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अरुणाचल में नौकरी करते हुए तीन साल हुआ। डाॅक्टरेट की उपाधि इसी वर्ष ले चुकने के बाद मन पहली बार अरुणाचल प्रदेश पर कुछ व्यवस्थित तथा सुचिंतित लिखने के लिए तैयार हुआ। देखिए शुरुआत!
अरुणाचल में नौकरी करते हुए तीन साल हुआ। डाॅक्टरेट की उपाधि इसी वर्ष ले चुकने के बाद मन पहली बार अरुणाचल प्रदेश पर कुछ व्यवस्थित तथा सुचिंतित लिखने के लिए तैयार हुआ। देखिए शुरुआत!
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भारतीय प्रायद्वीप को जिन दो मुख्य भागों में
विभाजित किया गया है; वह है-उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत। लक्षित और सुगठित इतिहास की
सारी बातें इन्हीं दो भागों के बारे में सर्वाधिक चर्चाएँ करती हैं। यहाँ तक की जय-पराजय,
शासन-प्रशासन, राज्य-ग्राम्य सम्बन्धी व्यवस्था तथा सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियाँ
भी इन्हीं दो भू-भागों को अपना सर्वसुलभ आलोच्य एवं आख्यानपरक विषय मानती रही हैं।
‘‘यह बात एक ऐतिहासिक नियम-सा बन गई है कि उत्तरी भारत की सीमा के भीतर किसी राज्य
की स्थापना उसकी शक्ति और सौष्ठव की द्योतक थी, और दक्षिण में उसका विस्तार उसके विघटन
और विनाश का।...इन दो विभागों में आस-पास के भाग तो कुछ अंश तक आपस में सादृश्य रखते
हैं; परन्तु ज्यों-ज्यों हम सुदूर सीमाओं की ओर अग्रसर होते जाते हैं, यह विभेद बढ़ता
ही जाता है और अंततः भाषा, धार्मिक सम्प्रदायों, स्थापत्य, वेशभूषा, आकृति, आहार-व्यवहार
आदि सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू एक-दूसरे से विभिन्न दिखाई पड़ते हैं।“[1] अरुणाचल प्रदेश के बारे में
विचार करते हुए हम इन बातों को शिद्दत से महसूस कर सकते हैं। भारत
के अन्य राज्यों से अरुणाचल प्रदेश की भाषा,
संस्कृति और लोक-विधान भिन्न मालूम पड़ते हैं, किन्तु इनकी
अंतःसंरचना में भारत का विराट-दर्शन होना स्वाभाविक बात है। यूँ तो भारत में बसने
वाली कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का अधिकार
है। भारत आज जो कुछ है उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। भारतीयता
महज़ एक शब्द नहीं सामूहिक चित्तवृत्ति का पर्याय है। यहाँ उत्तर-पूर्व अथवा दक्षिण-पश्चिम
का विभेद नहीं है। सांस्कृतिक कलेवर एवं दर्शन में समभाव और सहजभाव कुट-कुट कर भरे
हैं। यह हमारी अस्मिता, पहचान, भाषा, संस्कृति, लोक-साहित्य जीवन-मूल्य, आस्था, श्रद्धा,
निजता इत्यादि की संपूरक अभिव्यक्तियाँ हैं एवं समृद्धशाली दर्शनावलियाँ भी; जिनका
मूल स्वर है-‘जिसको न निज-गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं नर-पशु निरा है
और मृतक समान है।‘ यद्यपि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में ढोंग,
ढकोसले, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड, भेदभाव, छुआछूत, असमानता, अस्पृश्यता आदि का चलन नहीं
रहा है या उन्होंने भारतीयता की मूल भावभूमि को नष्ट-विनष्ट नहीं किया है; तथापि समय
के साथ इस तरह की बुराइयों एवं कुरीतियों को समाप्त करने में हमने बहुत बड़ी सफलता अर्जित
