Friday, April 20, 2018

शिवपूजन सहाय की पत्रकारिता और मतवाला-मंडल



शिवपूजन सहाय की पत्रकारिता और मतवाला-मंडल
(विशेष सन्दर्भ: हिंदी नवजागरण)
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महिला महाविद्यालय, बीएचयू में 19-21 जनवरी, 2018 के बीच हुए 
राष्ट्रीय संगोष्ठी में  डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद द्वारा पढ़ा गया शोध-पत्र


सबसे पहले उस ध्रुवकाल को समझना आवश्यक है जिसे हिंदी नवजागरण कहा गया है। यहाँ ध्रुवकाल कहने का आशय पथ-प्रदर्शक बनकर उभरे उस नवीन चेतना और वैचारिक-संक्रांति से है जिसमें सम्पूर्ण भारत का समग्र व्यक्तित्व और उसमें अन्तर्भूक्त आत्मा शामिल थी; न कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध जैसे अलग-अलग समूह, समुदाय, सम्प्रदाय, पंथ, मार्ग, मठ, पीठ इत्यादि। अपनी सीमाओं के बावजूद भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिंदी नवजागरण के पुरोधा थे और सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रकारिता के आधारस्तंभ, धुरी-नियामक, केन्द्र भी। उन्होंने अपने युग की ज़मीनी सचाइयों को पहचानने की कोशिश की। फलतः अराजक सामाजिक कुरीतियों-अंधविश्वासों-कर्मकाण्डों से जकड़ी मूक-बधिर जनता को साफ ज़बान में समझदार बात कहने वाले कुछ ऐसे लोग मिल गए, जो पहले के लोगों से भिन्न थे। उनकी कहनशैली हिन्दी का नवभाषिक संस्कार ग्रहण किए हुए थी। यह 1873 ई. के इर्द-गिर्द बनी-बुनी जा रही वही हिन्दी थी जिसके लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘नई चाल में ढलने’ का मुहावरा लोकप्रिय किया था। कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैग्ज़ीन, बाला-बोधिनी आदि की लोकप्रियता असाधारण रही। दरअसल, भारतेन्दु तद्नुकूल भाव-संवेदना एवं सामूहिकता-बोध के मानवीय-विस्तार (मानव-संचार) पर अधिक बल दे रहे थे। जनसमूह के प्रति विशेष आग्रही तथा जनपक्षधर रचनाओं के जबर्दस्त पैरोकार होने के कारण हिंदी नवजागरण की नवचेतना विकसित करने में वे और उनकी मण्डली काफी हद तक सफल रही। वर्ण-व्यवस्था के कुंठित अवधारणा को प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से बचाते हुए भारतेन्दु मण्डली ने कुलजातीय-चेतना को पहली बार राष्ट्रीय-संस्कृति से जोड़ा। औपनिवेशिक साम्राज्य से मुक्ति के ठोस आग्रह के बावजूद भारत की मूल-संवेदना, सरोकार, संस्कार, सामूहिकता, लोकचेतना, जनपक्षधरता, प्रतिबद्धता, त्याग, समर्पण, उत्सर्ग इत्यादि को सम्पूर्णतः शामिल न किया जाना भारतेन्दु मण्डली के हिन्दूवादी प्रवृत्तियों के कारण हुआ जबकि राष्ट्र-गौरव के निर्माण में जुटी भारतेन्दु-मण्डली के सदस्यों की स्पष्ट घोषणा थी-‘स्वाधीन मनोवृत्ति तथा अकंुठ चित्तवृत्ति’। अतएव, इसकी प्रतिपूत्ति में नई धारा को हिंदी नवजागरण का ध्वजावाहक बनना पड़ा जिसमें ज्योतिबा फूले एवं रमाबाई फूले का नाम बेहद महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि ‘‘इन वर्षो में हिन्दी की पत्रकारिता का अनेक स्तरों पर विकास हुआ। राष्ट्रीय चेतना, जागरण, देशप्रेम, समाज सुधार जैसे अनेक स्तरों पर पत्रकारिता समृद्ध हुई जिसमें भाषा के स्तर पर भी समृद्धि लक्षित की जा सकती है। इस दौर के प्रकाशनों में सहज ही देखा जा सकता है कि राजनीतिक प्रश्नाकुलता भी बढ़ी।’’ (साहित्यिक पत्रकारिता, ज्योतिष जोशी; पृ. 17)

