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अजनबी भाषा के तौर पर अंग्रेजी में लिखना और बोलना यदि हमारे राष्ट्रीय चरित्र का प्रमाण-पत्र हो सकता है, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूँजीवादी ताकतों द्वारा भारतीयता का प्रचार जिस तरीके से किया जा रहा है; वह ग़लत कैसे है...इस कुतर्क पर संवेदनशील होकर विचार करना आवश्यक है।
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राजीव रंजन प्रसाद
भारत
की धार्मिक मान्यताएँ अतिप्राचीन हैं, इसलिए उनके पूरे सच होने की गारंटी नहीं दी
जा सकती है।
लोकमान्यता है कि भारतीय
मनीषा पंचस्कन्ध से
पूरित थीं। यह धार्मिक
विलक्षणता पंचस्कन्ध (देशगत,
कालगत, आकारगत, विषयगत
और गतिगत) कहे
गये हैं। ध्यान देने
योग्य बात यह है
कि इनकी प्राण-प्रतिष्ठा
बाहरी व्यक्तियों ने नहीं की; क्योंकि
उनकी चिंतन-दृष्टि अलग थी, मानसिकता और सोच भिन्न थे। वह भारतीय जीवन-पद्धति से जीने वाले, शुद्ध आचरण करने वाले और उचित बोल-व्यवहार से शान्तिपूर्वक जीवन बिताने वाले लोग
नहीं थे। इस तरह उनकी चारित्रिक निष्ठा संदिग्ध थी।
जबकि पंचस्कन्ध के उद्घोषक वर्ण-व्यवस्था
को सामाजिक जकड़बन्दी का
पर्याय मानते थे। उनके
लिए जो सर्वोपरि था;
वह था-सत्य, अहिंसा,
आस्तेय, दान, भूतदया, ब्रह्मचार्य, दयालुता, करुणा, धैर्य,
क्षमा आदि। इन सभी
शाश्वत-भावों से पूर्ण
मनुष्य को भारतीय ऋषि-मुनियों
ने ‘क्षुब्ध योनि’ माना
है। ये लोग सत्य
जानने के आग्रही थे,
प्रकृति के नैसर्गिक क्रियाकलाप
को समझने को व्याकुल।
ऐसे संतमना लोगों के
लिए संपत्ति-अर्जन
का अर्थ क्षुधापूर्ति तक
ही सीमित था। सामान्य
जन जैसे दिखते व्यक्ति
में असाधारण योग्यता, कुशलता
या कहें प्रतिभा हो
सकती है; वे बड़े
दार्शनिक और महान विचारक
हो सकते हैं; यह
आज के ‘फैशनेबुल’ तथा
‘माॅडलिंग’ वाले ज़माने के
लिए भले आश्चर्य का
विषय हो, प्राचीन जनसमाज
में यह एकदम आम
बात थी। इसके पीछे
के तथ्य को उद्घाटित
करते हुए प्रो. शिवदत्त
ज्ञानी कहते हैं, ‘‘प्राचीन
काल में अन्न, वस्त्र
आदि बहुत ही सरलता
से प्राप्त होते थे।
इसलिए यहाँ के निवासी
जीवन के अन्य पहलुओं
पर भी अच्छी तरह
से विचार कर सके।
पेट खाली रहने पर
ईश-भजन भी नहीं
सूझता। भरपेट खाने पश्चात
यहाँ के निवासी जीवन
की पहेलियों को
सुलझाने लगे; जीवन-मरण,
जीव- ब्रह्मा, जगत
आदि सम्बन्धी प्रश्न
उन्हें क्षुब्ध करने लगे।
परिणामतः इस दिशा में
अथक प्रयत्न किए गए,
जिनको हम उपनिषादि दार्शनिक
ग्रंथों के रूप में
देख सकते हैं।“ (प्रो. शिवदत्त
ज्ञानी, ‘भारतीय संस्कृति’, पृ. 15)
महावीर,
बुद्ध, कबीर, गाँधी, आम्बेडकर ने इसी परम्परा
का अवगाहन किया है।
यही नहीं संत रविदास
चर्मकार जाति का प्रतिनिधित्व
करते थे। बाबा चैहरमल
पासवान जाति के लिए
वीर पुरुष की हैसियत
रखते थे जबकि कर्पूरी
ठाकुर अत्यंत पिछड़ी हज्जाम
बिरादरी से थे। इन
सबमें सामाजिक उत्थान और
परम्परा-विकास की चेतना
थी। ई.पू. 200 ई.