कर ली है। लेकिन यह तो मानना ही होगा कि भारतीय जीवन-दृष्टि, परम्परा-बोध एवं इतिहास-दर्शन
में इनका कहीं कोई स्थान नहीं मौजूद है। अब तो बात ही दूसरी है। आज का लोक-परिवेश
लोकतंत्र की साविधानिक विधानों से बँधा है जिसका केन्द्रीय लक्ष्य है-‘स्वतन्त्रता,
समानता एवं बंधुत्व’। अधुनातन विमर्शों ने भी
भारतीय प्रायद्वीप में चेतना-निर्माण, परम्परा-बोध एवं प्रतिरोधी प्रतिक्रियाओं को
अत्यन्त प्रभावशाली बनाने का काम मजबूती से किया है।
अरुणाचल खुद भी बहुत सारे लेकिन-किन्तु-परन्तु
के बीच कई अर्थ-सन्दर्भों में महत्त्वपूर्ण है। यह प्रदेश बहुभाषिक
और जनजातीयबहुल राज्य है। भारत के 29
राज्यों में से अरुणाचल प्रदेश एक है। अरुणाचल प्रदेश के कुल 22 जिलों में निवास करने वाले लोगों की
कुल संख्या लगभग 13 लाख है, जबकि जनसंख्या घनत्व प्रति व्यक्ति वर्ग किलोमीटर पूरे
देश में सबसे कम है। अरुणाचल प्रदेश में तकरीबन सौ जनजातियाँ एवं
उप-जनजातियाँ निवास करती हैं। इस प्रदेश में जनजातियों की सख्या सर्वाधिक होने के
कारण इनकी लोक-संस्कृति,
जीवन-शैली,
बोली-वाणी, भाषा, रहन-सहन,
खान-पान, कला, वेश-भूषा, रंग-ढंग आदि में विविधता का
होना सामान्य-सी बात है। रागात्मक तादात्मय एवं अपनी जीवंत-प्रकृति के कारण अरुणाचली लोक-साहित्य
की चर्चा तथा उनका यथेष्ट उल्लेख किया जाना आवश्यक है। विशेषकर लोकगाथाओं, लोक-गीतों,
लोक-सुभाषितों, कथा-साहित्यों आदि का महत्त्व अन्यतम है। ये इस कारण भी स्तुत्य हैं,
क्योंकि इससे अरुणाचली लोक-साहित्य में व्यक्त जीवन-दृष्टि तथा उनमें अनुस्यूत परम्परा-बोध
का अभिज्ञान सहज ही हो जाता है। संभाव्य चेतना से संयुक्त अनगिनत अभिदृष्टियाँ भी अरुणाचली
जनसमाज इन्हीं से प्राप्त करता रहा है। दरअसल, अरुणाचल का साहित्य इतना समृद्ध और ऊर्जावान है कि वह
सदैव अपने जनजातीय समुदाय को लोक-जीवन, नैतिक-मूल्य तथा मूल अस्मिता से जोड़े रखता है।
ईसाई मिशनरियों के प्रभाव ने यहाँ के वातावरण में अवश्य ही बड़ा हस्तक्षेप किया है और
उनके आस्था के विषय को अपने धर्म-प्रचार की मूल नीति और ध्येय से जोड़ दिया है, किन्तु
यह बदलाव अथवा उलटफेर सर्वग्रासी नहीं है। ये आज भी दोन्यी-पोलो की उपासना करते हैं
जिसमें सूर्य को माँ के रूप में और चन्द्रमा को पिता के रूप में स्मरण किया जाता है।
अरुणाचल के पूर्व राज्यपाल एवं प्रबुद्ध लेखक माता प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘मनोरम भूमि
अरुणाचल’ में कहा है-‘‘दोन्यी’ सूरज को कहें, ‘पोलो’ शशि को जान। दोन्यी पोलो देवता,
मानि करें सम्मान।।’[2] अधिसंख्य
अरुणाचलवासी आज भी स्वयं को आबोतानी का वशंज मानते हैं और उन्की पूजा-अराधना पूरी निष्ठा
और श्रद्धा-भाव से करते हैं। सामान्यतया ये अपने पारम्परिक पर्व-त्योहारों में मिथुन
की बलि पूरी श्रद्धा से देते हैं और स्थानीय शराब ‘अपुङ’ को प्रसाद के रूप में ग्रहण
या वितरण करते हैं। अरुणाचल की लोक-कलाओं का बहुविध रूप आकर्षक, मोहक और अनेकानेक विशेषताओं
से सुसज्जित है। वे अत्यन्त सजीव और प्रभावशाली हैं। सांस्कृतिक रूप से
समृद्ध और परम्पराबद्ध अरुणाचली लोक-कला में नृत्य, संगीत एवं सामूहिक प्रस्तुति का विधान सबसे ज्यादा है। यह सामूहिकता
