ऐसे युवा थे, जिनकी गांधी जी से नहीं पटती थी। वह सशस्त्र क्रांति के हिमायती थे। हिंसा के बल पर स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका एकमात्र ध्येय था। उन्हें फांसी के फंदे पर इसलिए लटका दिया गया कि वह बम बनाने का सिद्धांत जान गए थे और उसका उन्होंने सार्वजनिक प्रयोग करना भी शुरू कर दिया था। वह मार्क्सवाद के दर्शन से प्रभावित थे। रुस की क्रांति और उसके साहित्य ने जो गुब्बार भीतर भर रखा था वह उसे अपनी भावी योजनाओं में परिणत करने को उतावले थे। वगैरह-वगैरह।
वैसे सारा दोष युवा समाज के ऊपर मढ़ देना न तो तर्कसंगत है, और न ही न्यायपूर्ण। कुछ जोशिले तेवर के विद्यार्थी स्वाधीनता संग्राम के इतिहास रचयिताओं से खासे नाराज दिखते हैं। उनके मुताबिक जानबूझकर गरम दलीय विचारधारा के हिमायती नवयुवकों मसलन खुदीराम बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, रामप्रसाद बिस्मिल, सुभाषचन्द्र बोस आदि को निचले पायदान पर रखा गया। कांग्रेस पार्टी का इतिहास लिखने वाले विद्वान नेता बी. पटृाभि सीतारमैया तो खुद ही स्वीकार करते हैं कि-‘जनता के हृदय में ‘लोकप्रियता के मामले में’ भगत सिंह महात्मा गांधी से थोड़े भी उन्नीस न थे।’ आज युवा समाज भगत सिंह को ले कर भ्रमित या कुछ प्रश्नों को लेकर ऊहापोह की स्थिति में है तो जरूरत सर्वोचित जवाब की है। भुलावे या टालमटोल की नीति से झूठ को बल मिलेगा, जिससे बचा जाना ही श्रेयस्कर है। युवाओं के कुछ अनुत्तरित प्रश्नो में पहला सवाल यही है कि महात्मा गांधी भगत सिंह के उग्र और क्रांतिकारी तेवर से परेशान क्यों थे, जबकि भगत सिंह न तो गांधी के सिद्धांतों की सीधे कोई मुखालफत करते थे, और न ही उनके अहिंसात्मक प्रयोगों की आलोचना? भगत सिंह को फांसी पर लटकाए जाने के अगले ही दिन 24 मार्च 1931 को महात्मा गांधी समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में देश के नौजवानो से यह आग्रह क्यों करते हैं कि-‘देश के युवा भगत सिंह के मार्ग का अवलंबन न करें’, जबकि उस रोज लाहौर सहित पूरा देश शोक में डूबा था? शहर-कस्बा ही नहीं दूरदराज के गांव-देहात में भी न चूल्हा जला, न दुकानों-संस्थानों के ताले खुले।
एक और अहम सवाल जो युवा-मन में उठता है वह यह कि महात्मा गांधी के सत्य, शांति और अहिंसा मार्का विचार, जिसके बारे में आमफ़हम धारणा है कि वह तत्कालीन जनसमाज को उद्वेलित करने में सफल रहा था, को सबसे पहले उन्हीं के अनुयायियो ने क्यों किनारे टरका दिया? ऐसे सवालो के जवाब देश के बौद्धिकों को सार्वजनिक मंच से देना चाहिए। क्योंकि युवा-समाज का असली मार्गदर्शक वही हैं। भगत सिंह और गांधी जी को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी मानने वाले युवाओं को यह बात जोर दे कर बतलाये जाने की जरूरत है कि यदि 23 साल की उम्र में भगत सिंह ने गांधी जी के ‘अहिंसा के दर्शन’ के जवाब में ‘बम का दर्शन’ लिखा, तो उनका इरादा अपनी बौद्धिकता को जाहिर करना नहीं था। असल में भगत सिंह आमजन के बीच यह संदेश प्रेषित करना चाहते थे कि वैचारिक मतभेद और सिद्धांतगत असहमतियों के तमाम दावे सत्य होते हुए भी हमारी लड़ाई समान उद्देश्य और पवित्र लक्ष्य प्राप्ति के लिए है।
इन दिनों युवा पीढ़ी के सामने सबसे बड़ी कठिनाई भगत सिंह के वैचारिक भूगोल से अपरिचित होना है। आज की दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी में नितांत निजी मामलो से परेशान हो कर आत्महत्या करने की प्रवृित बढ़ी है, भगत सिंह इस कोटि में शामिल नहीं थे। उन्हें अपने जीवन से कितना प्रेम था, इसका वह स्वयं उल्लेख करते हैं-‘मैं पूरे जोर से कहता हँू कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर हूं और जीवन की आनंदमयी रंगीनियों से ओत-प्रोत हंू पर आवश्यकता के समय सबकुछ कुरबान कर सकता हूं और यही वास्तविक बलिदान है।’ भगत सिंह की यह स्वीकारोक्ति इस बात की तसदीक है कि वह महज विचार-बावर्ची नहीं थे। सिद्धांत और विचारधारा के स्तर पर वह एक विचारनायक थे। एक ऐसा योद्धा जो जनता की दृष्टि में ज्यादा व्यावहारिक और राष्ट्र शुभेच्छु था। जांबाजीयत और दिलेरपना में जिसका कोई सानी न था। भगत सिंह ‘फांसी के फंदे’ को प्राणहंता न मानकर ‘विचार का मंच’ मानते थे। चेतनशील-प्रयोगधर्मी भगत सिंह युवाओं की अकर्मण्यता और अदूरदर्शिता के बाबत कहते दिखते हैं-‘कितने दुःख की बात है कि हमारे-तुम्हारे ऐसे नवयुवक, जो जीवन के सौंदर्य के प्रति इतने सचेत हैं। फिर भी वर्तमान अनुचित सामाजिक दमन के प्रति विद्रोह में उसी जीवन का बलिदान करने जा रहे हैं। हम केवल दूसरों की प्रशंसा करते हैं। विदेशियों के गुण गाते हैं, किंतु अब समय आ गया है कि चेत जाएं और अपने कर्तव्य को भी समझे। देश के भविष्य का निपटारा हमारे ही हाथों में है। माँ अपने सभी दुःखो को दूर करने के लिए हमारी ओर देख रही है। राष्ट्र की रक्षा का समस्त भार हमारे हीं कंधो पर है। आवश्यकता इस बात की है कि कार्य की महानता, पवित्रता और गंभीरता को अनुभव किया जाए।’
मात्र 17 वर्ष की आयु में ‘पंजाब की भाषा तथा लिपि की समस्या’ विषयक गंभीर लेख भगत सिंह की बौद्धिक परिपक्वता की पुष्टि करता है। ‘युवक’ और ‘विश्व प्रेम’ जैसे चर्चित लेख उनके सोच को बहुआयामी बनाते हैं, जिस पर आज भी बहुतो को गर्व है। इलाहाबाद से निकल रहे ‘चांद’ पत्रिका के नवंबर, 1928 के ‘फांसी अंक’ में भगत सिंह ने कई शहीद रणबांकुरों का जीवन-परिचय लिखा। बाद में जनपत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के सान्निध्य में वे ‘प्रताप’ पत्रिका में लिखने को उद्धत हुए। मजे की बात है कि भगत सिंह अव्वल दरजे के पढ़ाकू थे। 26 मई 1930 को अपने मित्र जयदेव गुप्त को लिखे पत्र में वह उल्लेख करते हैं, ‘इन दिनों मेरे पास एक ही किताब है और वह भी बहुत शुष्क। देखना, अगर हाल में प्रकाशित कुछ दिलचस्प उपन्यास भेज सको।’
भगत सिंह एक ओर बाल गंगाधर तिलक के ‘गीता रहस्य’ को पढ़ रहे थे, तो दूसरी ओर उनकी निगाह रूसो के ‘सोशल कॉन्ट्रेक्ट’ के अलावे अंग्रेजी कवि जॉन मिल्टन के ‘पैराडाइज लॉस्ट’ और ‘पैराडाइज रिगेंड’ तक को खंगाल रही थी। जेल की कालकोठरी में मार्क्स, एंग्लस और लेनिन जैसे क्रांतिकारियों के विचारो से उनकी मुठभेड़ और गुफ़्तगू आम बात थी। अध्ययन करना भगत सिंह की आदत थी। उनके हाथो में प्रायः पुस्तके मिलती थी। सिर्फ पढ़ना शौक ही नहीं, जेल में लिखे पचासो लेख, सैकड़ो पत्र, भूमिका, परचे, पोस्टर, आत्मकथा उनके व्यक्तित्व की असल जमापूंजी थे।
23 साल की उम्र में भगत सिंह शोषणविहीन समाज के लिए लड़ रहे थे, यह आज के युवा समाज को देख कर अनुमान लगाना कठिन है। भगत सिंह आज की तारीख़ से 100 साल पीछे टॉमस पेन की रचना ‘राइट्स ऑफ मैन’ के अंग्रेजी हरफ़ का अक्षर-दर-अक्षर टटोलने में जुटे थे, यह सुनना भी कौतुक और आकर्षण का विषय है। संचार-क्रांति के एसएमएस युगीन इस दौर में युवा समाज का एक बड़ा तबका भगत सिंह से सीधे परिचित एवं प्रभावित भले न हो, किंतु चेतनशील युवा जमात के लिए भगत सिंह अदम्य साहस और प्रेरणा के स्रोत हैं। इस समय युवा समाज को भगत सिंह की जरूरत सर्वाधिक है। इस बाबत बीबीसी हिन्दी का एक कार्यक्रम उल्लेखनीय है, जिसमें आये वेब-टिप्पणियों में अधिकांश ने भगत सिंह को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की वकालत की है, जिसकी आज जन-जन को जरूरत है। ज्ञानवान समाज बनने को आग्रही भावी पीढ़ी भगत सिंह को ले कर किसी वहम या गलतफहमी में न रहे, इसके लिए सभी को सम्मिलित प्रयास किए जाने की जरूरत है। क्योंकि संवैधानिक रीति से जनादेश पाये भारत में अभी काफी कुछ शेष बचा है, जो बेहतर भविष्य के लिए भरोसा देता है। जनशक्ति और जनसहभागिता के सहारे समस्त विघ्न-बाधाओ से पार पाने का हौसला देता है। फिलहाल, सारा दारोमदार युवा समाज के उस निर्णय पर आश्रित है कि वह अपना मार्गदर्शक नेता किसको चुनता है? आशाजीवी विचार से ओत-प्रोत कवि गोपालदास नीरज के शब्दो में कहें, तो-‘कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है/कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है/कुछ दीपों के बुझ जाने से आंगन नहीं मरा करता है/कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है।’
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