निश्चय ही हिंदी नवजागरण के अन्तर्गत हिंदीभाषाभाषियों ने यूरोपीय शिक्षा से प्रभाव ग्रहण की है। क्रांति और आन्दोलन के बीजतत्त्व तथा ‘स्वतन्त्रता, समानता एवं बंधुत्व’ के सूत्र यहीं से मिले हैं। ब्रिटिश पद्धति से मिले ज्ञान ने तर्क-चिंतन-संज्ञान द्वारा वैज्ञानिक-विमर्श की नई परम्परा शुरू की जिसे सामान्यतया आधुनिकता का पर्याय मान लिया गया है। अंग्रेजी-शिक्षण से जागरूक तथा शिक्षित बने भारतीयों ने बहुत कुछ सकारात्मक बातें सीखीं जिसमें से पत्र-संस्कृति स्वयं एक है। इसके अलावे हम देख सकते हैं कि, ‘‘इतिहास को धर्मों-सम्प्रदायों के अंदरूनी अंतर्विरोधों, परस्पर विरोधी विश्वासों और आर्थिक-सामाजिक स्थितियों के आधार पर होने वाले जातिगत-वर्गगत विभाजन को नकार कर एक ‘यूनीफार्म और होमोजिनस’ इकाई के रूप में प्रस्तुत करने की व्यवस्थित शुरूआत जेम्स मिल के इतिहास लेखन से हुई।’’ (इतिहास और राष्ट्रवाद, वैभव सिंह; पृ. 59) इस तरह मान्य एवं स्वीकृत प्रचलन को प्रश्नांकित करने का दमखम भारतेन्दु-मंडली ने दिखाया जिससे वर्तमान आधुनिक बना तो बाद की सदियाँ सुलगते सवाल दागने की आदी हो गईं। राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने हिन्दू धर्म में प्रचलित बेसिरपैर की बातों का अपने तर्कों से न सिर्फ खंडन किया बल्कि उन्होंने यह भी कहने का साहस जुटाया कि भारतीयता को लेकर जितनी मुँह उतनी बेमतलब बाते प्रचलित हैं और भारत सम्बन्धी इतिहास-लेखन खुद इससे अछूता नहीं है। कहने को तो यह भी कहा जाता है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तक शिवप्रसाद की तल्ख़ टिप्णियों से आहत हो चुके थे। यह और बात है, भारतेन्दु और उनकी मंडली के अन्य सदस्यों में अपनी विचार-दृष्टि और सम्यक् दृष्टिकोण को लेकर आपस में ही भारी असहमति, अन्तर्विरोध, नकार-भाव रहे हैं। जैसे शिवप्रसाद सितारे हिन्द, बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधाकृष्ण दास, बालमुकुन्द गुप्त, बद्रीनारायण चैधरी ‘प्रेमघन’ आदि। ये सबलोग पश्चिमी चिंतकों यथा: विलियम जोन्स, कोलब्रुक, जेम्स प्रिंसेप और मैक्समूलर का अविवेकी-प्रस्तावक होने के कारण उनकी निराधार व्याख्याओं से अधिक प्रभावित थे। नतीजतन, बहुविध बुराइयों की चपेट में आकर बिल्कुल किताबी हो चुके हिंदू धर्म का वे तार्किक-विश्लेषण करने की जगह उसके गौरवशाली अतीत को लेकर अधिक मोहग्रस्त दिखाई देते हैं। मनीषी चिंतक श्यामाचरण दुबे किसी भी पूर्वग्रह अथवा दुराग्रह को नकारते हुए कहते हैं, -‘‘भारत की सांस्कृतिक चेतना विशिष्ट प्रबुद्ध वर्ग के पूर्वग्रह से पीड़ित है, वह धर्मशास्त्रों में चित्रित भारतीय संस्कृति के सार-तत्त्व तथा प्रधान विषयवस्तु को उभारती हैं। इस प्रकार से कुछ भी प्रदर्शित किया जाता है, वह बहुत अंशों में भारतीय संस्कृति का पुस्तकीय दृष्टिकोण होता है। यह वह आदर्श संस्कृति है जिसको नगरीय पढ़े-लिखे लोग कल्पना करते हैं, वह जनता की यथार्थ संस्कृति नहीं है।’’ ( इतिहास और राष्ट्रवाद, वैभव सिंह; पृ. 