‘’मुझे योगी आदित्यनाथ में कोई कमी नहीं दिखती
क्योंकि जनता उन्हें अपना वास्तविक नेता मानती है। यदि हम जनता के बारे में सोचते
हैं, तो हमें जनता के निर्णय की दिशा में जाने के
लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि जनादेश स्वांतःसुखाय कभी नहीं होता है।‘’
(राजीव रंजन प्रसाद)
(राजीव रंजन प्रसाद)
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यह सवाल भी जनता से किस मुँह से पूछे...! |
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युवाओं पर जाति, धर्म, वर्ग का आरोप मढ़कर उनसे गद्दी नहीं छिनी जा सकती |
हाल ही में उत्तर प्रदेश का जनादेश (2017) भारी बहुमत के साथ भारतीय जनता पार्टी नित
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ गया जिसका
युवा चेहरा योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने हैं। योगी आदित्यनाथ की अपनी रामकहानी
और अपना अलग ही सफ़रनामा है।
वे यूपी के धाकड़ राजनीतिज्ञ हैं, तो उनकी ज़मीनी
पकड़ शानदार है। उनको लेकर बौद्धिक वर्ग में आशांकाएँ बहुत हैं, तो संदेहों की भरमार है। भारत के मतदाता
के बदलते मिज़ाज को भाँपने में असफल रहे बौद्धिकों का एक बड़ा तबका कुंठित हैं
क्योंकि उसके पास जवाब तो ढेरों
हैं; लेकिन विकल्प एक भी नहीं है। ध्यान देना होगा कि योगी आदित्यनाथ अब तक क्या थे और
उन्होंने राजनीति में कौन-कौन से कारनामे किए हैं या कि उनकी अब तक कि क्या-क्या
उपलब्धियाँ रही हैं; यह उत्तर प्रदेश की जनता
के जोड़-घटाव अथवा गुणा-भाग का मामला नहीं है। जनता की निगाहों में उत्तर प्रदेश का
वह नक़्शा है जिसमें सुख, शांति, चैन, विकास, समृद्धि, सम्पन्नता की अनगिनत
अभिलाषाएँ गुँथी-बँधी हुई है। उत्तर प्रदेश के बिल्कुल निद्र्वंद्व लोगों के मन
में ‘सबका साथ और सबका विकास’ को समर्पित चिन्तन-दृष्टि
है जिसके पूरे होने की उम्मीद योगी आदित्यनाथ से की जा रही है। जनता उनके रसूख, फायर-ब्रांड छवि या कि हिंदुत्ववादी चेहरे को नकारती आई है; वह उन्हें एक ऐसा युवा राजनीतिज्ञ मानती है जो अपने समय के सभी नेताओं की
तुलना में अधिक सहिष्णु, प्रगतिशील तथा जनाकांक्षा के अनुरूप त्वरित गति
से काम करने का आग्रही है। आमजन योगी आदित्यनाथ को सत्य-पुरुष, मर्यादा-पुरुष और आदर्श-पुरुष के रूप में देखना चाहती है जो हर तरह के
राजनीतिक समीकरण को नकारने का मादा रखता है। वह भी वैसे खतरनाक समय में जब यह कहना
आम बात है कि-‘जिसका भी पूँछ उठाया मादा पाया’ या कि ‘हर कुँए में भाँग पड़ी हुई है’।
आइए राजीव रंजन प्रसाद का एक शोधपरक आलेख ‘राजनीतिक संचार की भाषा एवं भारतीय युवा’ पढ़े जिसे भारतीय
युवा राजनीतिज्ञों के ऊपर फोकस कर तब लिखा गया था जब योगी आदित्यनाथ इस शोधकर्ता के
शोध-अनुसन्धान के नामसूची में तो थे परन्तु आकलन-मूल्यांकन अथवा जिरह-बहस से
बिल्कुल बाहर थे। कुछ समय पहले तक शोधकर्ता के केन्द्र में थे राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, वरुण गाँधी जैसे नामचीन
नेता जिन्हें ‘लिडरशीप’ करने का पर्याप्त अवसर
मिला लेकिन अंततः वह फिसड्डी साबित हुए।
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राजनीतिक संचार की भाषा एवं भारतीय युवा
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राजीव रंजन प्रसाद
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(विश्वविद्याालय अनुदान आयोग {UGC} के पास हिन्दी की एक भी स्तरीय पत्रिका होने की सूचना और तत्सम्बन्धी सूची नहीं है, जबकि अंग्रेजी माध्यम की लगभग 39000 पत्रिकाएँ/आॅनलाइन जर्नल खाते में ज्ञानलीला कर रहे हैं। चलो भाई, तब तक अपने ही ब्लाॅग पर शोध-पत्र पढ़े-पढ़ाएँ।
माफ करना ‘इस बार’)
माफ करना ‘इस बार’)
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देशकाल की धुरी पर गतिमान जनसमाज लोक-प्रशिक्षक है। जन-मन
सामूहिक चेतना का अभिलेखागार है। यह एक ऐसा विशाल माध्यम है जो प्रत्यक्ष या
परोक्ष ढंग से मानव जीवन को गतिशील बनाए रखता है। उसके निर्णय की अवहेलना नहीं की
जा सकती है क्योंकि जनता जब निर्णय करती है, तो वह अपने निर्णय में
बेहद नृशंस होती है। वह मतदाता के रूप में एक दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, विशेषज्ञ, चिंतक आदि सबसे बढ़कर होती
है। उसकी गर्जना की काॅपी कर भाषा में शब्द गढ़े जाते हैं-‘परिवर्तन यात्रा’, ‘जनचेतना जुलूस’, ‘विजय दिवस’, ‘समरसता रैली’ आदि। मनोविज्ञानियों के अनुसार, किसी व्यक्ति की दृश्य क्रियाएँ और श्रव्य शब्द
उसके चरित्र एवं बुद्धि का वास्तविक द्योतक नहीं है; शीलगुण या सामूहिक आकांक्षा की अचेतन अभिव्यक्ति तो हरग़िज
नहीं। यह निजी अभिव्यक्ति का जरिया हैं या कह लें साधन-औजार। इसमें जोड़-घटाव,
दुराव-छिपाव, रचाव-बनाव सबकुछ संभव है; और यह अंतःप्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। ‘‘मानव-व्यवहार का एक तरीका है जिस पर हम
प्रधानतः निर्भर होते हैं। हम जिस व्यक्ति को देख-सुन रहे हों उसने यदि बातचीत
