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मंचकला पूरा देह मांगती है और शोध हमारा पूरा मस्तिष्क। यह प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ही कह सकते हैं और उन्होंने मुझे हमेशा कहा। इसी मार्गदर्शन ने हमें कभी अपने कर्मपथ से विचलित नहीं होने दिया; असभ्य एवं बदजुबान तो कतई नहीं। संस्कार पैदाइशी मन-मस्तिष्क और आत्मा से जुड़ी होती है; वह मेरे भीतर प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने देखी होगी; शायद इसीलिए मुझे बल देकर शोध में बने रहने को हमेशा प्रेरित किया। हर कठिनाई में भरपूर मदद की। आत्मा को सदा पवित्र एवं दिमाग को सक्रिय बनाए रखने की प्रेरणा दी। मेरे भीतर की खिन्नता और चिड़चिड़पन को देखा और मुझे इन सबसे हमेशा उबारा। आज मैं जो कुछ हूं और जिस रूप में प्रस्तुत्य हूं, प्रो. अवधेश नारायण मिश्र की ही देन और निर्मिति है।
आरोप, लांछन और कीचड़ कोई भी लगा सकता है, मैं भी। मैं यह कह सकता हूं कि उन्होंने मुझसे खूब अधिक मेहनत कराया, कठिन शोध-प्रारूप तैयार कराया और शोध-विषयक कार्य एवं अन्तर्वस्तु इतना जटिल और चुनौतीपूर्ण दिया कि मुझे न सिविल सर्विसेज की तैयारी का मौका मिला और न एसएससी। दूसरे शोध-निर्देशक उदार हैं। और यह उदारवादी दौर है। जहां विवेक के साथ नहीं उदरस्थ विलासिताओं के साथ जीने और अपने ढंग का मनमाना किए जाने की हम मांग करने लगे हैं और हमें उस तरह की छूट भी दिए जाने लगे हैं। प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने इसे उच्छश्रृंख्लता कहा और हमें इन प्रवृत्तिायों से बचने की हमेशा हिदायत दी।
वह इतने नैतिक और अनुशासित रवैए के साथ क्यों पेश आते हैं, मैं नहीं जानता। लेकिन उनके द्वारा मैं कैसा रचा-बुना गया हूं, यह मेरे साथी-मित्र और विभाग के गणमान्य शिक्षकों से बेहतर भला कौन जानता होगा? क्या कभी मैं अव्यावहारिक अथवा अशालीन ढंग से किसी के समक्ष प्रस्तुत हुआ? क्या कभी किसी ऐसे कार्य में मेरी संलिप्तता रही जिससे मेरे विभाग की बदनामी हुई है। हां, रचनात्मक कार्यों में लगातार गतिशील रहा; यदि इससे विभाग की गरिमा ध्वस्त हुई हो, तो इसके लिए मैं निरुत्तर होने के सिवा कुछ भी नहीं कर सकता हूं। क्योंकि ऐसा करने के लिए हमेशा प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने ही मुझे सिखाया।
यह सब मैं क्यों कह रहा हूं? क्योंकर कहा जाना जरूरी है यह सब। इसलिए कि विभाग के एक वरिष्ठ शोध-छात्र विनय कुमार शुक्ल ने मेरे शोध-निर्देशक प्रो. अवधेश नारायण मिश्र पर जिस असंयत भाषा में और बेबुनियाद आरोप मढ़े हैं...वह सिर्फ अपमानजनक नहीं मुझे जैसे लड़के के लिए भीतर तक वेध देने वाले हैं। वह भी तब जब विनय कुमार शुक्ल ने मुझसे यह बात कही हो कि आपके शोध-निर्देशक के साथ मेरे सम्बन्ध चाहे जैसे हों, आपके गुरुजी नियम-कानून के बड़े पक्के हैं, विभाग में सबसे नेक ईमानदार हैं। विनय कुमार शुक्ल जी जिस समय आपने यह बात कही थी उस समय मेरा छह साल का बच्चा दीप रंजन साथ में था। सोच रहा हूं, उसे क्या जवाब दूंगा कि जिस मित्र ने मेरे बच्चे को यह कहते हुए पुचकारा था....वह झूठ था, स्वांग था।
