Sunday, October 29, 2017

भारतीय पत्रकारिता की ज़मीन : बाते हैं बातों का क्या?

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राजीव रंजन प्रसाद
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भारतीय प्रेस में आजादीपूर्व जो भाव-विचार थे आज उनकी यादें शेष हैं-वह भी धुँधली। स्मृतिलोप की फांस में फँसे अधिसंख्य युवाओं के जे़हन में बीते कल का वाट्स-अप मेसेज, फेसबुक स्टेटस या कहें सरकारी हुक़्मरानों के अखिल भारतीय ट्वीट तक की यादें नहीं बची होती हैं; तो पत्रकारिता के इतिहास, युग, परम्परा, विरासत इत्यादि की उन्हें सुध या बोध होगा-यह कैसे संभव है।

पत्रकारिता को रचने-बुनने में नवजागरणकालीन महापुरूषों ने अपनी निजी और पैतृक संपत्ति तक दाँव पर रख दिए। राष्ट्रीय निष्ठा एवं समर्पण में उन्होंने पाबंदी और प्रतिबंध की घोर यातनाएँ सहीं; पर अपने पत्रकारीय जिजीविषा और उद्देश्य से टस से मस नहीं हुए। 

नवजागरण की चेतना और स्वाधीनता की आकांक्षा को सजीव करने में अनगिनत लोग जुटे थे। सिर्फ भारतीय ही नहीं विदेशी महानुभावों ने भी इसमें अपना अकथनीय योग दिया। भारतीय साहित्यकारों ने भारतीय हितरक्षा में जुटे विदेशी नागरिकों का अभिनंदन करते हुए सही कहा है कि, ‘‘पाश्चात्य विद्वानों ने जिनमें अंग्रेज, फ्रांसीसी तथा जर्मन आदि विद्वान सम्मिलित थे; भारतीय साहित्य एवं सांस्कृतिक गौरव को हमारे सामने प्रस्तुत किया। वेदों की गरिमा, उपनिषदों का महत्त्व, हमारे पौराणिक ग्रंथों का योगदान, हमारी प्राच्य विधाएँ, मोहनोजोदड़ों तथा हड़प्पा की सिंधु सभ्यता का उत्खनन एवं रहस्योद्घाटन, अंजता इत्यादि गुफाओं की खोज़-कार्य उन्होंने हमें स्वयं के बारे में व्याप्त अज्ञानता का अहसास कराने के लिए किया। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में भारत में विकास एवं समृद्धि का पुनर्संयोजन इसी का परिणाम था।....

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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