करना सीखा हो और वह हमारी उस भाषा में बात करता है जिसे हम समझते हैं, तो अंशतः उसकी बातचीत को उसे भी जान लेने
(व्यक्तित्व, व्यवहार, चरित्र इत्यादि) का प्राथमिक स्रोत समझते हैं,
वह अंश जिसमें वह खुला, स्वछंद और बिना प्रयत्न के बोलता हो। यह निश्चित ही कुख्यात
है कि लोग प्रायः कम बोलते हैं और कुछ बोलने में छिपाते हैं। बनिस्बत उसे बोल देने
के। यह भी कुख्यात है कि लोग प्रायः अप्रामाणिक होते हैं; और इस लहजे में बात करते हैं जिससे झूठा प्रभाव पड़े। कम
बोलना वस्तुतः जानबूझकर खुलकर बोलने से परावृत होता है। पाखंडी होना मतलब होठों पर
जो आता है उसे रोककर जानबूझकर कुछ और बोलना है। इसी तरह ढोंग करने का अर्थ है वे
चीजें खुलकर बोलना जिसकी मंशा उन्हें स्वयं नहीं होती है।’’1 आधुनिक भाषाविज्ञानियों का स्पष्ट मत है कि
प्रत्येक भाषा उस भाषा-समाज की वस्तुओं, संस्थाओं और क्रियाओं के सांस्कृतिक अभिलक्षणों को प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति
रखती है। ध्वनि, शब्द तथा रूप के
स्तर पर चयन के अन्तर्गत काफी सतर्कता बरती जाती है। भाषा के प्रति यह सचेतन
प्रयास ही वह समाजभाषावैज्ञानिक पहलू है जिसका शब्दार्थ सामान्य से अधिक असरकारी
होता है। इस प्रक्रिया में शब्द-चयन के आधार निश्चित होते हैं। चयन प्रायः ध्वनि,
शब्द, रूप, वाक्य, समास, सन्धि आदि कई स्तरों पर होता है। ध्यान दें कि, ‘’ग़लत भाषा सदैव
अकुशलता या असावधानी का परिणाम नहीं होती, कभी-कभी वह कर्ता या वक्ता की धूर्तता का परिणाम होती है। वहीं सावधान अथवा
सतर्क धूर्त-वक्ता अपनी क्षमता का उचित दोहन करते हैं, तो होता यह है कि उनके बोले गए शब्द और वास्तविक भाव दो
भिन्न, एकदम अलग बातें संचारित
कर जाते हैं।‘’2
व्यक्ति का बोलना एक आदिम-वृत्ति है। हमें बोलने की जरूरत
कब पड़ी या हमारे लिए बोलना जरूरी कैसे है? ये प्रश्न संचार और भाषा आधारित समस्त गतिविधियों का आधारभूत पक्ष है, केन्द्रीय नियामक है। लेकिन हम सब बोलते क्यों
हैं? यह प्रश्न मुख्य है।
संचार वस्तुतः एक जटिल प्रक्रिया है तथा इसमें सीखने की समस्त प्रक्रियाएँ
सम्मिलित हैं। आधुनिक जनमाध्यम के बारे में प्रांजल धर की राय है, ‘‘जनमाध्यम के कृत्य सूचना देने, शिक्षित करने और मनोरंजन तक ही सीमित नहीं रह
गए हैं। यह अब न सिर्फ समाज को और उसकी
संरचना को प्रभावित करता है बल्कि नए-नए सामाजिक प्रतिमानों की स्थापना करता है।
लोकतांत्रिक राज्य के आदर्शों को मीडिया ने जनता तक पहुँचाया है और उसे
लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों की जानकारी भी दी है। उसने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय पर बहसें छेड़ी हैं और
लोगों को स्वतन्त्रता और समानता के विभिन्न आयामों से परिचित कराया है।’’3
राजनीतिक संचार:
मौजूदा परिदृश्य
राजनीति का महत्त्व सार्वदेशिक और सर्वतोमुखी है। यह अपनी
प्रकृति में बहुविधायी और बहुआयामी दोनों है। सत्ता, जनपक्ष, सम्प्रभुता,
स्वाधीनता, न्याय, समता आदि राजनीति
विज्ञान की प्रमुख श्रेणियाँ हैं। अमरीकी राजनीतिविज्ञानी सैम्युएल एम. हाइम्स,
जूनियर के अनुसार-‘‘सरकारों, व्यक्तियों और
समूहों द्वारा विशेषतः दबाव और संकट के कालों में प्रतीकों का छलयोजन और मिथकों का
निर्माण राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।’’ यह देखना उपयुक्त होगा कि राजनीति को अतिसंक्षेप में शासकों
और शासितों के बीच सम्बन्ध का प्रकार्य माना है। (डेविड ई. आप्टर) इसी तरह टाॅलकोट
पारसन्स राजनीति को ‘सामाजिक संघटन का
सहायक पक्ष’ घोषित करते हैं।
उनका यह भी कहना है कि, ‘‘एक प्रणाली के
रूप में राज्य-व्यवस्था का उत्पाद ‘सत्ता’ है जिसे मैं सामूहिक लक्ष्यों के हित में काम
करवाने वाली सामाजिक व्यवस्था की एक सामान्यीकृत क्षमता के रूप में परिभाषित करना
चाहता हूँ।’’ इस तरह वे तीन
तथ्यों को राजनीति के सन्दर्भ में स्वीकार्य मानते हैं: 1) अन्य इकाइयों के विरोधों के बावजूद व्यवस्था की एक इकाई को
अपना लक्ष्य अर्जित करने की क्षमता, 2) सामूहिकताएँ इन प्रक्रियाओं की मुख्य साधन हैं जो किसी भी संस्थागत ढाँचे के
भीतर काम करती हैं। और 3) सामूहिकताओं का
तंत्र है जो ऐसे साधनों का निर्माण करती है। इस क्रम में फ्रांसीसी
राजनीतिविज्ञानी माॅरिस दुवर्जर राजनीति को ‘संगठित सत्ता, आदेश और नियंत्रण का संस्थान’ के रूप में
परिभाषित करते हैं। ब्रिटिश राजनीतिविज्ञानी ओकशाॅट आसान भाषा में कहते हैं,
‘राजनीति किसी समाज की सामान्य व्यवस्थाओं की
देखभाल की प्रक्रिया है।’ एक प्रश्न उठाएँ
कि ‘व्यक्ति राजनीतिक जीवन
में क्यों भाग लेता है’ तो इस सम्बन्ध
में तीन प्रमुख दृष्टिकोण मिलते हैं-आर्थिक, मनोवैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक। (लेन, 1959) आर्थिक दृष्टि से राजनीतिक जीवन में भाग लेने
का कारण आर्थिक स्वार्थों तथा हितों की पूर्ति एवं रक्षा करना है। जिन व्यक्तियों
के आर्थिक स्रोत अपेक्षाकृत संतोषजनक है, उनमें सहभागिता की मात्रा अधिक पाई जाती है। (लिन्डफील्ड, 1964) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्ति में दूसरों की