के लगभग वर्णवादी, मनुवादी
सोच अथवा संकीर्णता का
नामोनिशान तक नहीं था।
हुआ यह कि भारतीय संस्कृति से कटुता रखने वाले कुछ वर्ग-विशेष ने स्वयं को
हाशिए पर जाते देख
सामाजिकता का एक नवकेन्द्र
स्थापित करने में जुट
गए। सबसे पहले उन्होंने
खुद को आर्य घोषित
किया और बाकियों को
अनार्य की कोटि में
डाल दिया। चूँकि महान,
सिद्ध और विचारक पुरुष
क्षमाशील होता है; इस
कारण समाज में स्थापित
ये नव-केन्द्र उत्तरोत्तर
दृढ़ होते चले गए।
इन नवकेन्द्रवादियों का
पहला ध्येय संपत्ति-संग्रहण
था। छल-बल-कल
के माध्यम से इन्होंने
एक सामन्ती समाज का
गठन किया जिसमें शामिल
अधिसंख्य लोग आभिजात्य थे।
भारत की जिस ज्ञान-परम्परा
को कल तक अपौरुषेय
माना जाता था, वैदिक
अनुष्ठानों में प्रकृति को
वरीयता प्राप्त थी उन्हें
मनुवादी सामन्तों ने
हथिया लिया अथवा जबरन
अपने पुरुषार्थ का
विषय बना लिया। वर्णाश्रम
की उत्पत्ति इसी
जगह से हुई जिसका
बाद में विस्तार होता
चला गया। यह मानी हुई बात है कि सत्ता
जिसके कब्जे में होती है, जनता में तूती उसकी ही बोलती है।
आज के उदाहरण से देखें तो बाज़ार में जिन कंपनियों का दखल होता है वह हमेशा अपना
एकाधिकार कायम रखना चाहती हैं। ये चालाक बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अक्सर हमारी भाषा, हमारे वेश-भूषा, हमारे सांस्कृतिक तौर-तरीकों, हमारे पारम्परिक पर्व-त्योहार आदि को सामूकि रूप से अपने पैसे से सेलीब्रेट करती
हैं,
एक इवेंट के रूप में आयोजन करती हैं जबकि वास्तव में इसके पीछे
उनका ‘हिडेन एजेंडा’ काम कर रहा होता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों
के आगे हमारे उद्योग-धंधे, हस्तशिल्प, हुनर,
काश्तकारी, कारीगरी आदि नष्ट-विनष्ट होते
चले जाते हें। अब चूँकि इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से हमारा खुद का बड़ा लाभ जुड़ा है, इसलिए हम उनके प्रभुसत्ता को मानने को बाध्य-विवश हैं। हमें अपने आन्तरिक विकास
के लिए थोकमात्रा में धन अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से प्राप्त हो रहा है और
ये वित्त संगठन सबसे अधिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रभाव में है इसलिए हमारी चुप्पी
हर तरह से हमारा बचाव कर डालती हैं। इसीलिए आज ‘स्वदेशी’की माँग खटाई में हैं और इस तरह हम उपभोक्तावादी और उपयोगितावादी
प्रवृत्तियों के साये में जी और सांस ले रहे हैं।
आज की यही स्थिति पुराने ज़माने में तब पैदा हुई जब समूह-समाज के शक्तिशली-सामन्ती
वर्ग अपनी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए आमजन के साथ भेदभाव करने लगे। खलकलुष प्रवृति
के सामन्तदारों और प्रभुसत्ता के नवासियों ने अपने में आस्था
और विश्वास नहीं रखने
वाले लोगों को खुद
से भिन्न बताना शुरू
कर दिया। उन्होंने उनको
अपनी शब्दावली में
