Tuesday, November 14, 2017

बाल-दिवस पर देव-दीप के नाम पाती



प्रिय देव-दीप,

आपकी निराली दुनिया के लिए आज का दिन ख़ास है। 14 नवम्बर है। कहें, तो आज बाल दिवस है। थोड़ा आपके बारे में फ़रिया कर कहें, तो बड़े वाले बाबू आप 10 वर्ष के हो गए और नन्हका बाबू 8 साल का। दोनों अपनी बढ़ती उम्र के साथ खुश, प्रसन्न एवं स्वस्थ रहें, यही मेरी मनोकामना है।

देव-दीप, यह दुनिया निराली है; क्योंकि इस दुनिया में तुम्हें जन्म देने वालों के सिवा भी बहुत लोग रहते हैं। खुद तुम्हारे माँ-पिता को जन्म देने वाले दादा-दादी भी ज़िदा है जो तुम दोनों की सदैव बेहद चिंता करते हैं। यह चिंता उनके लगाव एवं स्नेह का परिणाम है। उनसे तुमदोनों का या हमारा दूर होना चिंता का मुख्य कारण है। एक-दूसरे से जुड़ी-गुँथी ऐसी चिंताएँ और भावनाएँ एक समाज का निर्माण करती हैं जिसमें हम सब जी रहे हैं। यह सामाजिक दायरा कई तरह के आयामों से घिरा है। जैसे-राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि। हम संगीत सुनते हैं क्योंकि संगीत की समझ और उसका ज्ञान रखने वाले लोग हैं। उन्हें पता है कि इंसानी दिलों के लिए आवाज़, ध्वनि, संगीत, शब्द आदि जादू सरीखा हैं। इसी तरह नाच-गाने, पढ़ना-लिखना, बोलना-सुनना आदि हमारे मनोनुकूल व्यवहार हैं। हमारा आचारण-स्वभाव इनकी सोहबत में जीता है; इसी संग-साथ स्वयं को आनंदित महसूस करता है। अन्य कई प्रकार्य हैं। काम करने के तौर-तरीके हैं। बतकही-संवाद की जगहें हैं जिनमें होते हुए हम अपनी जिंदगी अच्छे से जी रहे होते हैं।

देव-दीप, इन अच्छाइयों को बाधित करने वाली बुराइयाँ भी ढेरों हैं। ये बुराइयाँ शैतानी हैं। इसके लक्षण हैं-एक गरीब राष्ट में अमीर से अमीर होने की सपने देखना। बेतहाशा और अनावश्यक खर्च करना। सिर्फ अपने बारे में सोचना और अपना ही लाभ देखना। यह भी प्रकृति की लीला है। अच्छे लोग ख़राबी से जब तक नहीं जूझते वे अच्छाइयों को तवज्ज़ो नहीं देते हैं। इस दुनिया में ख़राब लोग जिंदा हैं ताकि उनकी दुष्टता के ग़लत परिणामों को हम जान सके। उनसे समाज को होने वाले नुकसान से परच सके। ऐसे लोग जो दूसरों की इज़्जत नहीं करते; वे अपने घर की इज्ज़त लूटते हुए ही बड़े होते हैं। हर दोषी और पापी व्यक्ति ग़लत काम अपने परिवार और घर से शुरू करता है। जब अपने शिकार होते हुए भी उसे कुछ नहीं कहते; उल्टे शह देते हैं तो ऐसे मनबढ़ औरों को नुकसान पहुँचाने के लिए उद्यत होते हैं। भारतीय जनसमाज परवरिश एवं संस्कार पर इसीलिए बल देता है।

देव-दीप, आजकल लोग मन से बैल हैं, तो आत्मा से पिट्ठू। वे अपने ऊपर जायज़-नाजायज़ सबकी सवारी को बर्दाशत करते हैं। उनका आत्मबल क्षीण है। इसी कारण वे समझौता पहले करते है। विपत्ति में बाद में पड़ते हैं। आज कल अच्छा बोलने वाला लिडर है। वहीं अच्छा करने वाला हाशिए पर। सब देश को बर्बाद कर अपने को आबाद करने में जुटे हैं। इसके पीछे सचाई यह है कि उनके पास आत्मा को बेचने के ढेरों साधन हैं, तो उन्हें खरीदने वाले भी बड़ी तादाद में हैं। यद्यपि वे खरीदने योग्य नहीं होते; इसलिए मुफ़्त में बिक जाते हैं। संख्या भी लाभ का कारण है। अब हर संख्या बिकाऊ हो चला है; क्योंकि उनको खरीदने वाला इनका मूल्य जान गया है। वहीं आत्मबल के पक्के लोग; अच्छे और सच्चे लोग। कभी नहीं बिकते। उन्हें अपनी कीमत खुद याद रहती है। जबकि दूसरों के आगे बिकने वाले लोगों की कीमत दूसरे याद रखते हैं।

देव-दीप, तुम जब बड़े होगे तो देखना आज जो हुक्मरां है। 7 रेडकोर्स का बाशिंदा है। रायसीना हिल्स का रहवासी है। सब बदल गए हैं। नेता और नेतृत्व किन्हीं दूसरे हाथों में हैं। आज जैसे एक भारतीय से अधिक भारत के बारे में दूसरा फिरंगी आदमी जानता है, समझता है। संभावनाएँ और सीमाएँ दोनों से बाहरी व्यक्ति हमसे अधिक सुपरिचित है। आज भारत स्वतन्त्रता के ढलान पर है, तो उपनिवेश बनने के कगार पर। हम जिस पीढ़ी से है हम लगातार आगाह कर रहे हैं। बाज़ार पूँजीकरण के खेल से सतर्क-सावधान होने के लिए कह रहे हैं। पर अनाप-शनाप विकास की शर्त पर हम गुलामी के अंडे पोस-पाल रहे हैं। यह ख़तनाक स्थिजि है जिस बारे में हर भारतीय को संजीदा होना चाहिए। वैश्विक प्रभाव की धारा में बहते अपनी आत्मा को निरखना-परखना चाहिए। आज जिन मंचों पर खड़े होने की साहस हमारे राजनीतिज्ञ जुटा पा रहे हैं। जनता उसकी बैकबोन है। रीढ़ की हड़्डी। लेकिन हमारी बड़बोली सरकारे और उसके चट्टे-बट्टे उसी शाख को चोटिल कर रहे हैं। उसे काटने पर तुले हुए हैं। यह आरोप नहीं है। सचाई है। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, प्रशासन, योजनाकार, टिप्पणीकार, सम्पादक, प्रबंधक, संचालक आदि सब ओर निराशा एवं हताशा का माहौल है।

खैर, बहुत बोल गया। तुमदोनों के बहाने औरों की बातें करने लगा। यह जानते हुए कि इन दिनों समाज-राजनीति की एड़ी-चोटी कीरतन करना उपयुक्त है। इस अन्धेरे में मुक्तिबोध का टेपरिर्काडर बजाना सबसे माकुल है। बीए-एमए की कक्षाओं में विदेशाी बौद्धिकों की टर्मीनोलाॅजी को उवाचते हुए आह-अहा करना फायदेमंद है।यद्यपि कुछ लोगों के लिए चुपचाप या खुले में रोना-बिसूरना नियति है। और कुछ नहीं, तो फेसबुक, वट्सअप, टिवटर आदि पर कलचप्पों करना वाज़िब है।

फिलहाल, अपना ध्यान रखोे....,बाल-दिवस की बधाई!

तुम्हारा पिता
रजीबा

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