स्वीकृति प्राप्त करने की आकांक्षा, अह्म, अर्जनात्मकता, सांसारिक यश एवं सफलता की कामना, प्रभुत्व की इच्छा, सामाजिक अभियोजन की इच्छा उसे राजनीतिक सहभागिता के लिए
प्रेरित करती है। (लेन, 1959) इसी प्रकार
सांस्कृतिक दृष्टि से व्यक्ति की राजनीतिक सहभागिता का अन्तर विभिन्न संस्कृतियों
में व्याप्त सामाजीकरण की प्रक्रिया के अन्तर, सत्ता और अधीरता के मूल्यों के तुलनात्मक महत्त्व और भूमिका
ग्रहण सम्बन्धी सांस्कृतिक विभिन्नताओं के आधार पर स्पष्ट किया जाता है।’’4
हाल की राजनीतिक स्थिति के बारे में यह कहना उपयुक्त होगा
कि यह दौर विचारों के घालमेल और बुद्धि-विवेक के मिलावट का दौर है। समूह, समाज, संस्कृति, परम्परा, आदत, स्वभाव, व्यक्ति, व्यवहार, नेतृत्व; यहाँ तक कि
राजनीतिक चरित्र स्वयं जबर्दस्त गड़बड़झाला का शिकार है। संचार माध्यमों ने थोकभाव
राजनीतिक छवियों-प्रतिछवियों का उत्पादन किया है। राजनीतिक घटनाओं की दृश्यावलियाँ
अधिक हैं, दृश्यों में गतिशीलता
ज्यादा है किन्तु स्थायित्व, संज्ञान-बोध और
प्रभावशीलता नगण्य हैं। आज राजनीति रैली, रोड-शो, यात्रा, दिवस, नारे, भाषण, चर्चा, मंच, प्रवक्ता, स्टार प्रचारक, घोषणा-पत्र आदि के हवाले है। इन सब आपा-धापी से आमजन का
अनभिज्ञ बने रहना संभव नहीं है क्योंकि राजनीतिक संचार के तरीके बहुआयामी तथा
बहुआयामी हो चले हैं। पर देखना होगा कि मौजूदा राजनीति में सभी पार्टियाँ शीर्षासन
कर रही हैं। पार्टी का आत्मबल और मनोबल इस तरह चुक गया है कि यदि वे शीर्ष के
एक-दो नेताओं के भरोसे अपनी राजनीतिक मुहिम आगे न बढ़ाएँ, तो सारा खेल ‘फ्लाॅप’ हो जाएगा। जैसे:
नरेन्द्र मोदी, अमित शाह,
सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, मुलायम सिंह, अखिलेश, मायावती, ममता, नीतीश कुमार आदि।
युवा राजनीतिक
सहभागिता: नेतृत्व का संकट
नेतृत्व के इतने गहन संकट
में भारतीय युवा फिर इतने उदासीन क्यों है? क्यों उनकी ज़मात में ठोस ज़मीनी ‘टाइप’ राष्ट्रीय
नेतृत्व नहीं है, परिदृश्य
झाँय-झाँय है। क्या इसलिए कि आम युवा वंशवादी कपोत नहीं है। वे प्रतिभा की
जन्मपत्री लेकर पैदा नहीं हुए है जिनके पैदा होने की सूचना मात्र पर विदेशी
विश्वविद्यालयों के प्रबंधक उनके नाम और खानदान का अपने यहाँ अग्रिम पंजियन कर
डालते हैं। यानी वे संघर्ष, चुनौती और आफत से
लदे-फदे आम युवा नहीं है, तभी तो उनके पास
अवसर का इतना बड़ा खजाना होता है कि 2009 में फेल हुए, तो 2012 में पास होने की सोची जाती है; 2014-2017 में असफल हुए तब भी 2019 में कामयाब होने की उम्मीद बची रहती हैं। ऐसे युवा
सार्वजनिक मंचों पर एकतरफा बोलते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि वे ‘डायलाॅग’ की शैली अपनाएँगे, तो भारतीय युवा उनकी पगड़ी उतार फेकेंगी। तब भी युवा राजनीतिज्ञों की
मनोवैज्ञानिक तफ़्तीश करें, तो उत्तर प्रदेश में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में
अखिलेश यादव न सिर्फ एक बेहतर संचारक साबित हुए; बल्कि अपनी आन्तरिक दृढ़ता, संकल्पनिष्ठा एवं प्रभावशाली नेतृत्व के माध्यम से व्यापक
जनसमूह तक अपनी बात पहुँचाने का करिश्मा कर दिखाया। करिश्मा इन अर्थो में की
मुलायम सिंह यादव की नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी को आमजन ने गुण्डों-अपराधियों,
शूटरों तथा अराजक तत्त्वों की पार्टी मानना शुरू कर दिया था। इस बात को अखिलेश
यादव ने ज़मीनी प्रयास के माध्यम से शिद्दत से महसूस किया और चुनावपूर्व इस छवि को
बदलने की मुहिम में वे जीजान से जुटे रहे। समाचार-पत्र के उद्धरण इसके जीते-जागते
सबूत हैं-‘‘मुलायम यादव ने सपा की
ध्वजा अखिलेश को पकड़ाने का निश्चय किया। वे उत्तर प्रदेश सपा के अध्यक्ष बना दिए
गए। यहाँ से अखिलेश ने सपा का चाल-चरित्र-चेहरा बदलने के अभियान की शुरुआत कर दी।
वे एक साथ कई मोर्चों पर बदलाव की मुहिम चला रहे थे और संगठन में जोश भरने और उसे
मजबूत करने का काम खुद गाँव-बाज़ार में साइकिल पर घूमते हुए कर रहे थे।’’5
‘मिशन-2012’ के साथ अखिलेश यादव को सीधी टक्कर देने कांग्रेस के युवा
राजनीतिज्ञ राहुल गाँधी थे। अफसोस! इस चुनावी समर में अपना सारा खून-पसीना जोत
देने के बावजूद वे जनता से सही ‘संवाद’ नहीं स्थापित कर पाए, तो यह उनकी संचारक छवि की पटखनी है, सही नेतृत्व न कर पाने की अक्षमता है। क्योंकि जनसंवाद के
अन्तर्गत प्रदर्शित जुझारूपन, यथास्थिति का
मूल्यांकन और अन्तर्विरोधों का सम्यक् निपटारा एक सिद्धहस्त संचारक का प्रथम गुण
माना जाता है जिसकी अनुपस्थिति राहुल गाँधी के व्यक्तित्व-व्यवहार में साफ
दृष्टिगोचर होता है।
दार्शनिक चिंतक प्लूटो ने इसीलिए कहा है, ‘जनता से सम्वाद करो, स्वयं को जानो’। लेकिन यहाँ यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि राजनीति में भागीदार बना व्यक्ति
कौन है और कहाँ से है? यह प्रश्न आधुनिक
राजनीतिक ‘माॅडल’ को देखते हुए सही प्रतीत होता है जिस बारे में