जनजातीय समाज की मुख्य पहचान है जिसकी अभिव्यक्ति और प्रस्तुति कई ऐसे विशेष मौके पर
होता है जो उनकी उत्सवधर्मिता का पर्याय है। यथा : नई ऋतु का स्वागत, नए फसलों के आने या उनके पक जाने पर, बच्चे के जन्म, विवाह, पर्व-त्योहार
इत्यादि के मौके पर। अरुणाचल की मुख्य त्योहारों में कुछ नाम लिए जा सकते हैं-सोलुङ (आदी), न्योकुम (न्यीशी), मोपिन(गालो), द्रि (आपातानी), रेह (आदी), लोसर (आदी), तामालादु (दिगारू मिश्मी), खान (मिजी), मोल (ताङसा) इत्यादि। अरुणाचल प्रदेश के देवमाली,
तिराप में सहायक प्राध्यापक पद पर कार्यरत डाॅ. दोन्चा तोंलुक अपने यहाँ की प्राकृतिक
सुषमा और मनोहारी सौन्दर्य को बयां करती हुई कहती हैं, ‘‘अरुणाचल प्रदेश को ‘छिपा हुआ
स्वर्ग’ या भारत का स्वर्ग कहा जाए तो भी इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।“[3] डाॅ. दोन्चा
अपने प्रदेश को स्वर्ग कहने के पीछे का कारण भी बताती हैं। उनकी निगाह में अरुणाचल का जनजातीय
समाज अपनी चेतना में आधुनिक-दृष्टि से लैस है। यहाँ के नोक्टे जनजाति की स्त्रियों
पर वह लिखती हैं, ‘‘वैसे तो हिन्दू समाज में समग्र नारी जीवन पुरुष वर्ग के तिरस्कार,
दमन तथा उपेक्षा का शिकार है, लेकिन सबसे अधिक शोषण की प्रतिमूर्ति एकमात्र विधवा ही
होती है। विधवा का यह दयनीय जीवन विशेषकर मध्यवर्गीय परिवारों में बड़ा करुण है किन्तु
हम नोक्टे जनजाति में इसके विपरीत रूप देखेंगे। अर्थात नोक्टे जनजाति की स्त्रियाँ
पति के मृत्यु के बाद वह चाहे तो पुनर्विवाह कर सकती है। उनके लिए ऐसा कोई बंधन या
कानून नहीं है कि वह उम्र भर एक विधवा जीवन-यापन करें।"[4] अरुणाचल की अन्य कई जनजातियों
में स्त्री के अन्तर्जगत और उसके अनुभवजगत को विशेष मान दिया गया है। युवा कवि और वर्ष
2017 में साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित तारो सिन्दिक तागिन जनजाति द्वारा
गाये जाने वाले लोकगीतों को लक्ष्य करके कहते हैं, ‘‘इन गीतों में नारी के विशिष्ट
गुणों को उजागर किया गया है। नारी सिर्फ एक पत्नी ही नहीं और न ही सिर्फ बच्चा पैदा
करने की मशीन है। इन सबके अलावा उनका एक भाव-जगत भी होता है।, जिसकी तह तक जाना किसी
भी साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं होती है। नारी का सम्मान करना उन भावनाओं का सम्मान
करना है।“[5]
पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक एवं साहित्यिक पक्षों के जानकार एवं इन विषयों पर गंभीर लेखन-कार्य करने में जुटे वीरेन्द्र परमार की दृष्टि में, “अरुणाचल
प्रदेश अपने नैसर्गिक सौंदर्य, सदाबहार घाटियों, वनाच्छादित पर्वतों, बहुरंगी संस्कृति,
समृद्ध विरासत, बहुजातीय समाज, भाषायी वैविध्य एवं नयनाभिराम वन्य-प्राणियों के कारण
देश में विशिष्ट स्थान रखता है।.…इसके पश्चिम में भूटान और तिब्बत, उत्तर तथा उत्तर-पूर्व
में चीन, पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व में म्यांमार और दक्षिण में असम की ब्रह्मपुत्र घाटी
स्थित है।…लोक-साहित्य की दृष्टि से यह प्रदेश बहुत समृद्ध है I लोक-साहित्य में भी