क्या मुझे वैयक्तिक रूप से प्रो. अवधेश नारायण मिश्र के पक्ष में बोलने की जरूरत है; क्या मुझे उनके लिए सारे लोगों के सामने सफाई देने की जरूरत है या किसी भी ‘शुक्ल’ के मार्फत अपने शोध-निर्देशक प्रो. अवधेश नारायण मिश्र को यह बताने की जरूरत है कि मैं उनके प्रति अच्छी राय, समझ एवं भाव रखता हूं। नाम शुक्ल होने से आप अंजोरिया नहीं करने लग जाएंगे और मैं राजीव नाम होने से कीचड़ नहीं हो जाउंगा। लेकिन मुझे भारी दुख है कि अपने भी कितने बौने होते हैं; उनका अहंकार कितना बड़ा होता है। खैर, वे इससे राजीव रंजन प्रसाद नहीं हो सकते, प्रो. अवधेश नारायण मिश्र होने के बारे में तो सोच तक नहीं सकते।
और अंतिम बात जिस प्रकरण को लेकर इतना हंगामा बरपा हो, उसका घटित होना मेरे लिए प्रीतिकर नहीं है; लेकिन ऐसे उदाहरण हमें भविष्य में प्रो. अवधेश नारायण मिश्र की तरह अध्यापक नहीं होने देते। निश्चय जानिए। मैंने विभाग के शिक्षकों को हमेशा सम्मानित नज़रिए से देखा, उनसे हमेशा कुछ सीखने-जानने की अभिलाषा को अपने भीतर जिलाए रखा। आज उस लौ में कालिख की मात्रा अधिक हैं और मेरा चेहरा उसी कालेपन से पुता हुआ है।
सत्य के पक्षधर इतने कम लोग क्यों हैं? क्यों आज के समय में प्रो. अवधेश नारायण मिश्र नहीं हुआ जा सकता है? यदि यह संभव नहीं, तो मुझे इस तरह की अकादमी को तत्काल क्यों नहीं छोड़ देना चाहिए? मेरे शोध-निर्देशक कहेंगे, आप अपना काम कीजिए, जाने दीजिए इन बातों को। मैं कहूंगा कि मैंने आपकी खूब सुनी...अब आपके आदर्श की विनयशीलता एवं संकोचशीलता से बाहर आना चाहता हूं। इस कदर असभ्य लोगों द्वारा ग़लत ढंग से चारों तरफ से घिरे हों हम, तो हमें भी मूकदर्शक और तमाशबीन क्यों नहीं हो जाना चाहिए औरों की तरह। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए यह करतब ही आदर्श है; हिन्दी विभाग के लिए अपनी प्रतिष्ठा के मानो अनुकूल है.... जिसमें घटित सभी अवांछित प्रकरणों एवं बेबुनियाद गतिविधियों को चुप्पा लोग बिना सोचे-समझे अथवा विधिवत जांच-पड़ताल हुए सामूहिक रूप से सही एवं जायज़ ठहराते हैं। आपसे इल्तज़ा है कि आप मेरे खि़लाफ हों, ताकि मैं जान सकूं कि लोगों की नज़र में मैं कितना झूठा हूं। आरोप-प्रत्यारोप मुझ पर किए जाएं, ताकि मैं अपनी औकात नाप सकूं। बीच का कोई रास्ता नहीं हो सकता। यदि मैं अच्छा नहीं, तो एक ही बात सही हो सकती है वह यह कि मैं अपने चरित्र में पूरी तरह ग़लत हूं। और मैं अपना चरित्र प्रमाण पत्र बदलना चाहता हूं।
ओह! यह दुर्दिन भी, जोते-जाते देखा।