अमरीकी समाजविज्ञानी और राजनीतिविज्ञानी टाॅलकोट पारसन्स का स्पष्ट मत है कि,
‘सिर्फ राजनीतिक अभिजन (अमीर, धनिक, सामन्त, आभिजात्य-वर्ग
आदि) ही राजनीतिक सत्ता के अधिकारी हैं।’’ भारतीय राजनीति में इस विचार की प्रासंगिकता सबसे अधिक है क्योंकि वे सत्य
सिद्ध होती हैं। अक्सर हम उन कारकों को नहीं चिह्नित कर पाते हैं जो किसी व्यक्ति
के स्वभाव, आदत या चरित्र के गठन में
मुख्य किरदार की भूमिका निभाते हैं। जैसे उच्चारण से पूर्व शब्द की सत्ता वक्ता
में अन्तर्निहित होती है, वैसे ही किसी
व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व में अमुक किरदार पूर्व विद्यमान होते हैं। सूक्ष्म और
सूक्ष्मतर भाषा में व्यक्त व्यक्तित्व का यह पक्ष मनोभाषिक होता है, जो यह निर्धारित करता है कि किसी जनसमूह में
कुछ खास तरह के व्यक्ति के भीतर ही नेतृत्व करने या नेता बनने की योग्यता क्यों
प्रबल हो उठती है? ऐसे
नेतृत्वकत्र्ताओं की सामाजिक सक्रियता और वैचारिक क्रियाशीलता लोगों को तुरंत अपनी
ओर आकर्षित क्यों और किस तरह कर लेती है? क्या कारण है कि राजनीति में नेताओं के लिए ‘युवराज’, ‘सुप्रीमो’,
‘लीजेंड’, ‘हाईकमान’ ‘मास्टरमाइंड’,
‘हाईप्रोफाइल’, ‘कद्दावर’ ‘सेलीब्रेटी लिडर’,
‘स्टार प्रचारक’, ‘फायर ब्रांड’ आदि शब्दावलियाँ धड़ल्ले से प्रयोग की जाने लगती
है? क्या ये सिर्फ शब्द-मात्र
नहीं है बल्कि इन्हें प्रयोजनवश गढ़ा और संचार माध्यमों द्वारा जानबूझकर फैलाया
जाता है? इसी तरह यह देखना उपयुक्त
होगा कि किसी जनतंत्र आधारित राष्ट्र में ‘वन मैन शो’ अथवा व्यक्तिवादी
राजनीति को सर्वाधिक पसंद क्यों किया जाने लगता है? इन सभी प्रश्नों, प्रवृत्तियों, अभिवृत्तियों आदि
से जूझे बिना राजनीतिक युवा की मुकम्मल परिभाषा नहीं तैयार की जा सकती; जनसमाज के बीच आँकड़ों में तैरते ‘55 करोड़ युवा भारतीय’ होने का मुहावरा का सही शब्दार्थ नहीं समझा जा सकता।
राजनीतिक संचारक:
निर्माण के आधार
सबसे पहले तो हमें यह जानना होगा कि आखि़र किन कारणों से
प्रभावशीलता के स्तर पर सभी व्यक्तियों की अलग-अलग भूमिका होती है। हर व्यक्ति
दूसरे व्यक्ति से बिल्कुल भिन्न होता है। कुछ सादृश्यता या समानता हों तब भी
चारित्रिक-वैशिष्टय में एकरूपता बनी नहीं रह सकती हैं। ताज्जुबकारी किन्तु यह
जानना बेहद दिलचस्प है कि वे कौन-से मुख्य कारक हैं जिनकी उपस्थिति मात्र से किसी
व्यक्ति की भाषा बदल जाती है। बोल-बर्ताव, बातचीत के तौर-तरीके, अपनी बात कहने,
दूसरे की बात नकारने, किसी पर चिल्लाने यहाँ तक कि चुप रहने का ढंग भी एक-सा नहीं
होता है। व्यक्तित्व, व्यवहार एवं
नेतृत्व में इतना बड़ा फर्क पड़ जाना जिनके कारणों से होता है उसमें हमारी
ऐच्छिक-अनैच्छिक क्रियाएँ शामिल होती हैं। अतएव, यह कहना उचित ही है कि-‘‘शिक्षा और परिवेश हालाँकि प्रभावशाली तत्त्व हैं और उनके
कारण बहुत-सी बातें छिप जाती हैं; पर यही सौ फीसदी
सच नहीं है क्योंकि अच्छी पुस्तके पढ़ने और अच्छे पोशाक पहनने वाला व्यक्ति अच्छा,
नेकनियत और ईमानदार भी हो यह जरूरी नहीं है।
हमारा सोच और व्यक्तित्व समाज की जलवायु में पनपते जरूर हैं, पर विकसित स्वयं के निर्णयों या तय किए रास्तों
से ही होते हैं।’’6 व्यक्तित्व, व्यवहार और
नेतृत्व का सम्यक् आकलन युवा राजनीतिज्ञों के सापेक्ष किया जाना आज की सामयिक
जरूरत है। ध्यान दिए जाने योग्य है कि राजनीति को भी, प्रबंधन के किसी भी अन्य किसी क्षेत्र की ही तरह, योग्यता, आदतों, इच्छा, कला आदि की आवश्यकता होती है। राजनीतिक
प्रक्रिया में जटिल अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों का समूहन होता है। राजनीतिक नेता,
दल, आनुषंगिक संगठन, सामाजिक समूह,
वर्ग तथा जनता राजनीतिक सम्बन्धों के
महत्त्वपूर्ण घटक हैं। विशेषतः राजनीतिक नेतृत्व की कला इन सम्बन्धों को एक
विवेकपूर्ण, सोद्देश्य
अन्तक्र्रिया, एक संगठित इकाई
के रूप में बदल लेने में है। इसके अतिरिक्त स्वभाव-आदत में लचीलापन, समय-प्रबंधन, दूरदर्शिता, मत-निर्माण की
क्षमता, लोकप्रियता, प्रेरकत्व, छवि-निर्माण की योग्यता आदि को सिरजने में है। लेनिन ने एक
अच्छी बात कही थी कि एक नेता में ‘सामयिक महत्त्व
के उग्र नारे’ को गढ़ने की
क्षमता होनी चाहिए। यह सचाई है, इस समय ऐसे सक्षम
नेता का पूर्णतया अकाल है, नेतृत्व का गाढ़ा
संकट है। वैचारिकी और विचारधारा के घालमेल ने सांस्कृतिक भूगोल का नक़्शा ही बदल
दिया है। हम अपनी उम्र के हिसाब से युवा हैं, लेकिन हमारी दखल, पैठ और हस्तक्षेप प्रभावकारी नहीं है। हमारे पास युवा नेताओं की लम्बी
फेहरिस्त है, लेकिन उनमें आम
युवाओं का चेहरा बिंबित-प्रतिबिंबित नहीं है। मोदी और योगी हाल के दिनों में अपवाद बनकर क्षितिज पर चमक रहे हैं। लेकिन इस चमक से कितने घरों में सूर्योदय होता है, कितने भारतीयों की वर्षो की आसरा पूरी होती है, कितने युवाओं को रोजगार मिलते हैं। विकास अंततः भारत का उन्नयन किस तरह और किस दिशा में करता है कि सवा अरब से अधिक की आबादी अपने को शोषित, पीड़ित, वंचित, बहिष्कृत न समझे; अभी यह देखना बाकी है। किन्तु उम्मीद इन्हीं राजनीतिज्ञों से है, फिलहाल यह भी तय है।