अरुणाचली समाज लोकगीतों से अधिक अनुराग रखता है। इस प्रदेश का अधिकांश लोक-साहित्य
गीतात्मक है। मौखिक परंपरा में उपलब्ध इन गीतों में प्रदेशवासियों की आशा-आकांक्षा,
विजय-पराजय, हर्ष-वेदना तथा विधि-निषेध सब कुछ समाहित है। सदियों के अनुभव लोकगीतों
की कुछ पंक्तियों में सिमटे होते हैं। इन गीतों में पूर्वजों से संबंधित आख्यान, मिथक,
सृष्टि की उत्पत्ति विषयक दंतकथाएँ, जनजातियों का उद्भव एवं देशांतरगमन, विभिन्न प्राणियों
की उत्पत्ति सम्बन्धी कथाएँ वर्णित होती हैं । शिकार और जंगल से संबंधित पूर्वपुरुषों
के अनुभवों को भी लोकगीतों का आधार बनाया गया है। अनेक प्रकार के नीतिपरक गीतों के
द्वारा समाज को अनुशासित जीवन व्यतीत करने की शिक्षा प्राप्त होती है। वन्य-जीवन से
सम्बन्धित गीतों में प्रकृति का धूपछांही सौष्ठव दृष्टिगोचर होता है। कहा जाता है कि
अरुणाचलवासियों के लिए हवा-पानी की भॉंति ही नृत्य-गीतों की भी अनिवार्यता है। उनके
निर्दोष और सरल हृदय की मसृण भावनाएँ इन गीतों के रूप में प्रकट होती हैं। अरुणाचली
लोकगीतों में अरुणाचली समाज, संस्कृति और परंपरा का मणिकांचन संयोग है ।“[6] इस बात की पुष्टि राजीव गाँधी
विश्वविद्यालय की शोधार्थी और पेशे से सहायक प्रोफेसर आईनाम ईरिंग भी करती हैं। वह
आदी जनजाति के लोकगीतों के सन्दर्भ में अपनी बात रखते हुए कहती हैं कि,-“आदी समाज में
रोजमर्रा की ज़िन्दगी को प्रभावित करने वाली लोक-कथाए, लोक-गाथा, लोकगीत, लोक सुभाषित
इत्यादि भी उपलब्ध हैं। यहा जीवन के हर पहलू में गीत गाये पाये जाते हैं। अनेक प्रकार
के गीत जैसे धार्मिक, कृषि-सम्बन्धी गीत, प्रेम गीत, जीविका और आखेट सम्बन्धी गीत,
पशु-पक्षियों से सम्बन्धित तथा लोरी आदि प्रमुख हैं। मानव हृदय में स्पन्दित होने वाले
विविध भाव लोकगीतों के प्रेरणास्रोत हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण आदी लोकगीतों के उदाहरणों
द्वारा हम आदी जनजाति के सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं से परिचित हो सकते हैं।“[7] अरुणाचली साहित्य में प्रकृति
के साथ सहजीविता एवं साहचर्य के उदाहरण बहुतेरे मिलते हैं। आईनाम ईरिंग मानती हैं कि,
‘‘प्रकृति के बहुत करीब रहने के कारण अनेक प्राकृतिक गीत भी उनके लोकगीत में मिलते
हैं। उनके लोककथाओं में उनके आस-पास पाये जाने वाले सभी जीवों और पेड़-पौधों पर आधारित
कथाएँ मिलती हैं। अनेक ऐसे लोकगीत हैं जहाँ उन कथाओं को गीतों में लयबद्ध करके प्रस्तुत
किया गया है। आदी समाज में पहले उपजनजातियों के मध्य युद्ध होते रहते थे। अतः अनेक
लोकगीत भी हैं जहाँ युद्धों का वर्णन मिलता है।“[8]
बहुविध भाव, संवेदना, ऋत-व्यवस्था,
विचार-अभिव्यक्ति, दंतकथा-पुराकथा, लोकगाथा-लोककथा इत्यादि को स्वयं में समेटे अरुणाचल
का एकात्मक स्वरूप-‘अनेकता में एकता’ का है। विशेषकर भाषा वह मुख्य उपादान है जिससे
अरुणाचलवासी सर्वाधिक लगाव और निकटता महसूस करते हैं। अरुणाचली लोक-साहित्य में प्रयुक्त
भाषा दीर्घजीवी होती हैं। भले ही वह अरुणाचली लिपि (हाल के दिनों में कुछ जनजातियों
द्वारा विकसित एवं परिष्कृत) में न के बराबर लिखी जाती हों, पर उनका असल रूप और ठाठ