‘क्षुद्र’ कहा जो अपनी
व्यक्तिगत समृद्धि और शक्ति
के बारे में नहीं
सोचता है बल्कि सामूहिकता
में विचार करता है।
यानी वह इंसान जो
अपनी पेट-पूजा या
कि परिवार के भरण-पोषण
तक की ही जरूरत
को प्राथमिकता देता
है; ‘साईं इतना दीजिए
जामे कुटुम्ब समाए’ की
धारणा जिसमें प्रबल होती
है। आज तक प्रचलन
में यही अवधारणा बनी
हुई है जिसे बनाये
रखने में वर्णाश्रमियों का
योग सर्वाधिक है।
मनुपूजकों ने आरंभ से
ही वर्ण-व्यवस्था को
लेकर कठोर कानून बनाए
और उसे जबरन सामाजिक
स्वभाव का हिस्सा बनाने
को बाध्य किया। ये
लोग वर्ण-व्यवस्था के
उचित परिपालन को ही
वास्तविक श्रम-शक्ति कहते
थे जिसका विरोध करने
वाले को ‘असुर’ कह
प्रताड़ित किया गया।
कालांतर
में इसी जनसमाज को
‘शूद्र’ कहा जाने लगा
जो एक अपभ्रंश प्रयोग
है। प्रकृतिजीवी ‘शुद्ध’
जीवन व्यतित करने वाले
को समाज ने नानाविध
तरीके से ताड़ना-प्रताड़ना
दी है। उनकी योग्यता
का हनन किया है।
बिलावजह अपमानित किया। भारतीय
समाज की अनैतिक एवं
अमर्यादित इसी व्यवस्था अथवा
रूढ़ि के कारण ‘वर्ण-व्यवस्था’
का घनघोर पराक्रम चहुँओर
देखने को मिलता है
जबकि अतीत की स्मृति,
इतिहास की बोध-कथाएँ,
वेद-उपनिषदों के
मिथक कुछ और ही
कहानी बयां करते हैं।
वर्णाश्रमियों ने अपनी सत्ता
को सबसे ऊपर रखा
और अपने निर्णय को
सर्वोपरि माना। उनके अन्दर
कर्ता-भाव इस कदर
घर कर गया कि
सूर्योदय-सूर्यास्त, तिथि-वर्ष,
ग्रह-नक्षत्र सबपर इनकी
ही मनमानी चलने लगी।
वे अदृश्य भय का
प्रकोप दिखाकर लोगों की
जाग्रत चेतना को कुंठित
करने लगे। प्रकृतिपूजक समाज
जिसके लिए कण-कण
में ईश्वर की व्याप्ति
थी उन्हें अब खास
भवनों में स्थापित विशेष
पत्थरों को पूजने के
लिए बाध्य किया गया।
विरोध के स्वर को
वे ‘ईश्वर’ का
अपमान कह उन्हें दंडित
करने लगे। इस दंड
को एक आयोजन-अनुष्ठान
के अन्तर्गत निपटाने
की परम्परा विकसित की
गई जिसे ‘बलि-प्रथा’
नाम दिया गया। इसी
तरह स्त्रियों की
स्वतन्त्रता को बाधित करने
के लिए सती-प्रथा
का चलन शुरू हुआ।
इन विधि-विधानों के
पीछे सिर्फ एक ही
तर्क था जो मनुवादी
व्यवस्था का पूजक अथवा
उपासक नहीं है उसे
जीवित रहने का कोई
अधिकार नहीं है। यह
जानते हुए कि जो
अपने को कर्ता मानता
है वह स्वयं श्रीकृष्ण
भगवान की नज़रों में
‘दुर्मति’ है। आलोचक नामवर
सिंह इस प्रवृत्ति के
बारे में बात करते
हुए आचार्य हजारी प्रसाद
द्विवेदी के प्रिय श्लोक
को उद्धृत करते हैं-‘यत्रैवं
सति कत्र्तारमात्मानं मन्यते
तुयः/पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स
पश्यति दुर्मतिः।।‘
यह
आश्चर्यजनक किन्तु सचाई है
कि भरतीय दर्शन में
अन्तर्विरोध बहुत है। इस
हिसाब से भारत का
अद्धैत दर्शन दिलचस्प है।
यह सूक्ष्म है और
जड़ीभूत भी। वर्ण-व्यवस्था
इन दोनों का फलाफल
है। यह कथित ‘शूद्र’
जातियों का प्रताप है
कि भारत की संस्कृति