135) डी. डी. कोशांबी ने आत्ममोहग्रस्तता से निकलने की सलाह देते हुए उचित ही कहा है कि,-‘अगर कहीं कोई स्वर्णकाल जैसी चीज है, तो वह अतीत में नहीं बल्कि भविष्य में मौजूद है।’ भविष्य में असीम संभावनाएँ छिपी हैं। प्रो. अमरनाथ हिंदी भाषा के संदर्भ में यह बात पूरे दमखम से कहते हैं कि,-‘‘तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद हिन्दी ने अपना दायरा विस्तृत किया है। अपनी क्षमता में इज़ाफा किया है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की शिक्षा के लिए माध्यम भाषा के रूप में अपनी योग्यता प्रमाणित की है। निःसंदेह इस देश का भविष्य हिन्दी के साथ जुड़ा है क्योंकि हिन्दी, देश के उन मेहनतकशों की भाषा है, आने वाला भविष्य जिनकी मुट्ठी में होगा।’’ (सदी के अन्त में हिन्दी; सम्पादकद्वय कुसुम चतुर्वेदी एवं डाॅ. अमरनाथ; पृ. 7) इस प्रकार हिंदी नवजागरण ने वैचारिक बहस छेड़ने और प्रश्न उठाने की जो परिपाटी शुरू की, वह बेमिसाल साबित हुई। दायित्व-बोध से भरी-पूरी यह परम्परा भारतेन्दु मण्डल से होते हुए ‘सरस्वती मण्डल’ और ‘मतवाला मण्डल’ के करीब पहुँची। उन दिनों आजादी के रणबांकुरों के लिए हिन्दी समन्वय, सामंजस्य एवं सम्बोधन की मुख्य भाषा थी; इसलिए उस समय के पत्रों के स्वर मुखर और दृष्टि अत्यन्त तीक्ष्ण मानी जाती थी। कहना न होगा कि ‘‘यह हिन्दी पत्रकारिता का उज्ज्वल चरित्र है जिसे तब तक विभाजित नहीं किया जा सका था, उसका मूल स्वर साहित्यिक-सांस्कृतिक ही था जिसकी आकांक्षा थी-समतामूलक समाज की स्थापना और जिसका मन्त्र था-‘प्रतिबद्ध जनतन्त्र का आदर्श स्वराज’। पत्रकारिता का यह स्वप्न हर स्तर पर व्यक्त होता रहा और विभिन्न कलारूपों पर काम करने वाले लोगों ने इस विचार को दीप की तरह जलाये रखा।’’ (साहित्यिक पत्रकारिता, ज्योतिष जोशी; पृ. 38)

आजादी के बाद के दिनों पर आएँ, तो राहुल सांकृत्यायन और आचार्य शिवपूजन सहाय दोनों के नाम अग्रपंक्ति में शुमार मिलते हैं। हिंदी नवजागरण से प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से दीक्षित राहुल सांकृत्यायन अपने खुले दृष्टिकोण तथा बेबाकीपूर्ण टिप्पणियों के लिए जाने जाते थे। उन्होंने एक बार पंडित जवाहर लाल नेहरू को सीधे सम्बोधित करते हुए पत्र लिखा-‘‘पहले आप क्या थे, और अब आप क्या हैं? सच, आपके शानदार समाजवादी अतीत से आपके वर्तमान की पटरी बैठाना हमारे लिए संभव नहीं है-हम समझ नहीं रहे हैं कि इन दोनों को कैसे एक जगह रखा जाए। और अब जन संघर्षों के विरुद्ध काफी तेजी के साथ सरकारी दमन का इंजन छोड़ दिया गया है। हड़तालों को आपने एक तरह से गैरकानूनी बना दिया है। और उन लोगों को पकड़-पकड़कर जेलों में बंद किया जाने लगा है जो आपके तरीकों से भिन्न तरीके पसन्द करते हैं।’’ (साहित्यिक पत्रकारिता, ज्योतिष जोशी; पृ. 