वाचिक ही है। यह और बात है कि अंध-आधुनिकता के प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव में हम अपनी भाषा
का निज-घर और चेतस-मन लगातार खो रहे हैं। कई बार इरादतन हम अपनी मातृ-बोलियों एवं भाषाओं
की अनदेखी करते हैं जिससे उनके आगे बचे होने की उम्मीद भी क्षीण हो जाती है। प्रबुद्ध
चिंतक और लेखिका रमणिका गुप्ता स्पष्ट शब्दों में कहती हैं कि, ‘‘भाषाएँ मरा नहीं करती,
भाषाएँ मार दी जाती हैं। भाषा बोलने वाले मारते हैं या सरकार मारती है। बोलने वाले
इसलिए मारते हैं क्योंकि उनको रोजगार नहीं मिलता और भाषाओं में रोजगार मिलने लगे तो
भाषाएँ ज़िन्दा रहेंगी, भाषाएँ समृद्ध होंगी, आपस में सहयोग करेंगी, आपस में एक-दूसरे
से शब्द लेंगी और विकसित होंगी। इस तरह दुनिया भर में भाषाएँ बढेंगी, मरेंगी नहीं।“[9]
भाषाओं के बचने-बढ़ने की यह कामना जरूरी है, क्योंकि वाचिक अथवा मौखिक रूप में विद्यमान
ये शब्द-शक्तियाँ किसी संस्कृति-विशेष का वास्तविक कोठार हैं, कुल जमापूँजी हैं। अतएव,
सभ्यता का आद्यरूप इन्हीं में वर्तमान होता है। जातीय स्मृतियों की सामूहिक चेतना इन्हीं
के माध्यम से बुलंद तथा दीर्घजीवी बनती हैं। अरुणाचली मर्म और संवेदना के सुघड़ चितेरे
और इस प्रदेश के युवा कवि तारो सिन्दिक लिखते हैं, “यह बहुत ही दिलचस्प बात है कि अरुणाचल
में सभी जनजातियों की अपनी-अपनी भाषा एवं बोलियाँ, धार्मिक आस्थाएँ, वेश-भूषा, सामाजिक
रीति-रिवाज, संस्कृति, जीवनशैली एवं त्योहार है। इतनी सारी विविधताएँ होने के बावजूद
अरुणाचलवासी शांतिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते आ रहे हैं। ‘विविधता में एकता’ जिस
तरह भारत को विश्व में अलग पहचान दिलाती है, वही अरुणाचल प्रदेश को भारत में। इसी कारण
अरुणाचल प्रदेश को ‘लघु भारत’ की उपाधि प्राप्त है।“[10]
अरुणाचल के सभी बाशिंदे अपनी जीवन-दृष्टि, परम्परा-बोध और इतिहास-दर्शन में तमाम तरह
के बदलावों और आधुनिक क्रियाकलापों को आत्मसात किए हुए हैं। प्रोफेसर एम. वेंकटेश्वर
के नज़रिए से देखें, तो-‘‘यहाँ की जनजातियाँ अपने मौलिक जीवन विधान के लिए मशहूर हैं।
इन सभी जनजातियों में शिक्षा का प्रसार तेजी से हो रहा है। इन लोगों की जीवनशैली में
आधुनिकता का प्रवेश हो चुका है। ये सभी जनजातियाँ आधुनिक जीवनशैली को अपना रही हैं
किन्तु अपनी संस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं का ये कट्टरता से पालन करती हैं। जन्म,
विवाह, मृत्यु के संस्कार सभी जनजातियों में भिन्न-भिन्न विधियों से सम्पन्न किए जाते
हैं। इन संस्कारों की अपनी विशेषताएँ हैं और इन्हें सभी लोग बहुत ही आदर और भक्ति-भाव
से सम्पन्न करते हैं। इनके संस्कारों में अंधविश्वास और प्राचीन रूढ़िवादिता की मौजूदगी
आश्चर्य पैदा करती है। अनेक जनजातियों में धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलि की प्रथा
मौजूद है।अरुणाचल की न्यायिक प्रणाली जनजातीय नियम-कानूनों का परिपालन करती है।“[11]
अरुणाचल के उच्च शिक्षा में हिन्दी भाषा के पहले प्रोफेसर ओकेन लेगो आदी जनजाति का
सन्दर्भ देते हुए कहते हैं-‘‘आदी समाज पूर्ण रूप् से जनतांत्रिक समाज है, जिसकी नींव