इन तमाम अन्तर्विरोधों के
बीच जीवित है; विकसनशील
बनी हुई है। आज
हम जिन्हें ‘शूद्र’
कह अपमानित कर रहे
हैं वे सदियों/सहस्त्राब्दियों से मानवीय, करुणामय,
क्षमाशील और उदात्तचित्त रहने वाले वे लोग हैं जो अपने जीवनयापन से अधिक की आय या कमाई को जुटाना-संग्रह
करना पाप समझते हैं। उनमें दान की प्रवृत्ति रही है। इसके विपरीत आभिजात्यवादी मानसिकता
के लोग अपनी बहादुरी का बखान और श्रेष्ठता का गान करने वाले रहे हैं। वही सामन्त और
रियासतदार हैं,
तो भाट और चारण भी। दरबारी विलासिता के पीछे यही लोग पागल रहते
हैं। इनको ‘वीआईपी कल्चर’ और ‘ब्युरोक्रेट स्टे्टस’ सर्वाधिक लुभाता है। आभिजात्य या
सामन्त प्रायः अपने को
सर्वश्रेष्ठ घोषित कर लेते
हैं। जबकि साधारण
होन विशेष होने से
श्रेयस्कर है। सचाई यही
है कि, ‘‘मनुष्य क्षमा
कर सकता है, देवता
नहीं कर सकता। मनुष्य
हृदय से लाचार है,
देवता नियम का कठोर
प्रवर्तयिता है। मनुष्य नियम
से विचलित हो जाता
है, पर देवता की
कुटिल भृकुटि नियम की
निरन्तर रखवाली करती है।
मनुष्य इसलिए बड़ा होता
है कि वह गलती
कर सकता है, देवता
इसलिए बड़ा है कि
वह नियम का नियंता
है।‘’ (दूसरी परम्परा की
खोज, नामवर सिंह, पृ.
110) यह सहमेल अथवा सह-अस्तित्व
आधुनिक मनुष्य की दृष्टि
में अटपटा जान पड़ेगा;
किन्तु हकीकत यही है
कि भारत के मूलवंशियों
पर घोर अत्याचार कर
आर्यों ने अपना एक
मनुवादी समाज बनाया जो
वर्ण-व्यवस्था का
निर्माता था और उसका
नीति-नियंता भी।
यह
कितनी अजीबोगरीब बात
है कि ‘‘एक संविधान
स्वतन्त्र आर्यावत में मनु
ने रचा था; और
दूसरा देश के फिर
से स्वाधीन होने पर
डाॅ. अम्बेडकर ने
रचा। मनु के विधान
में अम्बेडकर के
लिए स्थान नहीं था,
या नहीं के बराबर
था जबकि अम्बेडकर के
विधान में मनु के
लिए पूरा स्थान है।“
मौजूदा सन्दर्भ में देखें,
तो ‘समरथ को नहीं
दोष गोसाई’ राग
अलापने वाली सत्तावादी जातियाँ
(कारपोरेट, कैपिटलिस्ट, हार्ड इलिट, सुपर रिच आदि) आज
अंग्रेजी पर कृपालु हैं
या उनको अपनाए जाने
की समर्थक हैं क्योंकि
उन्हें पता है कि
वे (सुविधा-सम्पन्न,
अमीर, धनाढ्य, पूंजीवादी
वर्ग....) प्रयत्नपूर्वक इसे
आसानी से सीख सकते
हैं जबकि देश की
करोड़ों-करोड़ जनता के
लिए यह आज भी
दूर की कौड़ी है।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था का
मौजूदा अधःपतन इन्हीं वर्चस्वशाली
जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र आदि को
अब भी भिन्न-भिन्न जाति मानकर
चलना औपनिवेशिक मानसिकता और पूँजीवादी कुचालों-षड़यंत्रों
का समर्थन करना है)
की देन है जो
कभी चाहती ही नहीं
थी कि पूरे देश
की जनता किसी ऐसी
सक्षम भाषा में दक्ष-प्रवीण
हो/बन सके जिसमें
सबके उन्नयन के लिए
खुले मार्ग हों; विकास
के समानधर्मा अवसर
हों या कि सभी
को एक ही जैसा
सम्मान-भाव बरतने का
मौका मिल सके। भाषा