युवा राजनीतिक
संचारक: सम्प्रेषणीयता का संकट
हर विचार की अपनी एक कार्यिक संस्कृति होती है, यह हमें पता है। हम जानते हैं कि ‘‘कोई भी विचार वायवीय नहीं होता। इसके भीतर
हमारा जीवन स्पंदित होता है। अतः प्रचलित रूपों में इस जीवन को किसी फैशन के
अन्तर्गत वर्गीकृत कर पाना संभव नहीं है। वस्तुतः जब एक विचार मूर्त रूप लेता है
और मनुष्य को उसकी स्वतंत्र आकांक्षाओं से जोड़ते हुए उसे सामाजिक कर्म में संलग्न
करता है तो वह विचारधारा का रूप ले लेता है। इसी कारण मनुष्य अपने कर्म उद्योग से
जुड़ते हुए न केवल एक सामाजिक सत्ता ग्रहण करता है, बल्कि विचार प्रक्रिया में जीवन को संचालित करने का हुनर भी
अर्जित कर लेता है। यही हुनर शब्द की सत्ता के साथ अपने रिश्ते को जोड़ते हुए
साहित्य, कला विज्ञान इत्यादि की रचना
करते हैं। दरअसल, ‘‘हर समाज की अपनी
शब्दावली होती है। सभ्य समाज में वह शब्द प्रचलन से बाहर हो जाते हैं, खासतौर से लेखन से जो किसी वर्ग-विशेष की
भावनाओं से खिलवाड़ करते हों, उन्हें अपमानित
करते हों। सम्मान और समानता के खिलाफ़ रचे-बुने इन शब्दों को पकड़ना और समझाना बहुत
जरूरी है।’’7 राजनीति स्वयं
इसका बड़ा उदाहरण है। ‘‘अपने विचारों के
अनुरूप शब्द राजनीति में गढ़े जाते हैं और फिर मीडिया जाने-अनजाने उनका उपयोग करने
लगता है। वहाँ से जनता में भी ऐसे शब्द प्रचलित हो जाते हैं। शब्दों के प्रति
सजगता मीडिया से गायब होने लगी है। कभी-कभी तो साहित्य में भी ऐसे छिपे-दबे अर्थों
वाले शब्द दिख जाते हैं, जो बहुत खतरनाक
अर्थ प्रेषित करते हैं।’’8 कसी दृष्टिकोण या विचारधारा के सन्दर्भ में यह जान लेना
आवश्यक है कि यह कभी भी जीवन, समाज, संस्कृति से कट कर आकाश में लटकी नहीं होती। वह
इसी जीवन यथार्थ के बीच मानवीय समाज से बातचीत और उसके सपनों का लेखा-जोखा करते
हुए एक ऐसी दुनिया रचती है, जो सच और सुंदर
होती है, दुनियावी कुरूपताओं से
मनुष्य को बचाने का जतन करती है।’’
समकालीन सन्दर्भों से जोड़कर देखें, तो कला, साहित्य, विज्ञान, तकनीकी-प्रौद्योगिकी इत्यादि का उद्भव, विकास और निर्मिति दुर्लभ है। ये सभी मानवीय
चेतना, विचार-शक्ति और विचारधारा
की ठोस जमीन से पैदा हुई हैं; तभी वह
युगों-युगों तक मनुष्य जाति को रास्ता दिखा पाने में सक्षम हैं, और कामयाब भी। वर्तमान समय के सूचनाक्रांत इस
दौर की मूल कठिनाई युवा-जीवन के सामने है; वह इस दोराहे और द्वंद्व में फँसा है कि वह पुरानी पीढ़ी की किन बातों और
आचरणों को स्वीकार करे और किनको त्याज्य मान ले। दरअसल, युवजन को मार्ग दिखाने वाली विश्वसनीय संस्थाओं, समितियों, संगठनों, अकादमियों
इत्यादि ने अपनी जवाबदेहियों और प्रतिबद्धताओं से मुँह फेर लिया है अथवा
अप्रत्याशित ढंग से वह अपने निकम्मेपन का भौड़ा चेहरा प्रदर्शित कर रही हैं। समाज
अनुशासित सन्मार्ग और प्रगतिशील मूल्य दिन-ब-दिन कमते जा रहे हैं, तो मनुष्यता की सार्वभौमिक चेतना और दृष्टिकोण
मनुष्यजनित तथाकथित आधुनिक और उत्तर आधुनिक समस्याओं से बुरी तरह घिर चुकी हैं।
लिहाजा, आज की अधिसंख्य युवा पीढ़ी
राजनीतिक सामाजीकरण और राजनीतिक चेतना से दूर है। उनकी अभिवृत्ति और अभिरुचि में
राजनीतिक अभिप्रेरणा और सम्प्रेषण का सर्वथा अभाव है। यह भी कि युवजन के भीतर अपने
वर्तमान युग से वास्तविक साक्षात्कार का भाव, बोध, दृष्टि, स्वप्न, कल्पना इत्यादि गायब हो चले हैं। देखने में यह भी आ रहा है
कि सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था-निर्माण में सहयोगी इकाइयों का स्वयं अपने ऊपर
नियंत्रण, अनुशासन अथवा स्वनियमन
नहीं हैं।
आज अधिसंख्य युवा-पीढ़ी अपने भूत के कालपक्ष से अनभिज्ञ है,
तो समकालीन के प्रति वह सचेष्ट, समर्पित और चेतस होने की बजाए दिग्भ्रमित और
आभासी सम्मोहन में ऊब-चूब करती दिखाई दे रही है। दूषित एवं संक्रमित इस वातावरण और
परिस्थिति में भारतीय युवा-पीढ़ी के समक्ष मुख्य चिंता अपनी पहचान और अस्मिता को
लेकर है; जो परत-दर-परत लगातार ऊखड़
रही है। आज शहरी युवजन बड़ी मात्रा में ब्रेकअप, तनाव, चिंता, कुंठा, अवसाद, निराशा, हताशा, आक्रामकता, आक्रोश, अकेलापन, अजनबीयत, टूटन आदि के
शिकार अथवा भुक्तभोगी हैं। वहीं गाँव-कस्बे या छोटे शहरों का युवा ‘थिंक टैंक’ का हिस्सा नहीं है। वह परिधि से बाहर है, केन्द्र तक उसकी पहुँच के बारे में सोचना भी
भयावह है। इनमें से कुछ कर्मठ युवा, प्रतिभाशाली लड़कियाँ टैलेंट हंट या कि रियलिटी शो का हिस्सा बनकर आपको यदा-कदा
टेलीविज़न पर दिख भी जाएँ, तो यह बाज़ारवादी
खेल का मुनाफ़ाखोर चारा है जिसका लाभ संयोगन उन युवा प्रतिभाओं को मिल जाया करता है
जिसे ‘लैपटाॅप’, ‘स्मार्टफोन’, ‘साईकिल’ देने का वादा आज
की राजनीति करती है। (वह देती कितनों में कितने को है, यह भी देखा जाना चाहिए) चुनाव के ठीक बाद इसका मंगलाचरण
गाया जाता है, फिर तत्काल एक
झटके से पूर्णाहुति। सुशासन का राजनीतिक टैग चहुँओर चमकता है जबकि प्रांत-प्रदेश
का मेधावी युवा सूरत, लुधियाना,
