प्रिय देव-दीप,
आज होली है और तुमदोनों अपनी मम्मी, दादा-दादी और चाचा-चाची के साथ हो। खुश रहो। अपनी रंग में रंगों अपनों को। उन सब को जो तुम्हें हीक भर दुलारते हैं, प्यार करते हैं। मैं थोड़ा अभागा हूँ। खुशी के मौके पर तुमसब का साथ न होने या साथ छोड़ देने की मेरी बीमारी पुरानी है। मैं कभी यह समझ ही नहीं सका कि मुझे क्या चाहिए और क्यों चाहिए? तुमसब मेरे केन्द्र में नहीं रहे और जो चीजें केन्द्र में है उसकी परिधि मैं बना नहीं पा रहा हूँ।
देव-दीप, तुम्हारी मम्मी की मुझसे बड़ी शिकायत रही है कि मैं उसकी क्या...बच्चों का भी साथ नहीं देता। तुमदोनों बड़े हो गए और मुझे इस बात का अहसास तक नहीं। 2005 में देव तुम्हारा जन्म हुआ, तो इस सोच के साथ कि अब मैं तुम्हारी माँ को अकेला छोड़ सकता हूँ। वह मेरे बगैर तुम्हारा साथ पा खुश रह सकती है। यह कितनी खुश रही, मुझे नहीं पाता; लेकिन मैंने अपनी सोचावट के मुताबिक उसका साथ छोड़ा। 2006 में ग्रेजुएशन के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रयोजनमूलक हिन्दी पत्रकारिता विषय से परास्नातक परीक्षा वर्ष 2009 में उत्तीर्ण की। टाॅपर रहा। गोल्ड मेडेलिस्ट का तमगा मिला; लेकिन नौकरी नहीं। और जानने और पढ़ने की धुन के कारण एम. फिल. करने की सोची। फेलोशिप के साथ वर्धा के महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय महाविद्यालय में जनसंचार पाठ्यक्रम से दाखिला लिया। लेकिन रह न सका। उसी वर्ष मेरा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रयोजनमूलक हिन्दी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत चयन हो लिया। फेलोशिप भी तीन हजार की जगह पाँच हजार थी और छात्रावास की सुविधा भी। मेरी तो लाॅटरी लग गई थी। सोचा, घर से पैसे न लेने पड़ेंगे। पर ऐसा हुआ नहीं, स्काॅलरशिप पीएच.डी. में दाखिला के सात माह बाद मिले। पापा को दिलासा देता रहेगा, नियम है, तो पैसा देर-सवेर मिलेगा...और मिला भी। घर में मुझसे दो छोटे भाई थे और उनका खर्च भी पापा को ही उठाना था। पर पापा पर बोझ बने रहने के सिवा मेरे पास कोई चारा नहीं था।
देव-दीप, दिसम्बर-2010 में मैंने जनसंचार एवं पत्रकारिता विषय से नेट-जेआरएफ उत्तीर्ण किया। यह बड़ा अवसर था जब मैं अपना पीएच.डी. पूरा किए हुए ही नौकरी के लिए आवेदन कर सकता था। लेकिन यह उम्मीद उस समय बेकार निकली जब अपने परास्नातक के पाठ्यक्रम को बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने वर्ष-2012 में अमान्य घोषित करते हुए साक्षात्कार के लिए नहीं बुलाया। मुझसे कम मेरिट वालों को साक्षात्कार देने का मौका मिला, मुझे नहीं। मैं इसके लिए रोया, लिखित में गिड़गिड़ाया; पर किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगी। कहा गया, यही दुनिया है...जीने की आदत डालो। अपना पीएच.डी. का काम पूरा करो; यदि सौभाग्य जगा तो नौकरी जरूर मिल जाएगी।