में केबांग है। केबांग वह संस्था है जिसके द्वारा आदी समाज नियंत्रित होता है। केबांग
के द्वारा ही आदी समाज की दैनंदिन गतिविधियाँ तथा विभिन्न क्रियाकलाप आदि प्रबंधित
एवं नियंत्रित होते हैं। केबांग शब्द का व्यवहार आम बैठक, सम्मेलन तथा आम विचार-विमर्श
आदि के लिए भी किया जाता है। आदी समाज में न्याय व्यवस्था की संस्था का नाम केबांग
है। आदी समाज के लिए केबांग वास्तव में वह आचार-संहिता है जो समाज की विभिन्न गतिविधियों
तथा विभिन्न पहलुओं में मनुष्य के लिए आचरण का ढाँचा तैयार करती है।“[12]
राष्ट्रीय अखण्डता और अखिल भारत का
स्वरूप निर्मित करने में इस तरह की सोच एवं चिंतन आवश्यक है। यही मूलभाव भारत की सामासिक
संस्कृति का द्योतक हैं जिस बारे में राष्ट्रकवि रामाधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक
‘संस्कृति के चार अध्याय’ में विस्तारपूर्वक लिखा है। उत्तर-पूर्व का जनजातीयबहुल समाज
इस तरह की सांस्कृतिक सामासिकता से गहरे जुड़ा-बँधा हुआ है। खुद अरुणाचल
प्रदेश में तकरीबन सौ जनजातियाँ एवं उप-जनजातियाँ निवास करती हैं। इस प्रदेश में
जनजातियों की सख्या सर्वाधिक होने के कारण यहाँ की
लोक-संस्कृति,
जीवन-शैली,
बोली-वाणी, भाषा, रहन-सहन,
खान-पान, कला, वेश-भूषा, रंग-ढंग आदि
एक-दूसरे से परस्पर भिन्न होते हैं। इन बहुभाषिक भिन्नताओं को निकट से देखें, तो हर एक भाषा स्वयं
में एक स्वतन्त्र तथा समृद्ध जनजातीय संस्कृति का संवाहक है। यहाँ
कई ऐसे धार्मिक-सांस्कृतिक स्थल हैं जिन्हें देखकर हर एक भारतीय को गौरव होता है
और अभिमान भी। प्राकृतिक सौन्दर्य की बात करें, तो समूचा
अरुणाचल पहाड़, जंगल, घाटी, नदी, खेती आदि से
भरा-पूरा प्रदेश है। वीकिपीडिया जैसे आधुनिक वेब-अभिलेखागार तक को यह मालूम है कि
“अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों के जीवनयापन का मुख्य आधार कृषि है। इस प्रदेश की अर्थव्यवस्था
मुख्यत: 'झूम' खेती पर ही आधरित है। आजकल नकदी फसलों जैसे-आलू, और बागबानी की फसलें
जैसे सेब, संतरे और अनन्नास आदि को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ी
लोग खेती की पारंपरिक विधि शिइंग (झूम) का प्रयोग करते हैं। इस कृषि विधि की मुख्य
पैदावार चावल, मक्का, जौ एवं मोथी (कूटू) हैं। अरुणाचल प्रदेश की मुख्य फसलों में चावल,
मक्का, बाजरा, गेहूँ, जौ, दलहन, गन्ना, अदरक और तिलहन हैं।“[13]
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय के प्रयोजनमूलक हिन्दी पाठ्यक्रम की विद्यार्थी रह चुकीं
तोको यानी लिखती हैं, “प्राकृतिक छटाओं के बीच बसे अरुणाचल प्रदेश का इलाका पहाड़ी,
तो मार्ग बेहद दुर्गम है। इसलिए यहाँ हर जगह खेती एक ही तरीके से किया जा सकना संभव
नहीं है। अरुणाचल में झूम खेती के साथ पानी खेती अधिक होते हैं जो महीने और मौसम के
अनुसार किए जाते हैं। प्रायः झूम खेती में मिर्च, अदरक, मकई, संतरे तथा तरह-तरह की
सब्जियाँ उगाई जाती हैं जबकि पानी खेती में धान उगाई जाती है।“[14]
यानी इस प्रदेश की ऐतिहासिकता पर विचार करते हुए कहती हैं, “अरुणाचल प्रदेश के ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि को देखें, तो इसका परिप्रेक्ष्य व्यापक और भारतीयता के पहलू से अंतरंग सम्बन्धित