में दुर्भावना कैसे
परिचालित होती है। इसका
सबसे अच्छा उदाहरण आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल का वह
कथन है जिसे नामवर
सिंह अपनी पुस्तक ‘दूसरी
परम्परा की खोज’ में
शामिल करते हैं, ‘‘योगियों
और निर्गुण सन्तों में
‘संस्कृत बुद्धि, संस्कृत
हृदय और संस्कृत वाणी
का विकास’ क्यों
नहीं हो सका इसका
कारण संभवतः शुक्लजी के
इस कथन में है
कि चैरासी सिद्धों में
बहुत से मछुए, चमार,
धोबी, डोम, कहार, लकड़हारे,
दरजी तथा और बहुत
से शूद्र कहे जानेवाले
लोग थे।....जो शास्त्रज्ञान
सम्पन्न न थे, जिनकी
बुद्धि का विकास बहुत
सामान्य कोटि का था।
शुक्ल जी के मत
से साहित्य की कसौटी
का आधार सामाजिक और
सांस्कृतिक है, लेकिन जो
‘सुसंस्कृत’ है उसकी गाली
भी साहित्यिक है,
लेकिन जो ‘असंस्कृत’ है
उसकी डाँट-फटकार भी
असाहित्यिक है। तुलसीदास यदि
अलख जगानेवालों को
‘नीच’ कहें तो वह
काव्य है लेकिन कबीर
का यह कथन अशिष्ट
गाली है-‘पांडे कौन
कुमति तोहें लागी/तू
राम न जपहिं अभागी’।
इस मान्यता के चलते
एक की दार्शनिक उक्तियाँ
काव्य हैं और दूसरे
की साम्प्रदायिक शिक्षा-मात्र।
क्या इसलिए कि एक
प्रभु वर्ग की ‘संस्कृति’
के पक्ष में बोलता
है और दूसरा उस
‘संस्कृति’ का विरोध करता
है?” आज संस्कृत के
स्थान पर इस मद
मे अंग्रेजी चूर
है जिसने बाज़ार पूँजीवाद
के बदौलत पूरे भारतीय
जनमानस के विवेक-बुद्धि
का अपहरण कर लिया
है। एकाधिपत्य की
नीति को बढ़ावा देने
वालों की नज़र में
अंग्रेजी ‘सुसंस्कृत’ भाषा
है जबकि भारत की
सभी राष्ट्र-भाषाएँ
‘असंस्कृत’ भाषा। स्मृतिभ्रंशता के मौजूदा दौर
में हमें अपने कारनामों
को हरगिज नहीं भूलना
चाहिए जिस नक्शेकदम पर
आज बाहरी (नवसाम्राज्यवादी देश) बहुत आगे
बढ़ चुके हैं।
दरअसल,
कर्मकांडी आर्यो का यज्ञ-विधान
प्रपंच और पाखण्ड का
धत्कर्म था। उसमें ‘समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व’
जैसे आधुनिक विचार या
आधुनिकता बोध समाहित नहीं
थे। तब भी अनार्यों
ने इस परम्परा को
अनदेखा नहीं किया। पर
भारी गड़बड़ी इस प्रथा
में यह थी कि
आर्यों द्वारा चालित इन
यज्ञों में भारी-भरकम
दान देने की परम्परा
थी जिससे च्यूत होने
पर मृत्यु तक का
भागी होना पड़ता था।
कुकर्मी आर्यों की संताने
अनार्यों की कुँवारी कन्याओं
तक का अपहरण कर
लेते थे। उनका यौन-शोषण
करते थे या उनकी
हत्या कर देते थे।
जिन्हें शूद्र कह अपमानित
किया जा रहा है
वे आज भी इसी
ताड़ना/कोप को भुगत
रहे हैं क्योंकि वे
आज भी अपनी सत्ता-शक्ति
और सामथ्र्य में
केन्द्र में नहीं हैं;
और जो केन्द्रीय सत्ता
में है वह आज
भी पुराने मानसिकता वाले
जनशोषक वर्णवादी व्यवस्था
का घनघोर समर्थक हैं।
इस प्रकार हम पाते
हैं कि भारत का
वर्णवादी समाज अपनी मूल
प्रकृति, परम्परा और आचरण
में बर्बर, सामंती,
अनैतिक और घोर अहंकारी
रहा है। विशेषेतया ब्राह्मणवादी