मंचकला पूरा देह मांगती है और शोध हमारा पूरा मस्तिष्क। यह प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ही कह सकते हैं और उन्होंने मुझे हमेशा कहा। इसी मार्गदर्शन ने हमें कभी अपने कर्मपथ से विचलित नहीं होने दिया; असभ्य एवं बदजुबान तो कतई नहीं। संस्कार पैदाइशी मन-मस्तिष्क और आत्मा से जुड़ी होती है; वह मेरे भीतर प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने देखी होगी; शायद इसीलिए मुझे बल देकर शोध में बने रहने को हमेशा प्रेरित किया। हर कठिनाई में भरपूर मदद की। आत्मा को सदा पवित्र एवं दिमाग को सक्रिय बनाए रखने की प्रेरणा दी। मेरे भीतर की खिन्नता और चिड़चिड़पन को देखा और मुझे इन सबसे हमेशा उबारा। आज मैं जो कुछ हूं और जिस रूप में प्रस्तुत्य हूं, प्रो. अवधेश नारायण मिश्र की ही देन और निर्मिति है।
आरोप, लांछन और कीचड़ कोई भी लगा सकता है, मैं भी। मैं यह कह सकता हूं कि उन्होंने मुझसे खूब अधिक मेहनत कराया, कठिन शोध-प्रारूप तैयार कराया और शोध-विषयक कार्य एवं अन्तर्वस्तु इतना जटिल और चुनौतीपूर्ण दिया कि मुझे न सिविल सर्विसेज की तैयारी का मौका मिला और न एसएससी। दूसरे शोध-निर्देशक उदार हैं। और यह उदारवादी दौर है। जहां विवेक के साथ नहीं उदरस्थ विलासिताओं के साथ जीने और अपने ढंग का मनमाना किए जाने की हम मांग करने लगे हैं और हमें उस तरह की छूट भी दिए जाने लगे हैं। प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने इसे उच्छश्रृंख्लता कहा और हमें इन प्रवृत्तिायों से बचने की हमेशा हिदायत दी।
वह इतने नैतिक और अनुशासित रवैए के साथ क्यों पेश आते हैं, मैं नहीं जानता। लेकिन उनके द्वारा मैं कैसा रचा-बुना गया हूं, यह मेरे साथी-मित्र और विभाग के गणमान्य शिक्षकों से बेहतर भला कौन जानता होगा? क्या कभी मैं अव्यावहारिक अथवा अशालीन ढंग से किसी के समक्ष प्रस्तुत हुआ? क्या कभी किसी ऐसे कार्य में मेरी संलिप्तता रही जिससे मेरे विभाग की बदनामी हुई है। हां, रचनात्मक कार्यों में लगातार गतिशील रहा; यदि इससे विभाग की गरिमा ध्वस्त हुई हो, तो इसके लिए मैं निरुत्तर होने के सिवा कुछ भी नहीं कर सकता हूं। क्योंकि ऐसा करने के लिए हमेशा प्रो. अवधेश नारायण मिश्र ने ही मुझे सिखाया।
यह सब मैं क्यों कह रहा हूं? क्योंकर कहा जाना जरूरी है यह सब। इसलिए कि विभाग के एक वरिष्ठ शोध-छात्र विनय कुमार शुक्ल ने मेरे शोध-निर्देशक प्रो. अवधेश नारायण मिश्र पर जिस असंयत भाषा में और बेबुनियाद आरोप मढ़े हैं...वह सिर्फ अपमानजनक नहीं मुझे जैसे लड़के के लिए भीतर तक वेध देने वाले हैं। वह भी तब जब विनय कुमार शुक्ल ने मुझसे यह बात कही हो कि आपके शोध-निर्देशक के साथ मेरे सम्बन्ध चाहे जैसे हों, आपके गुरुजी नियम-कानून के बड़े पक्के हैं, विभाग में सबसे नेक ईमानदार हैं। विनय कुमार शुक्ल जी जिस समय आपने यह बात कही थी उस समय मेरा छह साल का बच्चा दीप रंजन साथ में था। सोच रहा हूं, उसे क्या जवाब दूंगा कि जिस मित्र ने मेरे बच्चे को यह कहते हुए पुचकारा था....वह झूठ था, स्वांग था।