है। अब तक ज्ञात जानकारी के अनुसार, भारत में कुल 3 तरह की प्रजातियाँ पाई जाती है
वह है-आर्यन, मंगोलियन, द्रविडियन। इन तीनों प्रजातियों में से अरुणाचल प्रदेश के लोगों
को मंगोलियन जनजाति का माना जाता है। अरुणाचल की पृष्ठभूमि अहोम साम्राज्य की स्थापना
से शुरू होती है। तेरहवीं सदी में सुखाफा ने असम के शिव सागर नामक जगह पर कब्जा कर
अहोम साम्राज्य की स्थापना की। अहोम साम्राज्य के पतन के बाद अंग्रेजों का शासन शुरू
हो गया। सन 1834 तक आते-आते अंग्रेजों ने अहोम साम्राज्य पर पूरी तरह कब्जा कर लिया।
18वीं सदी में ही चीन और भारत के बीच शिमला समझौता (1930) हुआ, जिसमें एक सीमा निर्धारित
की गई। इस सीमारेखा को सर हेनरी मेकमोहन के नाम से ‘मेकमोहन लाइन’ नाम दिया गया। जब
अंग्रेजों ने देखा कि उत्तर भारतीय संथाल और गोंड जनजाति के लोग अपने जल, जमीन और जंगल
के लिए अंग्रेजो के छक्के छुड़ा सकते हैं तो उनको यह अंदेशा हुई कि-अरुणाचल के जनजातीय
लोग भी ऐसा कर सकते हैं। अरुणाचल में प्रवेश सम्बन्धी अधिकार सुनिश्चित करने के लिए
अंग्रेजों ने ही ‘इनर लाइन परमिट’(Inner Line Permit) की अवधारणा रखी। सन् 1873 में अंग्रेजों
ने इनर लाइन परमिट बनवाई जिसमें यह नियम लागू किया गया कि बाहर से आने वाले लोग इस
पहचान-पत्र के बिना अंदर नहीं जा सकते हैं।“[15]
यद्यपि आईएलपी की व्यवस्था आज भी
अरुणाचल में प्रचलन में है। इस व्यवस्था के कारण यहाँ आने वाले बाहरी लोगों की संख्या
कम है और यह परिक्षेत्र शहरीकरण अथवा अतिशय विकास की मार से अब तक बचा हुआ है। किन्तु
समय के साथ स्थितियाँ-परिस्थितियाँ तेजी से बदल रही हैं। आर्थिक सुधार एवं विस्तार
ने इस प्रदेश को भी वैश्विक भारत की बदली हुई नई छवि से तालमेल या फिर संतुलन बिठाने
ख़ातिर विवश कर दिया है। पूँजी संग्रह और निवेश द्वारा मुनाफे़ को समृद्धि का पर्याय
मान चुके आधुनिक अर्थव्यवस्था को अरुणाचल का जनजातीयबहुल समाज भी अपना ‘आदर्श’ मानने
लगा है। इस कारण यहाँ की निज-संस्कृति और भाषा पर संभावित खतरे आये दिन नुकीले और तीखे
होते जा रहे हैं। यह बात जरूर है कि अरुणाचल की जनजातियों की आन्तरिक संरचना, बनावट-बुनावट
आदि में जातीय स्मृतियों तथा पारम्परिक आख्यानों की भूमिका जबर्दस्त है। वे अनेकानेक
बिम्ब, रूप, छटा इत्यादि के रूप में इनसे गहरे जुड़े हैं। लोक-सहकार की इस संस्कृति
को देखते हुए नहीं लगता है कि बाज़ार की कारगुजारियाँ अथवा साम्राज्यवादी आक्रमण इतनी
आसानी से अपने मक़सद में कामयाब हो सकता है। अरुणाचल सहित पूरे पूर्वोत्तर की स्थूल-सूक्ष्म
समझ रखने वाले विद्वान अध्येता और केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के वर्तमान निदेशक
प्रो. नन्दकिशोर पाण्डेय की दृष्टि में “पूर्वोत्तर की भाषा, संस्कृति और लोक-साहित्य
आज भी प्रचुरता में उपलब्ध हैं या बाहरी दबाव के बावजूद बची हुई हैं, तो उसका मुख्य
कारण है कि यहाँ के लोगों ने इनको अपनी दाँत से कस के पकड़ रखा है। भाषा के संरक्षण-सुरक्षा
के लिए प्रेम और समर्पण अनिवार्य है।‘’[16]
इस अनिवार्यता पर बल दिया जाना इसलिए
