Tuesday, August 14, 2018

आजाद-लोग अमनपसंद हों जरूरी नहीं!

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राजीव रंजन प्रसाद


















‘डेडलाइन’ की ड्यूटि में बँधा एक पत्रकार अमनपसंद हो सकता है, लेकिन वह आजाद लोगों की तादाद में शामिल नहीं है। वह तो गुलाम है। कोर्ट-पैंट या झकास शर्ट अथवा हुलिया सबकुछ उसे आज का पत्रकार बनाने और उसी फ्रेम में फिट  दिखाने का उपक्रम मात्र है। उदाहरण के तौर पर आप चित्र बनाइए। शानदार एनिमेशन और ग्राफिक्स से कुछ ऐसा गढ़िए जो अधिसंख्य झूठ के बावजूद मोहक हो; वह पसंद किया जाने लगेगा। कारण यह नहीं कि वह झूठ है बल्कि इस वजह से कि उसका निर्माण बड़े ही रचनात्मकता के साथ की गई है; उसकी विषय-योजना और प्रस्तुति शानदार है। अब आप इस तरह की कारीगिरी में सरकारी स्तुतिगान कीजिए या फिर विज्ञापनी नारे-स्लोगन उवाचिए; सब चलेगा। आज का असरकारी पत्रकार यही सब कर रहा है और जो इस पथ का पथिक नहीं है वह तो पत्रकारीय चेतना के साथ स्वयं को सही रास्ते पर बनाए रखने मात्र के लिए लाख जद्दोजहद कर रहा है।

मैं अध्यापक हूँ, पर पत्रकारिता मेरे दिलोंदिमाग में रचा-बसा हुआ है। उसी की रौ है, रार और तकरार भी। यह पत्रकार आज के समय में पत्रकारिता के हाल-ए-स्थिति से वाकिफ़ है। कमोबेश वह उन चालाकियों से अवगत है जिसमें हिन्दुस्तान का भाग्यवाचन आज की मीडिया गला फाड़ कर कर रही है। एक ऐसा मुल्क जिसके यहाँ का संख्याबाल पूरी दुनिया में दूसरे स्थान पर है; आज अपनी ईमानदारी का हलफ़नामा पेश कर रहा है। एक ऐसे सक्षम और सशक्त राष्ट्र को अपने देशवासियों के चरित्रवान होने का प्रमाणपत्र देना पड़ रहा है जहाँ का अधिसंख्य शास्त्र और साहित्य अलिखित हैं। आज हमें उदाहरण और नमूने में अपनी समृद्धि का तकनीकी प्रदर्शन अथवा प्रस्तुतिकरण करना पड़ रहा है।

तय किए और चुने हुए लोग बता रहे हैं कि इस देश की राष्ट्रीय अस्मिता, पहचान, गौरव और विरासत क्या हैं। वही यह तय कर रहे हैं कि भारत में कितना सुखी और बेहद सफल लोकतंत्र कायम है। सोचकर देखिए, आज प्रचार के बूते राजनीतिक नाम बनाए जा रहे हैं, लोकप्रियता बटोरी जा रही है; नाम, पद, प्रतिष्ठा और शोहरत भी इसी बरास्ते हासिल हो रहे हैं। जीवन-मेल्य से रिक्त और यथार्थ-जीवन से अनभिज्ञ लोग पूरे देश को यह बताने के पीछे पागल हैं कि आज का भारत सर्वशक्तिमान है। क्या अच्छा होता कि आप कुछ कम कदम चलते, कुछ बेहतर प्रयास किए होते; लेकिन कम से कम आपका चरित्र तो कांग्रेस से भिन्न होता!

माध्यम की बलजोरी और संचार की ताकत सर्वसुलभ होने के कारण कुछ भी कहना आसान है। कहने की पूरी आजादी है। पर उसमें सचाई कितनी है अथवा कही जा रही बातें जनहित में कारगर कितनी ठहर रही हैं; यह देखना मीडिया चाहती ही नहीं है। वह बस कहने का तरीका आजमा रही है। क्या कहा जा रहा है इस पर उसका अधिकार नहीं है। यही तो गुलामी है। आज मीडिया के बड़े और नामचीन लोग इसी दिखावे को बाज़ार के हवाले भुना रहे हैं; पर असल में तो यह समय ही तय करेगा कि कुछ भी कहने और दिखाने को आजाद-लोग वास्तविकता में कितने अमनपसंद हैं अथवा उनका कहा-सुना-दिखाया सब झूठ ही झूठ ज्यादा है।.....

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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