क्या मुझे वैयक्तिक रूप से प्रो. अवधेश नारायण मिश्र के पक्ष में बोलने की जरूरत है; क्या मुझे उनके लिए सारे लोगों के सामने सफाई देने की जरूरत है या किसी भी ‘शुक्ल’ के मार्फत अपने शोध-निर्देशक प्रो. अवधेश नारायण मिश्र को यह बताने की जरूरत है कि मैं उनके प्रति अच्छी राय, समझ एवं भाव रखता हूं। नाम शुक्ल होने से आप अंजोरिया नहीं करने लग जाएंगे और मैं राजीव नाम होने से कीचड़ नहीं हो जाउंगा। लेकिन मुझे भारी दुख है कि अपने भी कितने बौने होते हैं; उनका अहंकार कितना बड़ा होता है। खैर, वे इससे राजीव रंजन प्रसाद नहीं हो सकते, प्रो. अवधेश नारायण मिश्र होने के बारे में तो सोच तक नहीं सकते।
और अंतिम बात जिस प्रकरण को लेकर इतना हंगामा बरपा हो, उसका घटित होना मेरे लिए प्रीतिकर नहीं है; लेकिन ऐसे उदाहरण हमें भविष्य में प्रो. अवधेश नारायण मिश्र की तरह अध्यापक नहीं होने देते। निश्चय जानिए। मैंने विभाग के शिक्षकों को हमेशा सम्मानित नज़रिए से देखा, उनसे हमेशा कुछ सीखने-जानने की अभिलाषा को अपने भीतर जिलाए रखा। आज उस लौ में कालिख की मात्रा अधिक हैं और मेरा चेहरा उसी कालेपन से पुता हुआ है।
सत्य के पक्षधर इतने कम लोग क्यों हैं? क्यों आज के समय में प्रो. अवधेश नारायण मिश्र नहीं हुआ जा सकता है? यदि यह संभव नहीं, तो मुझे इस तरह की अकादमी को तत्काल क्यों नहीं छोड़ देना चाहिए? मेरे शोध-निर्देशक कहेंगे, आप अपना काम कीजिए, जाने दीजिए इन बातों को। मैं कहूंगा कि मैंने आपकी खूब सुनी...अब आपके आदर्श की विनयशीलता एवं संकोचशीलता से बाहर आना चाहता हूं। इस कदर असभ्य लोगों द्वारा ग़लत ढंग से चारों तरफ से घिरे हों हम, तो हमें भी मूकदर्शक और तमाशबीन क्यों नहीं हो जाना चाहिए औरों की तरह। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए यह करतब ही आदर्श है; हिन्दी विभाग के लिए अपनी प्रतिष्ठा के मानो अनुकूल है.... जिसमें घटित सभी अवांछित प्रकरणों एवं बेबुनियाद गतिविधियों को चुप्पा लोग बिना सोचे-समझे अथवा विधिवत जांच-पड़ताल हुए सामूहिक रूप से सही एवं जायज़ ठहराते हैं। आपसे इल्तज़ा है कि आप मेरे खि़लाफ हों, ताकि मैं जान सकूं कि लोगों की नज़र में मैं कितना झूठा हूं। आरोप-प्रत्यारोप मुझ पर किए जाएं, ताकि मैं अपनी औकात नाप सकूं। बीच का कोई रास्ता नहीं हो सकता। यदि मैं अच्छा नहीं, तो एक ही बात सही हो सकती है वह यह कि मैं अपने चरित्र में पूरी तरह ग़लत हूं। और मैं अपना चरित्र प्रमाण पत्र बदलना चाहता हूं।
ओह! यह दुर्दिन भी, जोते-जाते देखा।
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