समाज ने बहुसंख्यक समुदाय
की चेतना, चिन्तन,
विचार, दृष्टिकोण आदि
को न सिर्फ झुठलाया
है बल्कि सायासतः दरकिनार
किया है, हाशिए पर
डाला है। एक जगह
पर राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द
लिखते हैं, ‘‘ब्राह्मणों का
पेशा पढ़ने-पढ़ाने का
था और इनकी बड़ाई
और प्रशंसा संस्कृत विद्या
के ज्ञान से थी।
यही भाषा इनके जीविका
का साधन था। इस
जाति-मूल ने एकबार
ही शूद्रों के लिए
दरवाजा बंद कर दिया
और इन्हें उसके पढ़ने-पढ़ाने
की बिल्कुल मनाही कर
दी। तर्क यह दिया
कि संस्कृत भाषा में
लिखे सभी शास्त्र वेदांग
हैं; इसलिए इन्हें शूद्रों
को जानने-समझने-सीखने
आदि का प्रश्न ही
कहां उठता है। अपनी
इसी चालाकी (अनैतिक एवं
अन्यायपूर्ण) को छुपाने के
लिए संस्कृत भाषा को
तत्कालीन आचार्यों ने
'देवभाषा' अथवा 'देववाणी' घोषित
कर दिया।‘’
यह
तथ्य विडम्बनासूचक किन्तु
सचाई है कि इस
उत्तर सदी में भी
‘शूद्र’ लोग वे ही
हैं जो अभिजात नहीं
है; जो बलशाली और
पराक्रमी नहीं हैं। लेकिन
वे ऐसा क्यों नहीं
बन सके, इस बारे
में सुचिंतित सोच,
दृष्टि अथवा विचार का
पूर्णतया अभाव है। आधुनिक सभ्रान्त (सवर्णवादी-मनुवादी) आज भी कथित रूप
से निष्कलुष कहे
जाने की जिद ठानते
हैं या अपनी उच्च-चेतना(?)
का जिसे वे स्रोत
घोषित करते हैं; वह
वास्तव में कथित शूद्रों
के द्वारा रचा गया
है न कि कर्महीन
वर्णश्रमियों द्वारा। भारतीय शास्त्रों
में दूसरे के काम
पर अपना अंगुठा लगाने
की रवायत है। अन्य
के श्रम पर अपना
झांडा फ़हराने का रिवाज़
है। यह इसलिए भी
कि ‘‘संस्कृत साहित्य में
आर्य उनको कहा जाता
था जो सम्मानित, आदरणीय
अथवा उच्च पदस्थ थे।
वहीं उच्च वंश के
लोग भी आर्य माने
जाते थे। उत्तर वैदिक
और वैदिकोत्तर साहित्य
में आर्य से ‘ऊपर
के उन तीन वर्णो
का बोध होता था
जो द्विज(ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य) कहलाते
थे। शूद्रों को आर्य
की कोटि में नहीं
रखा जाता था। यह
सत्तावादी अवधारणा प्राचीन भारत
में चलती रहीं। आर्य
को स्वतंत्र समझा
जाता था और शूद्र
को परतंत्र।’’ जबकि
कथित शूद्रों को ये
प्रथा/परम्परा उन दिनों
भी बिल्कुल नहीं जमती
थी। वे प्रकृतिपूजक थे।
उन्हीं की उपासना को
वे देवत्व-ग्रहण
करने का बीजगुण अथवा
बीजधर्म मानते थे। आज
भी आदिवासी-समाज
में यही लोकाचार प्रचलित
है। लेकिन वास्तव में
है क्या? आदिवासी मुख्यधारा
के समाज से बहिष्कृत
हैं। आदिवासी जन प्रारंभ
से ही प्रकृतियोंपासना में
लीन रहे और जंगल
को ही अपना वास्तविक
गेह मान लिया। उनके
लिए मुख्यधारा का
समाज कभी प्रिय नहीं
रहा। वे अपनी चेतना
को प्रकृतिप्रदत संस्कार
से आजीवन गढ़ते रहे
जिसे हम आज भी
उसी रूप में अधिकांशतः
देखते हैं। जबकि शूद्यों
ने आर्यो (वह आभिजात्य वर्ग जिनके लिए पूँजी के अतिरिक्त अपना कोई मानवीय चरित्र नहीं होता है) से लोहा