38) दरअसल, यह पत्र हिंदी पत्रकारिता के उस ओज और आभा की मिसाल है जो प्रकृतितः कशेरुकी थी अर्थात् अपनी रीढ़ की हड्डी सलामत रखते हुए तथा बिना समझौतापरस्त और अवसरवादी बने जीने वाली हिंदी पत्रकारिता। जबकि आज के अधिसंख्य पत्रकार न तो पत्रकारिता के मूल्य जानते हैं न पत्रकारीय पेशे की मान-गरिमा को संरक्षित-सुरक्षित रखने के तौर-तरीके। यही तो बात है कि राहुल सांकृत्यायन की तरह उनके पास हस्तक्षेप का साहस है और न स्पष्ट एवं वस्तुनिष्ठ कहने-सुनने का सामथ्र्य। आचार्यात्व की इसी परम्परा में आते हैं गुणी सम्पादक शिवपूजन सहाय। हिंदी पत्रकारिता में शिवपूजन सहाय कई अर्थों में स्तुत्य हैं। पहली बात तो यही कि वह आज के अधिसंख्य पत्रकारों की तरह भाट चारण नहीं थे जिनके पास न तो भाषा है और न ही उसे सम्यक् ढंग से बरतने की तमीज़ मालूम है। इतिहास-बोध और सांस्कृतिक-साहित्यिक विवके-बुद्धि से च्यूत ऐसे पत्रकारों को शिवपूजन सहाय के कहे-सुने को बार-बार ‘इनकोड-डिकोड’ करना चाहिए क्योंकि वर्तमान पत्रकारिता जिन प्रवृत्तियों का शिकार है वे इस पेशे से जुड़े लोगों को न तो अक्लमंद बनाती हैं और न ही सेहतमंद। पूँजीपतियों के दबाव में संपादकों के अधिकारों पर होते कुठाराघात पर आचार्य शिवपूजन सहाय की चिंता गौरतलब है। वे कहते हैं-‘‘लोग दैनिक पत्रों का साहित्यिक महत्व नहीं समझते, बल्कि वे उन्हें राजनीतिक जागरण का साधन मात्र समझते हैं। किंतु हमारे देश के दैनिक पत्रों ने जहाँ देश को उद्बुद्ध करने का अथक प्रयास किया है, वहीं हिन्दी प्रेमी जनता में साहित्यिक चेतना जगाने का श्रेय भी पाया है। आज प्रत्येक श्रेणी की जनता बड़ी लगन और उत्सुकता से दैनिक पत्रों को पढ़ती है। दैनिक पत्रों की दिनोंदिन बढ़ती हुई लोकप्रियता हिन्दी के हित साधन में बहुत सहायक हो रही है। आज हमें हर बात में दैनिक पत्रों की सहायता आवश्यक जान पड़ती है। भाषा और साहित्य की उन्नति में भी दैनिक पत्रों से बहुत सहारा मिल सकता है।’’(http://bharatdiscovery.org) पत्र-पत्रिकाओं की जवाबदेह भूमिका के लिए संभावित चुनौतियाँ कितनी निर्मम हो सकती हैं। यह भान उस समय के दूरदर्शी सम्पादकों को बखूबी हो चुका था। बाबू विष्णुराव पराड़कर प्रथम हिन्दी सम्पादक सम्मेलन के अध्यक्ष पद से जो कहा था उसकी निर्लज्ज परिणति आज हमारे सामने घटित हो रही है। बकौल बाबूराव विष्णु पराड़कर, ‘‘पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कंपनियों के लिए ही संभव होगा। पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे। आकार बड़े होंगे। छपाई अच्छी होगी। पत्र मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पना होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सबकुछ होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएँगे। सम्पादक की कुर्सी तक उनकी पहुँच भी न होगी।’’ (साहित्यिक पत्रकारिता, ज्योतिष जोशी; पृ. 21) 

वास्तव में पत्रकारिता के कुछ निर्धारित मानदण्ड होते हैं, प्रचलित कसौटियाँ जिनका उल्लंघन जनहित के विरूद्ध माना जाता है। इसका सिलसिलेवार उल्लेख किया जाना आवश्यक है। यथा: 
1. समाज को यह उचित सूचना, सुझाव और सत्य की जानकारी देती है।
2. यह समाज में जीवंतता लाने और जागरूकता फैलाने का काम करती है।
3. राजनीतिक, साम्प्रदायिक, छुआछूत, जाति-प्रथा, दलित, स्त्री, आदिवासी आदि मुद्दों के प्रति अपना संवेदनशील व्यवहार दिखाती है तथा इस बारे में निष्पक्ष, पारदर्शी एवं वस्तुनिष्ठ बातचीत करती है।
