Friday, January 22, 2016

‘जन-गण-मन' का राष्ट्रीय चरित्र

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 राजीव रंजन प्रसाद

हमसब सांविधानिक अधिकार प्राप्त नागरिक हैं। आजाद देश के रहवासी हैं। उत्तर-पूरब एवं दक्षिण-पश्चिम सभी कोना सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नता एवं विविधता के बावजूद एकमेक है। यानी सबलोग एकसमान स्वतन्त्र हैं, संसद एवं संविधान की परिधि में हैं। हमारा 15 अगस्त है और 26 जनवरी भी। यह कहना सुखद आश्चर्य का विषय है, जबकि सचाई कुछ और है। वस्तुतः यह एक तरह से धनिक एवं आभिजात्य शासकीय-तंत्र का मुलम्मा है जिसके अन्तर्गत बेतरह फैली बुराइयों को अक्सर ढाँक-तोप दिया जाता है जबकि ये बुराइयाँ आस्तीन की साँप भाँति अन्दर घुसी हुई हैं। वर्तमान में अपराध, हिंसा, अनैतिक आचरण, भ्रष्टाचार, स्त्री-उपेक्षा, बाल-उत्पीड़न, आर्थिक एकाधिकार एवं आधिपत्य, राजनीतिक शुचिता में गिरावट, सामाजिक व्याभिचार, अपारदर्शी न्यायिक-व्यवस्था, गरीबी आदि इन्हीं कारामातों एवं कारस्तानियों की देन हैं। ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसी प्रवृत्तियाँ ख़तरनाक एवं अत्यंत हानिप्रद होती हैं। राष्ट्रीय संपदा का दुरुपयोग और प्राकृतिक संसाधन पर कब्ज़ा इन्हीं तरीकों से संभव होता है। जनतांत्रिक व्यवस्था को जड़ बनाने में जुटी (राजनीतिक रूप से सक्षम)वर्चस्वादी ताकतें सदैव कुछ खास लोगों के स्वतन्त्रता की वकालत करती हैं, जबकि सर्वसाधारण की अवमानना ही इनका मुख्य लक्ष्य होता है। यह आधुनिक समय का अर्थशास्त्र बाँचती हैं और इतिहास-बोध को एक सिरे से ख़ारिज कर देती हैं। सामूहिक अचेतन अथवा स्मृतियों की आवाजें इन्हें बिल्कुल सुनाई नहीं देती हैं; तब भी समाज के अधिसंख्य लोग इनकी पूजा-अभ्यर्थना में लपटाए होते हैं; क्योंकि सत्ता में शामिल इस किस्म के घुसपैठिए प्रायः परम्परावादी, संस्कृतिनिष्ठ और धार्मिकमना होने का झूठा दावा ठोंकते हैं।  

यह सम्मोहन इतना जबर्दस्त होता है कि आम-आदमी अपने जीवनस्तर को ऊपर उठाने की जायज़ माँग तक सरकार से नहीं कर पाता; वह नियतिवादी हो जाता है। इस घड़ी भारतीय जनसमाज की मुख्य दिक्कतदारी जनतंत्र में रहते हुए जनतंत्र की अवधारणा, भूमिका, महत्त्व आदि से अपरिचित होना है। लिहाजा, वह राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागी बनने की जगह उनके आगे सिर नवाने लगा है; अपने हक-हकूक का अपहरण होते जाने के बावजूद वह सभी परिस्थितियों का मूकदर्शक बना फिर रहा है। खासकर युवाओं के भीतर की ऊर्जस्वी चेतना पग-पग पर समझौता करने लगी है जो कि उनके स्वभाव-प्रकृति के सर्वथा विपरीत हुआ करती है।

