Tuesday, August 18, 2015

सच

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जब आप जिद ठानते हैं, तो कई बार रिश्तों के महीन धागे दरकते हैं। लेकिन यदि नियत दुरुस्त हो, तो यह कोई खतरे की चीज नहीं है। मेरे अपने लोग इस नखरे को भी बर्दाश्त कर लेंगे।...वैसे भी मैं, तो कहकर धोखा देता हूं। मेरी धोखेबाजियां मेरे मनमर्जियों के हिसाब से चलती हैं। जैसे काशी छूट गया, तो छूट गया।

बस, यही और इतना ही अंतिम सच।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...