4. कृषि, व्यापार, उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा से सम्बन्धित नीतियों के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण रखती है तथा इसका उचित विकास सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक पहलकदमी करती है।
5. राष्ट्रीयता-बोध, समाज और देश के प्रति व्यक्ति के कर्तव्य को समय-समय पर सूचित करती है।
6. यह ग़लत को ग़लत ठहराने और सही को सही साबित करने के दिशा में निरन्तर प्रयास करती है।
7. यह आम जनमानस को अधुनातन परिवर्तन, नवीन आचरणों, खोज, विज्ञान, साहित्य, कला, यात्रा, खेल, नवोन्मेष जैसे बहुविध विषयों की समसामयिक सूचना मुहैया कराती है, उन्हें शिक्षित करती है। 
8. वह गंभीर से गंभीर बात को सहज एवं सरल बनाकर प्रस्तुत करती है, ताकि वह सबकी समझ में आ जाए। यह किसी व्यक्ति-विशेष के लिए नहीं अपितु अपार जनसमूह के प्रहरी के रूप में चैबीसों घंटे काम करती है।

आवारा पूँजी ने पत्रकारीय मूल्यों की किस कदर अनदेखी की है, यह तथ्य अब किसी से छुपा नहीं है। पूर्व की पत्रकारिता में प्रतिबद्धता और जनपक्षधरता किस कोटि की रही हैं; जानने के लिए हिंदी नवजागरण से बेहतर परिप्रेक्ष्य और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। आज जहाँ खड़ा होकर हम जो ज़बान बोल-कह-सुन रहे हैं; की बात करें तो ‘‘देश के हर प्रान्त से हिन्दी ने लेखक, साहित्यकारों को जन्म दिया है; अध्यापकों को बनाया है; अनुवादकों को दिया है। उन विभिन्न प्रान्तों के साहित्यकार, पुनःसर्जक अध्यापकों ने अपनी क्षेत्रीय सुगंध से हिन्दी को नई शैली दी है, नई भाषिक संरचना दी है, वहाँ के साहित्य से वहाँ की खाद्य विशेषता, पहनावे, सांस्कृतिकता से हमें परिचित करवाकर हमें उनके साथ, परस्पर जोड़ा है। हिन्दी की यह महान देन हमारी भारतीयता को परिपुष्ट करती है।’’ (सदी के अन्त में हिन्दी; सम्पादकद्वय कुसुम चतुर्वेदी एवं डाॅ. अमरनाथ; पृ. 21) फिलहाल मंडल-कमंडल-भूमंडल के ज़ुमले को छोड़ दे, तो ‘मण्डल’ शब्द की अर्थ-गरिमा से अखिल भारतीय चेतना संपुष्ट होती है। भारतेन्दु हरिश्न्द्र के ज़माने में भारतेन्दु-मण्डल ने स्वाधीन राष्ट्र के निर्माण की दिशा में अगुवई की। बाद में सरस्वती पत्रिका के दिनों में ‘सरस्वती मंडल’ से हिंदी पत्रकारिता को ऊँचाई मिली तो ‘प्रताप’ और ‘मतवाला’ ने इसे हरसंभव ‘डाउन टू अर्थ’ बनाया। डाॅ. अर्जुन तिवारी अपनी पुस्तक ‘इतिहासनिर्माता पत्रकार’ में ‘निराला का मतवाला/हास्य भरा मोहक प्याला’ शीर्षक से मतवाला-मंडली को स्मरण करते हुए लिखते हैं-‘‘महादेवप्रसाद सेठ के चलते मुंशी नवजादिक लाल, शिवपूजन सहाय और निराला के सम्पादकत्व में 23 अगस्त, 1923 को हास्य-व्यंग्य का ऐतिहासिक-पत्र ‘मतवाला’ निकला। ‘चाबुक’ स्तंभ के अन्तर्गत साहित्यिक चोरों पर व्यंग्य-वाण बरसाये जाते थे। ‘मतवाला की बहक’ स्तंभ के अन्तर्गत सामयिक टिप्पणियाँ तथा ‘चलती-चक्की’ में हास्यमय शैली में समाचार-सार प्रकाशित होते थे।’’ (पृ. 102) हिंदी के सजग अध्येता कृपाशंकर चैबे ने ‘हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के 150 वर्ष’ शीर्षक से लिखे अपने महत्त्वपूर्ण आलेख में लिखा है कि-‘‘मतवाला के प्रकाशन का एक मकसद निराला की कविताओं को प्रकाशित करना भी था। पत्रिका के हर अंक में प्रथम पृष्ठ पर निराला की कविता छपती थी। पत्रिका में समालोचना भी वही करते थे। संपादकीय, चलती चक्की व अन्य विनोदपूर्ण टिप्पणियाँ लिखने तथा प्रूफ पढ़ने का जिम्मा शिवपूजन सहाय का था। मुंशी नवजादिक लाल भी हास्य विनोदपूर्ण टिप्पणियाँ लिखते थे।’’ ¼hindisamay.com½