दरअसल, इस घड़ी भारतीय जनसमाज राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर संकट एवं संक्रमण के दौर से गुजर रहा हैं। तुर्रा यह कि भारतीय अकादमियाँ विचार और विचारधारा की निर्मिति में लगातार अकुशल साबित हो रही हैं। इसी प्रकार समाज के सिद्धहस्त तथा अनुभवी पुरनिए जिन्होंने अपनी सर्जनात्मक तबीयत से लोक-मर्म को जाना-समझा-बूझा है; वे हाशिए पर पड़े हैं या उनकी आवाज़ को सायासतन दबा दिया गया है। वैचारिक आपातकाल के इस दौर में साहित्यिक समझ से सम्बन्धित किताबें थोकभाव छप रही हैं, लेकिन आचरण-प्रकृति में इनका प्रभावशून्य होते जाना सबसे बड़ी त्रासदी है। यद्यपि साहित्य सत्ता का हिंसक विरोध नहीं, बल्कि रचनात्मक प्रतिरोध का नाम है। आज इस प्रतिरोध के स्वर में स्वाभाविक लय-नाद-गूँज का मुखरित नहीं होना सर्वाधिक चिंता का विषय है। इसी प्रकार पत्र-पत्रिकाओं की सुंदर और लोकलुभावन काया संवेदना की जगह अब पाठकीय उत्तेजना को प्रश्रय दे रही हैं; अब वे किसी घटना-विशेष के सम्बन्ध में सम्यक् जानकारी कम देती हैं; अपना थ्रीपेजीकरण रंग-रूप ज्यादा थोपती हैं।

हम देख सकते हैं कि सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व की मुख़ालफत करने वाले विचारान्वेषी बुद्धिजीवीगण लगातार आगाह कर रहे हैं, अपनी लेखकीय में भारतीय जनसमाज को हरदम चेता रहे हैं; किन्तु आडम्बर इतना सघन और वितण्डावाद इस कदर विकराल है कि उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह मालूम देती है। नतीजतन, स्वतन्त्रता, समानता, न्याय, शिक्षा, जागरूकता, सामाजिक अनुशासन, सांस्कृतिक मर्यादा, आध्यात्मिक दृष्टिकोण, सुविचारित परम्परा, आचार-संहिता, स्वनियमन, आदर्श विधान आदि जनतांत्रिक सद्गुण जिनसे हमारे राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है, आज सबसे अधिक अपमानित या कि हमारे आचरण-स्वभाव एवं व्यक्तित्व-व्यवहार से बहिष्कृत की जा चुकी हैं। अतएव, अधिसंख्य युवजन का राष्ट्रीय चरित्र से लगाववृत्ति के बराबर है या फिर उनके लिए यह महत्त्वहीन विषय बनकर रह  गया है। हमारा बार-बार युवाओं पर बल देना इसलिए जरूरी है कि वही वैकल्पिक राजनीति का असल चितेरा है; परिवर्तनकामी राजनीति का सच्चा उद्घोषक है। युवा-मन आज संख्याबल में 50 करोड़ से अधिक है; किन्तु वह क्रियाशील और गतिमान सबसे कम दिखाई दे रहा है।


प्रश्न है, क्या इस किस्म के समस्त बुराइयों को राजनीतिक कुशलता का नवीनतम आविष्कार मान लिया जाए? विज्ञान की भाषा में क्या ये राजनीतिक नवाचार कहलाने योग्य हैं? आखि़र राजनीतिक शुचिता एवं जनतांत्रिक मानदंड इस कदर हेराते क्यों जा रहे हैं? क्या वजह है कि हमसब दागी, बागी, हत्यारे, अपराधिक मानसिकता वाले लोगों को ही चुनने के लिए अभिशप्त हैं? सवाल अनगिनत हैं जिनसे जूझते हुए ही इस एक और 26 जनवरी का स्वागत किया जाना श्रेयस्कर है। अर्थात् सही अर्थों में यह तभीजन-गण-मन' का सच्चा अभिनन्दन होगा और राष्ट्रीय चरित्र  का संवहन भी। आमीन!

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

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