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राजीव रंजन प्रसाद
बहुत
दिनों से मन था।
पढ़ने को-‘जंगली फूल’। अपनी ही
विभाग की प्राध्यापिका जोराम
यालाम नाबाम ने लिखा है।
आज हवाई यात्रा में उसका साथ जमा और मैं एयरपोर्ट
से ही उसकी वादियों
में विचरने लगा। शब्द में ताकत है, त्वरा है, गति है। इनके साथ होना आनंदित कर देता है।
तभी तो यह कहा
गया है। इस दुनिया में
गहन अंधकार था। उन्हीं दिनों इस महाशून्य से
शब्दों का स्फोट हुआ।
उसके बाद कंठ को आहार मिली
और हम प्राणियों को
आवाज। जिसके बाद कहना-सुनना मुकम्मल हुआ। जंगली फूल को पढ़ते हुए
लग रहा था; जैसे मैं धरती को फिर से
देख रहा हूँ। ठीक से देख पा
रहा हूँ। जैसे घर की खिड़की
खोलने पर धूप के
दर्शन होते हैं। दरवाजे को खोलने से
आगंतुकों से मिलना होता
है। वैसे ही शायद; शायद
वैसे ही देखना, मिलना,
जानना हो रहा है-धरती को। इस जंगली फूल
के बहाने।
बता
दूँ गुवाहाटी से वाराणसी की
यात्रा पर हूँ। 22 नवम्बर
को दीक्षांत समारोह है। मुझे भी विद्यावारिधि यानी
पीएच.डी. की डिग्री लेनी
है। यात्रा की दूरियाँ कम
करने के लिए फ्लाइट
सेवा लिया है-यह बात
नहीं है। आजकल पैसे कमाने लगा हूँ और ठीक-ठीक
नौकरी में हूँ इसलिए फ्लाइट अपनी अमीरी का जायका है।
नब्बे रुपए की चाय पी
मैंने गुवाहाटी के लोकप्रिय गोपीनाथ
बारदलोई अन्तरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर। अब मैं गेट
नं. 5 से दाखिल हो
चुका हूँ। इनडिगो की फ्लाइट सेवा
है। हाल ही गुवाहाटी से
वाराणसी को शुरू हुई।
यात्री हैं, लेकिन हाउसफूल नहीं है। कई सीटें खाली
हैं। मैं विन्डो सीट पर हूँ। मुसकाराती
हुई एयर होस्टेस। नमस्कार की मुद्रा में।
कितना सलीका है इनमें। अभिवादन
से लकर बातचीत तक में। शायद
यह इस पेशे के
प्रोफेशनलिज़्म का भी तक़ाजा
है।
अन्दर
माहौल खुशनुमा है। मेरे ठीक बगल की सीट खाली
है। उसके बाद की सीट पर
एक लड़की बैठी है। सूचना पायलट के द्वारा दी
जाती है-बाहर हिमालय...;
मेरी आँखें शब्द सुनने के साथ यान
की खिड़की से बाहर-‘वाऊ’
कितना मामूली शब्द है। ‘आॅसम’ भी। मैं अपने साथ की उस लड़की
से पूछता हूँ-हिमालय है यह। जवाब
में वह बताती हैं-हाँ यह सारा इलाका
हिमालय रेंज का है। वही
हिमालय है जिसके बारे
में बचपन में कविता थी-‘खड़ा हिमालय बता रहा है...’। गोपाल सिंह
‘नेपाली’ याद आने लगे हैं।
मेरा
मन कहता है-हिमालय देख
राजीव। शब्द झूठे होते हैं। फ़रेबी। चालबाज़। मन करता है-सीमा को फोन करूँ।
क्या अकेले चीजों को देखना। वह
होती तो यह देखना
पूर्ण होता। खैर, मेरी अधूरी आँख पूरा हिमालय देखने लगती है। एकबारगी लगा यालाम मैम की उपन्यास ‘जंगली
फूल’ जीवंत हो उठा है।
यह अहसास भर गया है
कि मैं सही जगह पर हूँ। ठीक
लोगों के बीच। जंगली
फल की महक दुनिया
की सारी महक से अच्छी है।
उसमें साहस की बेइंतहा परत
है, बेशुमार स्मृतियाँ। अब अरुणाचल की
नौकरी को एक नया
फलक मिल गया है-हिमालय का...
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