मतवाला-मंडल की चर्चा हो, तो आचार्य शिवपूजन सहाय की स्मृति स्वमेव अपने साथ जुड़ जाती है। लोक-प्रचलित कहावत है-‘सबै सहायक सबल के, निर्बल ना केऊ सहाय’ की रूढ़-धारणा को तोड़ने में शिवपूजन सहाय और उनकी मतवाला-मंडली की पत्रकारीय निष्ठा, जुनून और दूरदृष्टि द्रष्टव्य है। शिवपूजन जी की यह मंडली अपने अतिरिक्त जिन-जिन मतवालों से मिलकर बनी थी उनके नाम हैं-मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव,  श्री ईश्वरीप्रसाद शर्मा, श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’।  उन दिनों की साहित्यिक पत्रों में इसकी धाक पूरी तरह जम चुकी थी। यही नहीं कई कारणों से मतवाला-मंडली लोकप्रिय थी। यूँ तो मतवाला निकलती कलकत्ता के बालकृष्ण प्रेस से निकलती थी, लेकिन उसके मालिक एवं संचालक श्री महादेवप्रसाद सेठ मिर्जापुर निवासी थे। सेठ जी का मतवाला के लिए फरमान था कि चाहे कोई कितना भी बड़ा हो, जरा भी लचे तो धरकर रगड़ डालो। उन दिनों ‘मतवाला’ की 10 हजार प्रतियाँ छपती थीं। उसके लिए कागज, स्याही, ब्लाॅक तथा बिक्री आदि की सारी देखभाल मतवाला-मंडली ही संभालती थी। किन्तु मुंशी नवजादिकलाल इसमें विशेष निपुण थे। अपने हिसाब रखने की इस प्रवृत्ति के कारण ही उन्हें ‘मुंशी’ कहा जाता था। मुंशी साहब महादेवप्रसाद सेठ के सबसे निकट थे। इन्हीं के आश्वासन पर ही सेठ जी ने ‘मतवाला’ निकाला था। मतवाला-मंडल के सदस्य रूप में शामिल नवजादिकलाल लेखक भी जबर्दस्त थे। मतवाला में ‘मतवाला की बहक’ नामक जो स्तंभ निकलता था, उसे वे ही लिखा करते थे। मुंशी जी एक सफल पत्रकार होने के भी कई उदाहरण हैं। मंुशी जी ने ‘लाला लाजपतराय’ की ओजपूर्ण जीवनी लिखी थी। अन्य पुस्तकों में ‘शान्ति-निकेतन’, ‘बेगमों के आँसू’ और ‘पराधीनों की विजय-यात्रा’ नामक उपन्यास भी लिखे थे। मतवाला मंडली के श्री ईश्वरीप्रसाद शर्मा की शोहरत भी बेजोड़ थी। एक बार वह अपने पत्रकारीय लेखन की वजह से जेल गए और जल्द ही ससम्मान बरी हुए। इस पर उस समय के मशहूर कवि बिस्मिल ने लिखा- ‘ईश्वरीप्रसाद शर्मा छूट गए/ख़त में यह पढ़कर दिल हुआ बाग-बाग/लिख दिया ‘बिस्मिल’ ने बर्मन जी को/अब जलाओ घर में तुम घी के चिराग’। श्री ईश्वरीप्रसाद शर्मा अपने साप्ताहिक पत्र ‘हिन्दू पंच’ की वजह से भी जाने जाते हैं। इस पत्र का मुख्य उद्देश्य हिन्दू संगठन, शुद्ध संस्कार, अछूतोद्धार, समाज-सुधार और हिन्दी-प्रचार था। ईश्वरीप्रसाद जी द्वारा मराठी से अनूदित ‘इन्दुमति’ तथा ‘रत्नदीप’ नामक उपन्यास भी अपनी विशिष्टता के लिए विख्यात है। अंग्रेजी से अनूदित उपन्यासों में ‘प्रेम गंगा’ और ‘प्रेमिका’ नामक उपन्यास उल्लेख्य है। मतवाला-मंडली के बतौर सदस्य सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की तो बात ही निराली है। निराला बालकृष्ण प्रेस के ऊपरी तल्ले में रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों के साथ रहते थे। एक