जालन्धर, मुम्बई आदि शहरों में मर-खप रहा होता है। सचमुच, आम युवा वंशवादी कपोत नहीं है; उसे अपने थाली, लोटे, चूल्हे, राशन, दो-जून, शिक्षा, स्वास्थ्य, घर, परिवार आदि के
लिए स्वयं मरना पड़ता है। भारत में आमजन की पीड़ा को भरमाने का एक ‘पाॅपुलर’ दर्शन है-‘बिना अपने मरे
स्वर्ग नहीं मिलता है।’ आज हमारे समय की
युवा-पीढ़ी इसी स्वर्ग की चाह में नधायी है। वह घोर अंधविश्वासी, ढपोरशंखी, कर्मकांडी, अकर्मण्य,
किंकर्तव्यविमूढ़ होती जा रही है। उनके
व्यक्तित्व-व्यवहार और मनोदैहिक कार्यकलाप में काफी असंतुलन है। लिहाजा, राष्ट्रीय कर्तव्य और जवाबदेही से वह दूर भागने
को अभिशप्त हैं।
मनोविज्ञानियों की मानें, तो कम उम्र में ही नशे की लत, व्यवहार में अटपटापन, बोलचाल में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग, असभ्य आचरण, परम्परा एवं संस्कृति के प्रति उपेक्षाभाव, अपराध-वृति, हिंसक रवैए, दुष्कर्म जैसे
जघन्य कृत्यों में संलिप्तता युवा-मनोवृत्ति के परेशानहाल होने का सूचक है और उनके
जीवन-व्यक्तित्व के मुश्किल और जटिल होते जाने का परिचायक। मनोसमाजविज्ञानियों की
राय में, आजकल यह व्यक्ति-विशेष की
बीमारी अथवा रोग नहीं है; अपितु पूरे समाज
के अन्दर इसने एक ‘व्यवहारगत समस्या,
मनोवृति एवं प्रवृत्ति’ का रूप ले लिया है। थोड़ी तफ़्तीश के लिहाज से इस उम्र के
युवाओं की पृष्ठभूमि पर नज़र डालें, तो यह युवा पीढ़ी
जिन शैक्षणिक स्थनों से शिक्षित हो रही हैं या जो संस्थान इन युवाओं का भवितव्य
बनाने में अहिर्नश जुटे होने का दावा करते दिख रहे हैं; इन समस्याओं की जड़ और जद में वे स्वयं भी आते हैं। यानी जिस
युवा पीढ़ी को शिक्षित और जागरूक बनाने के लिए नामी-गिरामी सरकारी एवं गैर-सरकारी
संस्थाएँ-अकादमियाँ इन युवाओं से मोटी रकम पढ़ाई के नाम पर ऐंठ/वसूल रही हैं;
वह खुद बीमार और लकवाग्रस्त हैं। कहा जाता है
कि अध्ययन-अध्यापन और अध्यवसाय की प्रवृत्ति विकसित करने में छह मानसिक-शक्तियाँ
मददगार होती हैं: 1) आशा, 2) उत्साह, 3) साहस, 4) व्यवस्था,
5) मनोयोग और 6) प्रसन्नता। किन्तु मौजूदा दौर आर्थिक पराक्रम,
देहवाद और अपसंस्कृति को खुली छूट देने का
समर्थक है। भूमंडलीकृत बुद्धिवादियों ने जड़ता-मुक्ति का नारा दिया है। उसका
विद्रुप यह है कि प्रवासी चेतना से ग्रस्त ये बुद्धिजीवी अब किसी भी चीज को सत्य,
संगत और सम्यक् मानने को तैयार नहीं हैं। उनकी
दृष्टि में व्यक्तिवादिता और चरम उपभोग ही वरेण्य है, शेष सभी तुच्छ या ख़ारिज करने योग्य। (यानी धड़ल्ले से कोक
पीजिए, ‘डाॅन्ट माइन्ड’ केएफसी का चिकेन खाइए)
भारत में जबर्दस्त संकट यह भी है कि माक्र्सवाद की हवा
बाँधने वाली विचारधारा के सारे प्याऊ स्वयं प्यासे हैं, उनके पास जनाधार के नाम पर नील-बट्टा-सन्नाटा है। नतीजतन,
भूमंडलीकृत राष्ट्र-प्रबंधकों का आभिजात्य-समूह
अपसंस्कृति के इज़ाफे द्वारा पारम्परिक जीवन-मूल्यों और सामाजिक बोल-बर्ताव की
स्वाभाविकता को नष्ट कर देना चाहते हैं। विशेषतया वे नई पीढ़ी को चेतस, मानवीय, उत्सवधर्मी और शांतिपूर्ण तरीके से सम्यक् जीवन जीने का
संकल्प-सूत्र नहीं प्रदान कर रहे हैं। उनकी असली मंशा उपभोगवादी प्रवृत्तियों को
येन-केन-प्रकारेेण प्रश्रित करना मात्र रह गया है। समग्रतः मनुष्य को एक उपभोक्ता
के रूप में वैश्विक बाज़ार का खरीदार साबित करते इस नवसाम्राज्यवादी अल्पतंत्र का
लोकप्रिय नारा है: ‘^eat, merry and be happy*’। यद्यपि ‘‘सामाजिक संरचना
में ऊपर की तरफ जाने का सपना कोई बुरी चीज नहीं है, महत्त्वाकांक्षा का होना कोई बुरी बात नहीं है; लेकिन, आज किसी तरह से मशहूर होने की ललक बहुत तेजी से बढ़े हैं। उसके लिए अपेक्षित
मेहनत करने से सब बचना चाहते हैं। सोशल मीडिया के अनेक माध्यमों ने आज युवाओं के
सामने अपनी प्रतिभा को रखने और उसकी बदौलत प्रसिद्धि पाने के अनेक अवसर सुलभ करवा
दिए हैं।’’9 भारत के पूर्व
मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नैय्यर का भूमंडलीकरण को लेकर की गई टिप्पणी अत्यंत
समीचीन है, ‘‘1980 के दशक के बाद
से तमाम भौतिक प्रगति के बावजूद दुनिया भर के लोगों के बीच गैर-बराबरी काफी ज्यादा
बढ़ी है। पिछले ढाई दशक का यह दौर भूमंडलीकरण यानी ग्लोबलाइजेशन का है जिसने लोगों
पर काफी असर डाला है। बेशक कुछ के लिए इसने अवसरों के द्वार खोले हैं और पूँजी
बढ़ाई है; पर ज्यादातर के लिए यह
बेरोजगारी और गरीबी लेकर आया है। इसमें विजेता कुछ ही हैं, मगर गँवाने वाले अधिक। हर उभरती अर्थव्यवस्था में मध्यवर्ग
और ‘सुपर रिच’ एवं ‘अल्ट्रा रिच’ यानी अत्यधिक
धनाढ्य लोग विजेता बने हैं, तो औद्योगिक
देशों में गरीब एवं हाशिए के लोग वंचितों में शामिल हैं। भले ही भूमंडलीकरण इसकी
एकमात्र वजह न हो, मगर यह एक ऐसा
कारक जरूर है जिसे नजरअंदाज कतई नहीं किया जा सकता।’’10
युवा राजनीति: विकल्प
की खोज एवं दिशा
रहवास की दृष्टि से भौगोलिक-भूभागीय विभाजन न भी करें,
तो मानव जाति की विविध समस्याएँ रही हैं और