ली। उनके मान्यताओं को
चुनौती दी और अपनी
जगह मुख्यधारा के
समाज में बनाई
जिनकी श्रेष्ठता/उच्चता
को दरकिनार करते हुए
आर्यो ने उन्हें ‘शूद्र’
के रूप में मान्यता
दी। उन्होंने अपने
लिखे में कथित शूद्रों
को नीच/निम्न बताया
है; किन्तु वास्तविकता तो
यह है कि अपने
ही लिखे की विवेचना
उन्होंने उनके समक्ष भिन्न
प्रकार से की होगी,
इसमें कोई शक-शुबहा
नहीं है।
कहना
न होगा कि भलमनसाहत
अथवा आमजन के साथ
छल भारत की विधान-परम्परा
है, उसके गुणसूत्र (डीएनए)
में विद्यमान है।
इससे इंकार नहीं किया
जा सकता है कि
यह राजनीति आज के
सन्दर्भ में आसानी से
समझी जा सकती है
जिसमें वर्णवादी राजनीतिज्ञ (जिनके पास खुद करोड़ों-अरबों का ज़मीन-जायदाद, बेनामी संपत्तियाँ अथवा अकूत माल-सम्पदा है; किन्तु वे गरीब होने का या गरीबों के मसीहा होने का ढोंग रचते हैं।)
मौका पड़ने पर किसी
दलित बड़े/बुजुर्ग या
दलित चिन्तक/नेता
का पैर पड़ने या
उन्हें सराबोर गले लगाने
से नहीं हिचकते हैं।
यह दिखावा बाहरी प्रपंच
मात्र है। बाज़ार पूँजीकरण से मोहग्रस्त इस आधुनिक-उत्तर
आधुनिक समय में भी
स्थिति पूर्णतया नहीं
बदली है। यह तो
शुक्र है बाबासोहब डाॅ.
भीमराव अम्बेडकर का
जिन्होंने भारतीय समाज की
अवचेतनिक प्रवृत्तियों के
अन्यायपूर्ण साजिशों की गहन
जांच-पड़ताल की; तदुपरांत
उसके समूल विनाश के
लिए सांविधानिक विधान
अथवा सिद्धांत बनाए।
अतएव, आधुनिक भारत में
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर वह
प्रथम व्यक्ति हैं जिन्होंने
शोषित-पीड़ित जनसमाज के
पक्ष में राजनीतिक मुहिम
को शीर्षस्थ किया;
एक लगभग मूक-समाज
की संवेदना, सोच
एवं विचार-दृष्टि
को मुखर-प्रतिरोधी, स्थायी-दीर्घजीवी
तथा मजबूत/शक्तिशाली
बनाने की महती कृपा
की।
निष्कर्षत:
आधुनिकता के वर्तमान बाह्य
ढांचा, स्वरूप एवं संरचना
को बिना लांछित किए
यह कहना जरूरी है
कि वर्णवादी-सत्तावादी
मानसिकता आज भी बहुरुपिए (पूँजीवादी-अभिजन समाज और बाजारीकृत-भूमण्डलीकृत मीडिया)
की शक्ल में विद्यामान
है। उसकी आंखें फैंसी
चश्में से छुपा अवश्य
ली गई हैं लेकिन
आंखों में जड़ीभूत क्रूरताओं,
बर्बरताओं या नृशंसताओं को
अब तक समाप्त नहीं
किया जा सका है।
अतः इस समय डाॅ.
अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित भारतीय
संविधान की मूल आत्मा
को अक्षुण्ण बनाए
रखने की आवश्यकता है।
भारतीय संविधान सच्चे अर्थों
में भारत का उत्तर
वेद है जिसमें स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारा, न्याय,
धर्मनिपेक्षता, समरसता, समभाव,
अखण्डता, विविधता, बहुलता,
बहुविषयीकता आदि के लिए
उपयुक्त तथा समुचित स्थान
सुनिश्चित किया गया है।...और यही हमें उत्तर शती की विडम्बना और उत्तर आधुनिक प्रकोप से बचा सकती हैं।
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