नवोदित उर्जस्वित कवि के रूप में वह भी मतवाला से जुड़ गए। सेठ जी का निराला पर बहुत स्नेह था, यहाँ तक कि उनके लिए केश-रंजन और जावा कुसुम तेल लाकर रखते थे। निराला जब बाहर घूमने निकलते वह उनके जेब में रूपये-पैसे  डाल देते थे। जेल जाने के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे। मतवाला-मंडली में एक और शीर्षस्थ व्यक्ति रहे-पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’। उग्र जी ने ‘मतवाला-मण्डल’ के एक सदस्य की हैसियत से अपने साहित्यिक जीवन में प्रतिष्ठा प्राप्त करके हिंदी कथा साहित्य को जहाँ एक विशिष्ट भाव-भंगिमा प्रदान की, वहाँ उत्कृष्ट पत्रकार के रूप में भी उनकी देन कम महत्त्व नहीं रखती। ‘मतवाला’ में उनके लिखे चुटीले व्यंग्य जबर्दस्त लोकप्रिय थे। गौरतलब है कि ‘मतवाला’ में कार्य करते हुए उग्र जी ने अपने को इतना माँजा और कहन को नुकदार बनाया कि इनकी व्यंग्य-लेखन प्रतिभा अत्यन्त प्रखर हो गई थी। क्षेमचन्द्र ‘सुमन’ श्री बेचन शर्मा ‘उग्र’ के बारे में ठोस किन्तु महीन टिप्पणी करते हैं-‘आज कितने ऐसे पत्रकार हैं, जो मालिक को ठेंगे पर रखकर अपनी बात कहने की क्षमता रखते हों।’ उन्होंने खुद ही पत्रकारिता के निकष सामने रखे-‘‘मेरी राय में पत्रकार बनने से पूर्व आदमी को समझ लेना चाहिए कि यह मार्ग ‘त्याग’ का है ‘संग्रह’ का नहीं। जिस भाई या बहन को भोग-विलास की लालसा हो, वह और धन्धे करे, रहम करे इस राम-रोजगार पर। मेरा आदर्श पत्रकार ईमानदार पादरी, पीर, परमहंस-सा नज़र आता है। व्यक्तिगत सुख-दुःख के बहुत ऊपर, किसी भी भीड़ में जिसे आसानी से पहचाना जा सके।’’ 

मतवाला-मंडली के सान्निध्य में संघर्ष का सहयात्री बने आचार्य शिवपूजन सहाय का कर्म एवं व्यक्तित्व दोनों आदर्श है। डाॅ. सिद्धिलाल माणिक ने उनके बारे में उपयुक्त ही कहा है कि,-‘‘उन्होंने एक पत्र-सम्पादक के रूप में जिस उत्साह से हिन्दी-सेवा का व्रत लिया था, उसी उत्साह और दृढ़ता से उसे निभाया भी। हिंदी प्रेम उनकी धमनियों में लहू की तरह प्रभावित होता रहता था। वे आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसे सम्पादकाचार्य की परम्परा में अग्रणी कड़ी के रूप में हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में आए थे और द्विवेदी जी के आदर्शों के अनुरूप ही अपने को ढालकर उन्होंने पूरी निष्ठा और दायित्व-चेतना के साथ समर्पित और स्तरीय सम्पादन-कार्य का एक प्रतिमान खड़ा कर दिया। अपने जीवन-काल में ही एक मर्मी कलाकार होने के साथ-साथ एक विज्ञ समीक्षक के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गए। शीघ्र ही हिन्दी-जगत् ने सिर झुकाकर उनकी सम्पादन-क्षमता और अद्वितीय कला का लोहा मान लिया था।’’ (हिन्दी के यशस्वी पत्रकार; क्षेमचन्द्र ‘सुमन’; पृ. 229) मतवाला-मंडली में कई जन शामिल थे किन्तु सभी एक से बढ़कर एक धुरन्धर थे। अतएव, सबका समान महत्त्व बनता है। आज यह परिपाटी ख़त्म होती जा रही है। अधिसंख्य पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादक अथवा प्रधान सम्पादक का ही बख़ान होता है, जबकि सचाई कुछ और है। पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के शब्दों में कहें तो-‘पत्रकार पेशे की यह एक विडम्बना है कि मुख्य काम करने वाले तो उसके सहायक सम्पादक होते हैं और सम्पूर्ण यश मिल जाता है उसके प्रधान सम्पादक को।’ 

