Sunday, January 17, 2010
याद करो ‘जय हिन्द’ को जरा
दो तारीख़ है, पहली 22 सितम्बर 1920 और दूसरी 22 अप्रैल 1921; हिसाब में दोनों के बीच 12 माह से भी कम का फासला। पहली तारीख को एक काबिल भारतीय नौजवान सिविल सेवा की परीक्षा में चैथे स्थान पर चयनित होता है। परिवार में रौनक का सब्जबाग कि तभी वह दूसरी तारीख़ नमुदार होती है, वह युवा उस नौकरी को ठोकर मार एक नए जमात में शामिल हो जाता है। तत्त्कालीन स्टेट्समैन नामक समाचार पत्र में शीर्षक लगता है-‘कांग्रेस को एक योग्य व्यक्ति मिल गया और सरकार ने एक लायक अफसर गवां दिया।’
यह दिन भारतीय समाज के लिए गर्व का था। भारत को एक ऐसा नौजवान मिला था, जिसके लिए देश से बड़ा कोई सिद्धांत, आदर्श, मूल्य या स्वार्थ नहीं था। आज वह व्यक्ति नेताजी नाम के अलंकरण से सुशोभित है। जी हाँ, सुभाष चन्द्र बोस ने नौकरी छोड़ दी। वैसी नौकरी, जिन्हें उनकी चेतना स्वीकार नहीं कर रही थी। उनके रग का रवा-रवा मानसिक गुलामी की मुखालफत कर रहा था। पराधीन राष्ट्र ललकार रहा था, क्योंकि राष्ट्र को ‘दिल्ली चलो’ का हुंकार भरने वाला नायक चाहिए था। सुभाष के रूप में वह नायक मिल गया, जिसने सशर्त कहा था, ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दंूगा।’
गौरतलब, आज हम सभी उम्र के उसी पड़ाव में हैं, जब से सुभाषचन्द्र बोस ने राष्ट्रहित के लिए अपना सबकुछ दाँव पर लगा देना वाज़िब समझा। उन्हें लगा कहानियाँ बुनने से समाज नहीं बदल सकता। कविताओं के सतही वाचन से संवेदनाएँ जाग नहीं सकती। इसके लिए चाहिए-पूर्ण समर्पण और संपूर्ण प्रयास। सर्वप्रथम जरूरी है-चाल, चरित्र और चेहरा में साम्यता।
भूल न करें कि मैं यहाँ किसी क्रांति या आंदोलन का चरित्र बखान कर रहा हँू। नेताजी के तर्जं पर आजाद भारत में पुनश्च ‘भारत की असली स्वतंत्रता’ का पुनर्पाठ कर रहा हँू। वैसे समय में जब मिसाइलें मिसाल कायम कर रही हैं। हिंसा और क्रूरता का विद्रूप परिवेश रचने वाले ‘विश्व-शांति’ के नाम पर अपना साम्राज्यवादी एंजेडा फैलाने में तल्लीन हैं। मैं ‘जय हिन्द’ का जयघोष करने वाले वीर, बहादुर और जांबाज शख़्सियत के अवतार लेने की दुहाई नहीं दे सकता।
अपना ऊँट किस करवट बैठ रहा है। इसका भान होना हमारे नौजवान साथियों को जरूरी है, जिनकी आबादी देश की आधी आबादी के आस-पास है। दरअसल, यह ऊँट है अपना लोकतंत्र, जिसके सहारे हमें रेतीले रेगिस्तान को पार करना है। अभाव, भूखमरी, गरीबी, महंगाई, प्राकृतिक आपदा जैसे दैत्याकार समस्याओं से निपटना है। एकमात्र सहारा है यह। अगर लोकतंत्र में खामियाँ और खराबियाँ इसी तरह बरकरार रही, तो कल की तारीख़ में हिन्दुस्तानी साम्राज्य की चूलें हिल जाएंगी। विरासत की तमाम स्मृतियाँ, जो एक भारतीय को गर्व और गौरव करने लायक ‘स्पेस’ मुहैया कराती हैं, चाहे वो ‘सर्वधर्म समभाव’ हो या ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ या कि ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ विलुप्त होते देर नहीं लगेगी।
मैं गाँधीवादी आदर्श का कायल हँू। लेकिन उसका व्यावहारिक धरातल पर अवतरण कैसे हो? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसके लिए हमें अपने चरित्र और आचरण में नेताजी माफिक कठोर संकल्प को शामिल करना सीखना होगा। अपने मूल्य-सिद्धांत और सभ्यता-संस्कृति के प्रति उदार किंतु दृढ़ भाव रखना होगा। अपने राष्ट्र के निर्माण के लिए सुभाष जी जैसे अडिग व्यक्तित्व का जीवन जीना होगा। ताकि पूँजी से लिपटी आधुनिक-उत्तरआधुनिक शब्दावली की भौतिकवादी हवाएँ बिल्कुल समीप से गुजर जाए, पर हमे आँच न आये, हम जड़ से उखड़ न सके।
एक हिन्दुस्तानी होने का भाव हम विद्यार्थियों में स्पष्ट तरीके से परिलक्षित होना चाहिए। हमारे बोल में अपनापन घुला होना चाहिए। पहनावे-परिधान में आधुनिक रंगरोगन के बावजूद अपनी संास्कृतिक पहचान समेटे होने की कुव्वत होनी चाहिए। ऐसा हो तभी आज की तारीख़ में सुभाषचन्द्र बोस को याद करने का महत्व है। उनके योगदान का बखान करने का औचित्य है। अन्यथा 23 जनवरी को रोज बदलने वाले अंकों का गुच्छ ही बने रहने दीजिए। इसमें जयंती जैसी औपचारिक कवायद करने की कोई जरूरत नहीं।
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