भी आवश्यक है, क्योंकि अनपेक्षित घटनाएँ लगातार घट रही हैं; अवांछित घुसपैठ तेजी से
बढ़ता ही जा रहा है। यह बदलाव नैसर्गिक, प्राकृतिक अथवा शाश्वत नहीं है; बल्कि यह पूर्णतया
प्रायोजित है। आदिवासी जनसमाज के ऊपर शोध एवं अकादमिक लेखन करने में जुटे डाॅ. अभिषेक
कुमार यादव की दृष्टि में ये परिस्थितियाँ अत्यन्त चिन्तय एवं त्रासद हैं-‘‘उत्तर-पूर्व
के राज्यों में आदिवासी समाजों के सामने दूसरी विकट परिस्थितियाँ मुँह बाये खड़ी हैं।
जहाँ एक तरफ आम्र्ड फोर्स स्पेशल पाॅवर एक्ट है, तो दूसरी तरफ निजीकरण और भूमंडलीकरण
का तेज हमला है। इसने उनकी भाषा-संस्कृति पर जोरदार प्रहार कर दिया है। एक वर्गहीन
समाज में तेजी से कई वर्ग बनते जा रहे हैं। कुल मिलाकर कमोबेश हालत यह है कि आदिवासी
समाजों की अस्मिता और अस्तित्व पर ही खतरा उत्पन्न हो गया है।“[17]
दरअसल, मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है कि उसमें अभिव्यक्ति के साथ अभिव्यंजना-शक्ति
भी है। इस नाते कई बार वह सचाई को यथार्थपूर्ण नज़रिए से देखने की बजाय एक तरह की रोमांटिसिज़्म
में प्रत्यक्षीकृत करता है। उसका बड़ा नुकसान यह है कि कमियाँ ढँक जाती हैं। ऐसे में
जो दिख अथवा दिखाया जा रहा होता है वह या तो लबादा होता है अथवा अस्थायी निर्माण जिस
मुलम्मे के उतरते ही देर-सवेर वास्तविकता सामने आ ही जाती है। डाॅ. अभिषेक इस ओर संकेत
करते हुए कहते हैं, ‘‘आदिवासी समाजों को देखने की जो दो निगाहें हैं एक बेहद रोमांटिक
तरीके से और दूसरी दुश्मन की तरह।“[18] इसके लिए वह अरुणाचल के सुप्रसिद्ध लेखक येशे दोरजी
थोंगछी के उपन्यास ‘सोनाम’ का जिक्र करते हैं जो मूल असमिया में लिखा गया है और अब
उसका हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है। लेखक के संवेदनशील प्रकृति के बारे में बात करते हुए
वे कहते हैं कि, ‘‘लेखक इन दोनों निगाहों से दूर है। वह ब्रोकपा समुदाय की अपनी कमजोरियों
को भी पकड़ रहा है पर उसे हीन साबित करने के लिए नहीं बल्कि बेहद अपनापे के साथ। साथ
ही वह ब्रोकपाओं के लिए किसी रोमांटिक निगाह से बचते हुए उनकी बदल रही सामाजिक-व्यवस्था,
आर्थिक-व्यवस्था को भी चिन्हित कर रहा है। यह वह विचार-प्रक्रिया है जिसकी आज आदिवासी
साहित्य को सख्त जरूरत है।"[19]
………………….
डॉ. राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791112
मो. : 9436848281
[1] अशरफ, के.
एम.;
‘हिन्दुस्तान
के
निवासियों
का
जीवन
और
उनकी
परिस्थितियाँ’;
हिंदी
माध्यम
कार्यान्वय
निदेशालय;
दिल्ली;
पुनःसंस्करण:
2006; पृ.
02
[6]
http://www.apnimaati.com/2017/03/blog-post_13.html
[13] www.hi.wikipedia.org
[14]
यानी,
तोको;
‘न्यीशी
जनजाति
के
त्योहारों
पर
आधुनिकता
का
प्रभाव:
एक
विश्लेषणात्मक
अध्ययन’
द्वारा
प्रस्तुत
लघु शोध-प्रबन्ध से; प्रयोजनमूलक
हिन्दी;
वर्ष:
2018; (अप्रकाशित लघु शोध-प्रबन्ध)
[15]
यानी,
तोको;
‘न्यीशी
जनजाति
के
त्योहारों
पर
आधुनिकता
का
प्रभाव:
एक
विश्लेषणात्मक
अध्ययन’
द्वारा
प्रस्तुत
लघु शोध-प्रबन्ध से; प्रयोजनमूलक
हिन्दी;
वर्ष:
2018; (अप्रकाशित लघु शोध-प्रबन्ध)
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