यहाँ यह कहना आवश्यक जान पड़ता है कि चरित्र से साधु किन्तु पत्रकारीय शैली में प्रखर शिवपूजन सहाय व्यक्तिगत नाम-यश का आकांक्षी कभी नहीं रहे। तभी तो उनकी पत्रकारीय-निष्ठा का अभिनन्दन करते हुए हरिवंश राय बच्चन ने कहा है,- ‘हिंदी की शक्ति और क्षमता का/देना तुम्हें प्रणाम।’ बड़े ही श्रद्धा एवं आत्मीय-भाव से संस्कृति-चिंतक फादर कामिल बुल्के ने लिखा है कि-‘परलोक में जाकर जिससे मिलकर उन्हें अनिर्वचनीय खुशी होगी वह शिवपूजन सहाय हैं।’ आचार्य शिवपूजन सहाय के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के साक्षी एवं द्रष्टा रहे उनके सुपुत्र मंगलमूर्ति ने अपने पिता को याद करते हुए लिखा है-‘‘हिंदी में अभिनन्दन ग्रन्थ निकालने की परम्परा हिंदी में सहाय जी ने ही शुरू की। आचार्य महावीर प्रसाद द्ववेदी अभिनन्दन ग्रन्थ के मूल में सहाय जी की ही प्रेरणा रही है और उसका एक तरह से संपादन भी उन्होंने ही किया।’’ (samalochan.blogspot.in) वह यहीं पर आचार्य नन्ददुलारे वाजपेई के हवाले से कहते हैं-‘‘ऐसा अभिनंदन ग्रन्थ हिंदी में कोई दूसरा नहीं है। वैसे तो उनके गुरु ईश्वरी प्रसाद शर्मा थे लेकिन अपना आराध्य गुरु वे आचार्य  द्विवेदी को मानते थे। वे द्विवेदी के ही पद चिन्हों पर आगे बढ़े। उनका गद्य ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’की परम्परा में है। शुरू में वह बहुत आलंकारिक भाषा लिखते थे। बाद में ठेठ हिंदी की परम्परा में आए, फिर हिंदी-उर्दू की ओर गए। बिहार राष्ट्र भाषा का संचालन किया जो उस समय बहुत ही महत्पूर्ण संस्था बन गई थी। उनके समय में जो किताबें वहाँ से प्रकाशित हुई वे आपने आप में मानक हैं। उनके निर्देशन में वासुदेवशरण अग्रवाल का ‘हर्ष-चरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘कादम्बरी: एक सांस्कृतिक अध्ययन’, महापंडित राहुल सांकृत्यायन का ‘सरहपा कोश’ जैसे ग्रंथों को तैयार करा कर प्रकाशित किया।’’ (samalochan.blogspot.in)

ऐसे महती और पुनीत कार्य की आवश्यकता आज की पीढ़ी को नवऊर्जा एवं नवशक्ति देने हेतु अत्यावश्यक है। पत्रकारीय पेशे से जुड़े लोगों को सुबुद्ध पत्रकार ऋषिकेश राय के इस आग्रह पर विचारना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि,-‘‘जन-संघर्षों से प्रेरणा लेकर ही हिन्दी का धारदार एवं उर्जस्वित स्वरूप विकसित हो सकता है। इन आर्थिक परिवर्तनों की नकारात्मक भूमिकाओं के ख़िलाफ मोर्चा खड़ाकर हिन्दी जन-संस्कृति के बुनियादी मूल्यों की अभिव्यक्ति तथा संरक्षण का माध्यम बन सकती है।’’ (सदी के अन्त में हिन्दी; सम्पादकद्वय कुसुम चतुर्वेदी एवं डाॅ. अमरनाथ; पृ. 81)
                           

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प्रेषक:
डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद
आचार्य (सहायक), हिंदी
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791112
मो.: 9436848281
ई. मेल: rrprgu@gmail.com

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