संस्कृतियाँ भी। हर समाज अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की स्मृति अपने ढंग से जीवंत
रखता है जो संस्कार, संकल्प, आचरण, चरित्र और व्यवहार के विविध रूपों में परिलक्षित होती हैं। यही स्मृति
आकांक्षा और सर्जना के विविध पुरुषार्थों का आधार बनती हैं। भारतीय सन्दर्भ में यह
कहना उपयुक्त होगा कि-‘‘भारतीय बुद्धि और
मन की संरचना ही ऐसी है जो यूरोप की सभ्यता से मेल नहीं खाती है। भारतीय मानस और
उसके अंगभूत भारतीय व्यक्ति के निजी मानस की स्वाभाविक संरचना, संस्कार और बोध-प्रवृत्ति ही ऐसी है कि भारतीय
जन स्वभावतः एक ऐसे विश्व में रहने को तैयार नहीं हो पाते, जिसमें विभिन्न मानव-समूहों या विविध क्षेत्रों के लोगों के
मध्य परम्परा, वैर-भाव एवं
युद्ध-स्थिति एक स्थायी लक्षण हो। भारतीय सभ्यता एवं धर्मग्रंथ लड़ाई-झगड़ों तथा
अन्य उपद्रवों का साक्षी है तब भी वैर-भाव या युद्ध-भाव को नित्य मानने की कल्पना
भारतीय मन नहीं कर पाता। सबका सह-जीवन, सह-अस्तित्व अपने सम्पूर्ण वैविध्य, समस्त बहुरूपता एवं रूप-भेद, गुण-लक्षण,
क्रिया-भेद के साथ अपने-अपने स्थान पर अंततः
प्रतिष्ठित हो यही भारतीय मानस का स्थायी भाव है।’’11 (इनके साथ प्रगतिशील मूल्य और आधुनिकता-बोध
जोड़ने की जरूरत अवश्य है) इसके विपरीत ‘‘पश्चिमीकृत नक्शेकदम को आत्मसात करने वाले नवप्रबृद्ध लोगों की यह धारणा आज तक
बनी हुई है कि भारतीय संस्कृति की एक ऐसी व्याख्या और छवि प्रस्तुत की जाए कि
आधुनिक यूरोपीय संस्कृति का एक ‘टुल्स’ (औजार) बनने में भी उसकी प्रासंगिकता और
सार्थकता स्पष्ट नज़र आए। इस प्रकार भारतीय संस्कृति, आधुनिक यूरोपीय संस्कृति के एक सक्षम सेवक या परिष्कृत औजार
के रूप में रूपांतरित और व्याख्यायित कर दी जाए तथा इसी में उस संस्कृति का गौरव
और धन्यता मानी जाए; यह योजना रही है।
इसके लिए रची गई संस्थाओं और व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव हुआ और हमारे समर्थ
सपूतों और सुपुत्रियों तक में उसके प्रभाव में देखे जा सकते हैं।’’12
आजकल ‘रोड शो’ में हम जिन वंशवादी कपोतों का चेहरा देखने का
आदी हैं वे युवा राजनीतिज्ञ अपने इतिहासबोध, परम्परा और विरासत से पूरी तरह कटे हुए हैं। वे अपनी ही छवि
के बंदी हो गए हैं। उनके पास न तो उपयुक्त संचार-क्षमता है और न ही संचार-दृष्टि।
भारतीय राजनीति में शामिल अधिसंख्य युवा राजनीतिज्ञ ‘शासक होने’ की इच्छा और ‘शासन करने’ का अधिकार ले कर राजनीति में अवतरित होते हैं; युवा राजनीतिज्ञ के रूप में जनता के सामने अपनी
सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज कराते हैं। जबकि लोकमानस को लेकर भीतरी तड़प नहीं है।
मानव-संवेदना से जुड़ी हूक-टीस-कसक नहीं है।
सामूहिकता-बोध का न तो उचित बोध है और न ही उसका हृदयस्पर्शी संज्ञान। उनकी
संवेग-प्रणाली एवं चित्तवृत्त इस कदर संज्ञाशून्य है कि देशी-भूगोल में घट रही
घटनाओं पर उनकी एक प्रतिक्रिया तक दर्ज नहीं होती। हम बुद्ध की करुणा का अक्सर बात
करते हैं जबकि हमारा जनसमाज करुणा और वेदना दोनों से ही दूरी बरतता जा रहा है।
मनुष्य में ‘मैं-पन’ का अहम इतना अधिक है कि ‘स्वाधीनता’ और ‘स्वराज्य’ जैसे विशिष्ट प्रत्यय पीछे छूटे गए हैं। यह विडम्बनापूर्ण
स्थिति भारतीय युवा राजनीतिज्ञों के कूपमण्डूक होते जाने का संकेतक है। जबकि
राजनीति का अर्थ-आशय है-देशकाल-परिवेश का समयानुकूल बोध और बोधानुकूल परिवर्तन की
सचेतन चेष्टाएँ। आज राजनीति में सक्रिय युवा-नेतृत्व सत्ता में, तो हैं लेकिन उनमें युवा सम्बन्धी शीलगुण एवं
मूलप्रवृत्ति ईमानदर नहीं है। यथा: अखिलेश यादव, राहुल गाँधी, सचिन पायलट, पूनम महाजन,
पंकजा मुंडे, नवीन जिंदल, तेजस्वी यादव,
चिराग पासवान, नारा लोकेश, संदीप आदि। ‘‘आज परम्परा को लगभग जड़ मान लिया गया है और
विकास को गत्यात्मक। विकास की अवधारणाओं में परम्परा का स्थान लगभग नगण्य है,
जबकि परम्परा से अधिक गतिशील कुछ और नहीं। वह
सदियों से आकार लेती हुई आज तक पहुँची है।’’13
अंततः निष्कर्ष
आधुनिक भारतीय राजनीति विडम्बनाओं का कोषागार बना हुआ है
जिसमें अनगिनत षड़यंत्र चैबीसों घंटे संचालित है। यह जानते हुए भी कि षड़यंत्रों की
जरूरत तो उनको होती है जो अपने असली उद्देश्यों को जनता से छिपाते हैं; जो अपने ऐतिहासिक अधिकारों और कर्तव्यों से
अनभिज्ञ होते हैं और जिन्हें प्रायः कुत्सित प्रयासों का सहारा लेना पड़ता है।
दरअसल, भारतीय राजनीति में
पद-प्रतिष्ठा की महिमा अपरंपार है, यश-सम्मान की भूख
जबर्दस्त है। प्रत्यक्ष और परोक्ष ढंग से पूरे नागरिक समाज की मानसिकता पर यह
मनोवृत्ति काबिज़ हो चुकी है। मूल्यतः अधिसंख्य राजनीतिज्ञ न तो मनस्वी हैं और न ही
मसिजीवी। आन्तरिक संस्कार तिरोहित हो गए हैं, तो उनकी राजनीतिक वैचारिकी रुग्ण तथा मूल्यहीन मालूम देती
है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य के बिगड़े सम्बन्ध ने भारत की चिरन्तन-दृष्टि और
लोक-सत्ता की अंतःवृत्ति को त्याज्य बना दिया है। विशेषतया यूरोपीय-अमेरीकी
शिक्षा-नीति द्वारा प्रशिक्षित युवजन अधिक धनलोलुप, स्वार्थी और नितांत व्यक्तिवादी हैं। अभिजन-संस्कृति में
