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रजीबा की राय
मैं आत्महत्या के विरूद्ध हूँ। मनस्वी साहित्यकार रघुवीर सहाय की कविता ‘आत्महत्या केे विरूद्ध’ की तरह। मैं सदा गीत नया गाने और सिरजने को तैयार हूँ। ध्यान देना होगा कि हम मनुष्य कालचक्र का कील हैं, तो इतिहासचक्र की धुरी। हम विज्ञान के प्रमाण हैं, तो जीवन-प्रयोग के खुले नेत्र। हमसब दिशा-बोध का विवेक हैं, तो संज्ञानात्मक विचारों के प्रकाशपुंज। हम मनुष्य अभिशप्त नहीं हैं और यथास्थितिवादी होना हमें स्वीकार्य बिल्कुल नहीं। यानी प्रकृति-पर्यावरण में हमारी जीवित सत्ता बरकरार है, तो प्रलय-विनाश से भयातुर होने की जरूरत किसी को क्यों हो? अतएव, मेरा आत्महत्या के विरूद्ध होना जायज़ है अर्थात् सौ-फीसदी उपयुक्त।
यदि प्रायोजित तरीके से मनुष्य मात्र की हत्या की जानी है, तो हत्यारों को खुद से प्यार करना छोड़ना होगा। यह समय यदि सृष्टि का है और हो रहा है, तो मानवीय सर्वनाश असंभव है। सुना है....यदि चेतना में गति है, तो अन्धकार का दीर्घ होना मुमकिन नहीं। यदि व्यक्ति में शिष्यत्व का गुण है, तो उसकी गुरुता में घटोतरी बेतुकी बात है। यदि मनुष्य बहुविध बहादुरियों से लैस है, तो उसका बेलाग-बेलौस होना ग़लत नहीं है। उन्मुक्त और उत्साही होना निरर्थक नहीं है। स्वयं को सबसे अधिक मुहब्बत करना गंदी बात नहीं है। सेल्फी खींचना और सोशल स्टेटस मेंटन करना मनोदैहिक उपद्रव नहीं है। खुद को कविता-कहानी, शेरो-शायरी, रील-फिल्म आदि में अभिव्यक्त करना बिलावज़ह उत्पात नहीं है। हम यदि अपनी पहचान से परिचित हैं, स्वयं को जान चुके हैं। अपने सामथ्र्य और संभावना दोनों में संतुलन दुरुस्त है, तो हमें अपने रचनात्मक क्रियाशीलता पर गर्व करना चाहिए। हमें निद्र्वंद्व जीने का हक है। इस जगह मेरा आत्महत्या के विरूद्ध होना जायज़ है अर्थात् सौ-फीसदी उपयुक्त।
मनुष्य निडर हैं, निर्भय हैं; क्योंकि
उसने ईश्वर कोे बनाया है। उसी नेे ईश्वर को अपना नीति-नियंता माना है। सर्वोच्चता का प्राधिकार मानव-समाज जिसे सौंप देता है वह देवता बन जाता है; यही एकमात्र सच है बाकी सब झूठ। हम मनुष्य अद्भुत क्षमता से भरे-पूरे हैं। हम जितना कह-बोल-सुन रहे हैं उससे हजार गुना हमारे भीतर अव्यक्त है; अनकहा और अनसुना भी। हम जितना रच-बुन चुुके हैं उससे कई-कई गुना अधिक सिरजने-संभालने की गुँजाइश शेष है। मनुष्य ही महाकाव्य का रचियता है, तो महाभाष्य का प्रणयनकर्ता। वह अपनी आत्मशक्ति और मनोभाषिकी का प्रवक्ता है और संकल्पशक्ति का उद्घोषक भी। दुनिया के हिसाब पक्ष में मनुष्य मात्र की वैयक्तिक गणना गौण भले हो, जबकि वह स्वतंत्र ध्वनि-स्रोत है, वाक्-तरंग का गुणग्राही संवाहक-संचारक है।
जीवित आवाज़ें मनुष्यता के बचे होने की एकमात्र कसौटी हुआ करती हंै। मर्सिया गान से सामाजिक तब्दीली संभव नहीं। कुँए में भाँग डालने वाले पर नकेल संभव नहीं। परिवर्तनकामी राजनीति की स्थापना के लिए आज़ाद लब चाहिए ही चाहिए। शोषण-उत्पीड़न के विरूद्ध आक्रोश, विद्रोह, असंतुष्टि आदि का होना तयशुदा चीज है। दरअसल, क्रांतिधर्मिता एक भीतरी त्वरा है जिसका मुख्य कार्य हमारी चेतना को कार्यकारी बनाना है। वैचारिक सक्रियता का अर्थ विचार-प्रत्यय का मानुषिक विवेक से सीधे जुड़ा होना है। विचारधारा में अनुभव और स्मृतियाँ गुणसूत्र की माफ़िक अनुस्यूत हुआ करती हैं। वह जनतंत्र का प्रस्तावक है, नियंत्रक नहीं। वह स्वतंत्रता का नियामक है, निर्धारक नहीं। यानी विचारधारा मानुषिक अधिकारों का बँटवारा करने की जगह उनका सर्वसाधारणीकरण करती हैं। वह केन्द्रीकरण को ख़ारिज कर विकेन्द्रीकरण की मनोवृत्ति में इज़ाफा लाती हैं। इन सब तथ्यों से भली-भाँति परिचित होने के बावजूद जिन किन्हीं लोगों ने असमय अपनी सांस की डोर काट ली है वे अपनी सदिच्छा की लाख घोषणा करें वह अपने साथी युवाओं को मर्माहत करने के दोषी हैं। पुनश्च, मेरा आत्महत्या के विरूद्ध होना इसीलिए जायज़ है अर्थात् सौ-फीसदी उपयुक्त।
त्रासदी
बर्बर और क्रूर न हो, तो मनुष्य स्वयं से प्रेम करना भूल जाता है और पूर्णतया ईश्वर पर निर्भर हो जाता है। अपनी ही बनाई चीजों की परिधि में कैद हो जाता है। दुःख मनुष्य को तोड़ न दे, तो उसे अपनी अन्तर्जात प्रकृति का वास्तविक भान कतई नहीं हो पाता है। इसी तरह हिंसक वारदात या कि मानुषिक अपराध यदि हद दरजे तक असुरक्षा बोध न पैदा करे, तो सामूहिक अचेतन के ऊपर से हमारा विश्वास हट जाता है। अतः आर्तनाद या त्राहिमाम् मेरी शब्दावली नहीं, इस समय तो हरगिज़ नहीं। असुरी वृत्तियाँ और पाश्विक प्रवृत्तियाँ इन दिनों उभार पर हैं। घटनाएँ लगातार घटित हो रही हैैं। वह एकदम से नृशंस होती जा रही हैं। सभ्यता और संस्कृति उसकी चपेट में सबसेे अधिक आने लगी हैं। दुनिया का वैश्विक भूगोल सबसे अधिक खतरे में है, तो स्थानीय दुर्गुण भी एकबारगी भयंकर और विकराल रूप अख़्तियार करती जा रही हैं। नतीजतन, चीख और चीत्कार की काली छाया मुझे दबोच लेने को आतुर हैं। ऐसी संकटपूर्ण घड़ी में मेरा आत्महत्या के विरूद्ध होना जायज़ है अर्थात् सौ-फीसदी उपयुक्त।
हमें ध्यान रखना होगा कि सोने-चाँदी और हीरे-जवाहरात
से लदी-फदी राजसत्ताएँ मिट्टी-पलीद हुई हैं। राजतंत्र के उपासकों और आभिजात्य समर्थकों का पूरा तंत्र बार-बार स्वाहा हुए हैं। जो मर चुका है उसके जीवित बचे होने की घोषणा बेकार है। हाँ, जो मार रहा है उससे ख़िलाफ में चेतस-प्रदर्शन अपरिहार्य एवं अनिवार्य है। मरने वाले के पास प्रतिरोध एकमात्र औजार है जिसे आजमा कर बचा जा सकता है। देखें, इतिहास में युद्धों की लम्बी शृंखला रही हैं, किन्तु हिंसक वारदातें और अंतहीन हत्याओं का दौर थमा जरूर है। यह सब हुआ है, क्योंकि मारने वाले मरने वाले से अधिक भयभीत और नपुंसक हुआ करते हैं। वे कई बार अपनी बुजदिली को हत्याओें के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। वे इस हद तक कायर होते हैं कि दुनियावी लोक-संसर्ग की सात्त्विक वस्तुओं का अपहरण कर लेना उनकी तबीयत में शुमार हो जाता है। सबसे अजीबोगरीब स्थिति तब होती है जब वे अपहृत विषयवस्तु कोे अपनी भाषा में पूज्य और अराध्य माननेे लगते हैं तथा आमजन को इस दिशा में इरादतन लामबंद करने में जुट जाते हैं। वस्तुतः उनका धार्मिकमना होना धर्म का उपहास उड़ाना होता है, लेकिन ग़लत लोग अपनी ग़लतियों को छुपाने के लिए लगातार सत्संग करते हैं, यज्ञ-हवनकुंड तैयार करते हैं। कीर्तनमंडली और भजनराग द्वारा