उन दिनों मैं सोच रहा था-सौभाग्यशाली होने के लिए आज के ज़माने में धनबल-बाहुबल जरूरी है। लिखंत-पढ़ंत सब झूठ है। सब झूठ की चाकरी करते हैं। इस बात की नौकरी करते हैं कि येन-केन-प्रकारेण खुद को कैसे जिलाया जाए औरों के हिस्सों पर अपना कब्जा कैसे जमाया जाए। अपनी समृद्धि और सम्पन्नता को कैसे बखाना जाए। सब अपने में ही पेनाहे होते हैं। जरूरतमंद की सुध लेने से उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा बेमानी हो जाती है। इस नाते आजकल लोग अपने और अपने जैसे लोगों के लाभ-हानि के बारे में ज्यादा सोचते हैं। उन्हें अपना नाम चमकानी होती है और अपनी ही ख्याति का आरती उतारते हुए देखना होता है।
मैं तो सांविधानिक नियम, अधिकार, मानदंड, निकष, प्रतिमान आदि के अनुसार अपनी योग्यता के आधार पर अपना वाजि़ब हक पाने के लिए लड़ रहा था। इस मुठभेड़ में प्रतिभा गई तेल लेने, गोल्डमेडेल पर कालिख़ पुत गई। लिखे-पढ़े को कचरा-पेटी में डाल दिया गया। आवेदन करने पर शार्टलिस्ट कर लिया जा रहा था; किन्तु नौकरी नहीं दी जा रही थी। सिक्किम केन्द्रीय विश्वविद्यालय में साक्षात्कार देने के लिए मेरे अतिरिक्त दो लोग उपस्थित हुए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष प्रो. शिशिर बसु एक्सपर्ट थे; उन्होंने माननीय कुलपति को साफ शब्दों में कह दिया कि यह मासकाॅम से मिलता-जुलता पाठ्यक्रम है; किन्तु पूरी तरह मासकम्युनिकेशन नहीं है। मैंने चैलेंज किया। एक्सपर्ट के सवालों का जवाब दिया। लेकिन मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
देव-दीप, अपने पाठ्यक्रम के सारे प्राध्यापक पलायित हो गए। उनके मुखमण्डल पर व्रजपात हो गया। लोगों ने यहाँ तक कहना शुरू कर दिया कि हिन्दी विभाग में पढ़े हो, पीएच.डी. कर रहे हो तो कायदे से तुम्हें हिन्दी साहित्य में ही नेट-जेआरएफ होना चाहिए। यह भी कहा कि यदि पत्रकारिता में ही जाना है, तो मासकाॅम में परास्नातक डिग्री क्यों नहीं ले लेते।
इन सब दुष्चक्रों के बीच तुमलोग कहीं छूट गए। तुम्हारी मम्मी के भरोसे के साथ पढ़ रहा था। उसने मुझे पकड़े रखा। साथ नहीं छोड़ा। उलाहना नहीं दी। दो-बात कभी नहीं सुनाई। हम टिपिकल भारतीय परिवार से आते हैं जहाँ का घरेलूपन स्त्रियों के लिए त्रासजनक होता है; तुम्हारी मम्मी उसका भयंकर शिकार रही। मैंने उसे हमेशा कहा-जाने दो। उसने हमेशा जाने दिया ताकि मेरी घर की ओर से निश्चिंतता में बाधा न आए।
वर्ष 2015 के 12 अगस्त तक कई कहानियाँ घटित होती रहीं और उसका मुख्य मोहरा मैं ही रहा। इस लड़ने-भिड़ने में मेरा काफी नुकसान हुआ, उसकी भरपाई संभव नहीं है। लेकिन वर्ष 2016 में अब ऐसा कुछ नहीं होगा। तुमलोग मेरे साथ रहोगे। मैं जून में अपना थिसिस सबमिट कर रहा हूँ...फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सदा-सर्वदा के लिए विदाई। इस विश्वविद्यालय द्वारा कई तरह से प्रताडि़त किए जाने के बावजूद शोध-प्रबंध सबमिशन अपने शोध-निर्देशक के प्रति आंशिक कृतज्ञता ज्ञापित करना है। वे सलामत रहें, खुश रहें...यही मुख्य मनोकामना है। मैं माता-पिता के बाद एकमात्र उनके प्रति श्रद्धा रखता हूँ। वैसे अपनी जिंदगी में विश्वास सिर्फ तुम्हारी माँ के ऊपर करता हूँ और किसी पर नहीं।
तुम्हारा पिता
राजीव
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