पेनाही वर्तमान भारतीय राजनीति में शामिल अधिसंख्य युवा राजनीतिज्ञ इसी ‘कैटेगिरी’ में शामिल-शुमार हैं। उनमें जनपक्षीय मुद्दों, समस्याओं, आन्दोलनों, प्रतिरोधों आदि
से लगाववृत्ति न के बराबर है, तो जनसमूहन की
क्षमता और राजनीति की ज़मीनी समझ निरर्थक है। नतीजतन, लोकतांत्रिक भ्रष्ट्राचार, दहशतगर्दी और अराजकता से आहत/पीड़ित जनमानस आज हर उस व्यक्ति
का पाँव पूजने खातिर तैयार है जिसे येन-केन-प्रकारेण महिमामंडित किया गया हो;
प्रचार के बलबूते स्थापित किया जा चुका हो।
यद्यपि भारतीय राजनीति में राजनीतिज्ञों का कद तेजी से घटा है; लेकिन उनकी ‘पाॅपुलरिटी’ में अप्रत्याशित
ढंग से बढ़ोतरी हुई है। भाट-चारण और चरण-वंदना करने वालों की पूरी खेप उगाई गई है।
उन्हें धनबल-बाहुबल के सहारे चहुँओर पसरने और अनैतिक ढंग से प्रभाव जमाने का मौका
दिया गया है। अधिसंख्य नेताओं की राजनीतिक उपलब्धियाँ शून्य है, किन्तु सरकारी खजाने से प्राप्त होने वाली
सुविधाएँ बेशुमार है। विडम्बना यह है कि आम-आदमी की राजनीति का ख़म ठोंकने वाले
राजनीतिज्ञ तक बौने साबित हो रहे हैं। उनके हुंकार-गर्जना में शब्द-तत्त्च हैं,
किन्तु अर्थतत्त्व गायब हैं। माननीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत अन्य नेता जिनकी वाग्मिता या कहें वक्तृता से
जनता प्रभावित है वह अब शाब्दिक-व्यवहार के स्थान पर अशाब्दिक अभिनय अधिक कर रहे
हैं। (रेघाकर बोलना, यकायक रूकना,
आँखे नचाना, गुप्त संकेत करना, लक्षणा एवं व्यंजना की शैली अपनाना, बार-बार बोलने का लहजा बदलना आदि) इस कारण उनकी सीधी कार्रवाई में एक अलग
किस्म की अराजकता अथवा अस्थिरता दिखाई पड़ रही है। शहरी जनचेतना को स्मार्ट-कवरेज
देने का आदी हो चुकी केन्द्र-राज्य सरकारें रोड-शो को जनमत-निर्माण का जरिया मान
बैठी हैं; जबकि बहुसंख्यक ग्रामीण जनता का स्मार्ट क्या
सामान्य जिंदगी जी सकना भी मुहाल हो गया है। सरकारी कानून-व्यवस्था की स्थिति इतनी
दूभर है कि आप रोए या छाती पीटें किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगने वाला।
यह सही है कि, ‘‘प्रत्यक्ष जनतंत्र या जनता की सीधी भागीदारी वाले जनतंत्र की ओर कदम जितने बढ़े
उतना अच्छा; लेकिन हर संभावना
की एक संगत सीमा होती है; यह नहीं ओझल होना
चाहिए। प्रत्यक्ष जनतंत्र कहीं भीड़तंत्र न हो जाए जिसमें विभिन्न टकराते हितों को
मर्यादित और संतुलित करने वाली संस्थाएँ गौण हो जाएँ और बहुसंख्यकवाद तांडव करने
लगे।’’ ऐसी स्थिति वर्तमान
लोकतंत्र में प्रभावी होती दिख रही है। कारण कि राजनीति की प्रभु-शक्ति और मीडिया
की परामर्श-शक्ति दोनों मिलकर अब तक जिस ‘प्रभाव शक्ति’ का निर्माण करती
रही हैं; वह आज अनुपस्थित है। इनकी
जगह भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद,
बाजारीकृत संस्कृति, नवसाम्राज्यवादी आक्रमण आदि का यत्र-तत्र-सर्वत्र बोलबाला
है। आदिम आकांक्षा की लोकराग अब अतिमहत्त्वाकांक्षा का वेश-भूषा धारण करती जा रही
हैं क्योंकि मूल्य-निर्माण और मूल्य-निर्णय में जुटी वैचारिक संस्थाएँ; यथा-संगठन, अकादमी, दल, पक्ष, गण, समूह, समुदाय, सम्प्रदाय आदि ने अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा को जाने-अनजाने
नष्ट-विनष्ट कर दिया है। कठिनाई की इस संकटपूर्ण घड़ी में अपने मूल्यों को संजोना
सबसे बड़ी चुनौती है। अतः पूँजीवादी विचारधारा से संचालित राजनीतिक चेतना का आलोचनात्मक
अध्ययन होने चाहिए। यह पता किया जाना चाहिए कि देश की कुल आबादी में 55 करोड़ युवा हैं, तो विकास का नारे गढ़ने वाले बूढ़े क्यों? क्यों सुनी जाए हुंकार-गर्जना उनकी जिनके गर्दन
के ऊपर के बाल सफेद होने को हैं? हम उन वंशवादी
कपातों का साथ क्यों पसंद करें जिनकी जोड़ियाँ चुनाव के ऐन-मौके पर बनती हैं?
सवाल जिज्ञासा शांत करने के लिए ही नहीं,
जिरह के लिए भी खड़े किए जाने चाहिए।
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1.
राईल, गिलबर्ट; (अनु.) थोरात, (डाॅ.) सुरेश कुमार; ‘मन की अवधारणा’; वाईटल प्रकाशन; जयपुर; संस्करण: 2010; पृ. 14
2.
कुमार, (सं.) वीरेश; ‘रामधारी सिंह दिनकर: संकलित निबन्ध’; एन. बी. टी. प्रकाशन;
नई दिल्ली; आवृत्ति: 2010; पृ. 47
3.
धर, प्रांजल; इतिहासबोध; अप्रैल, 2006; पृ. 41
4.
‘सूचना सम्प्रेषण एवं
राजनीतिक सहभागिता’ शीर्षक आलेख के पृ. 101 पर उद्धृत
5.
दुबे, (सं) संजय; तहलका; 31 मार्च, 2012; पृ. 32
6.
सिंह, जयपाल; चैपाल; जनसत्ता; 21 अक्तूबर, 2010
7.
अख्तर, शकील; ‘शब्दों के राजनीतिक अर्थ’; जन मीडिया; अक्तूबर, 2015; पृ. 22
8.
वही; पृ. 22
9.
प्रभात रंजन; प्रभात ख़बर; 12 जनवरी, 2017
10.
हिन्दुस्तान; 12 नवम्बर, 2016
11.
धर्मपाल; ‘भारत का स्वधर्म’; वाग्देवी प्रकाशन; बीकानेर
12.
धर्मपाल; ‘भारत का स्वधर्म’; वाग्देवी प्रकाशन; बीकानेर
13.
मंडलोई, लीलाधर; सम्पादकीय; नया ज्ञानोदय; जनवरी, 2016; पृ. 5
............................................
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