लोगों की चेतना पर बलपूूर्वक काबिज़ होने का कुचक्र रचते हैं। वह साम्राज्यवाद का विरोध करते-करते अपने भाई-बंधु-परिजन केे विरूद्ध हो जाते हैं। वह पूँजीवाद का बहिष्कार करते-करते अपनी ही नीति और वैचारिकी में उसका प्रचारक हो जाते हैं। वह बहुराष्ट्रीय उत्पादों की कब्ज़ेदारी बर्दाश्त नहीं करने का ‘एजेण्डा’ जनता के समक्ष रखते हैं, किन्तु सबसे पहले देसी-उत्पादों पर प्रतिबंध अथवा कर यही लोग लगाते हैं। ऐसे दोमुँहे लोग प्रायः आधुनिकतम अथवा नवाधुनिक तरीके से इतिहास का लिखित-रंगमंच तैैयार करते हैं; यह जानते हुए कि इतिहास के बरास्ते भूत का चाहे कितना भी दस्तावेजीकरण या कि गुणगान क्यों न कर लिया जाए उसे जनस्मृति या लोकानुभव का हिस्सा बना सकना संभव नहीं है। लिहाजा, अपनी तमाम असफलताओं को हत्यारी सत्ताएँ सांस्कृतिक उपद्रव के माध्यम से सत्यानाश करने में जुट जाती हैं। वह सत्य का वाचक होने की जगह प्रवंचक हो जाती हैं। वह सबसे पहले उनको दबोचती है जिन्हें अपने सही होने का गुमान होता है। अतएव, मेरा आत्महत्या के विरूद्ध होना जायज़ है अर्थात् सौ-फीसदी उपयुक्त।
‘सत्यमेव
जयते’ ख़ालिस नारा, स्लोगन अथवा प्रचार नहीं है; यह वह मूल सैद्धान्तिकी है जिसे नियामक मानकर लोकसत्ता अपने मजबूत होने का दावा करती आ रही हैं। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, न्याय, पारदर्शिता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता, सम्यक् विचार आदि तक इसी बरास्ते(जनतंत्र) सफलीभूत होते हैं। अतः हमारे लिए यही बड़ा एवं मुख्य आदर्श है जिसकी षष्ठीपूर्ति में हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं, तो स्वाधीनता दिवस। हम अपने महापुरुषों को याद करते हैं, तो आचार्यों का दिल से आभारी होते हैं। यह सच है कि हम हर मामले में निर्वैयक्तिक नहीं हो सकते हैं; विशेषतया गुरु-शिष्य सम्बन्ध में तो हरग़िज नहीं। लेकिन गुरु की निजता की रक्षा हेतु ग़लत को ग़लत कहने से तौबा भी नहीं कर सकतेे हैं। अतएव, इस घड़ी मेरा आत्महत्या के विरूद्ध होना जायज़ है अर्थात् सौ-फीसदी उपयुक्त। अर्थात्-
आओ बुरी आत्माओं,
शक्तियों, सामंतों,
बहुुरुपियों,
नकलचिओं, ढपोरशंखियों आओ
आओ और देखो, हम कितने हिम्मती
प्रतिरोध की शब्दवालियाँ कितनी दृढ़
हम अधीर नहीं, हार गए मोहरे नहीं
इतिहास के हम ही मुख्य शिल्पी
जीवन रचनेे-बुननेे वाले कारीगर
वर्तमान ही हमारा सर्वस्व
भविष्य की ओर खुली हमारी बाँह
हम चेतस, क्रियाशील, ऊर्जस्वी
हमारा एक ही नारा-‘नौजवानों, खुद को जानो!’
हम दुश्मनों के कातिलगाह में
प्रतिरोध बन उमगेंगे
सीने में क्रांतिबीज बोएंगे
पर आत्महत्या नहीं करेंगे....!!!’
हम उनके सामने अपने पैरोें पर खड़ा हो कहेंगे-
‘ओ, सभ्यता के विनाशको...,
संस्कृति का उपहासकर्ताओं
परम्परावाही होने का स्वांग रचते ढपोरशंखियों
युवा-शक्ति पर नाज़ायज कब्ज़ा करने वाले सत्ताधारियों
हमारा ज़िन्दा होना तुम्हारे सीने पर कील ठुकना है
हम लड़कर जिएंगे, बोल कर चुप होंगे
हम दावानल-सा भभकेंगे,
तुफानों-सा उमड़ेंगे
साथी, हम बिना बर्बर और हिंसक हुए लोहा लेंगे....
पर आत्महत्या नहीं करेंगे....!!!’
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