Wednesday, March 30, 2016

हाँ जी, हम अपनी भाषा बोलते हैं!

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राजीव रंजन प्रसाद


प्यारे मित्रो, 

भारत के सांविधानिक नक्शे में हिंदी भाषा राजभाषा के रूप में मान्य है। यह राष्ट्रभाषा है और सम्पर्क भाषा भी। राजभाषा यानी अंग्रेजी के सहप्रयोग के साथ राजकीय विधान, कार्यालयी काम-काज, अकादमिक लिखा-पढ़ी, ज्ञान-विज्ञान, अन्तरानुशासनिक-अन्तर्सांस्कृतिक प्रचार-प्रसार इत्यादि में सांविधानिक रूप से मान्यता प्राप्त एक वैध भाषा। वह भाषा जिसके बारे में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत काफी कुछ लिखित एवं वर्णित है। यही नहीं अनुच्छेद 120 में संसद में भाषा-प्रयोग के बारे में हिंदी की स्थिति स्पष्ट है, तो अनुच्छेद 210 में विधान-सभा एवं विधान-परिषद में हिंदी के प्रयोग को लेकर ठोस दिशा-निर्देश उल्लिखित है। वहीं सम्पर्क-भाषा कहने का अर्थ-आशय रोजमर्रा के प्रयोग-प्रचलन की भाषा; कुशलक्षेम, हालचाल की भाषा, आमआदमी के बोली-बर्ताव की भाषा। यह हमारी आय और आमदनी की भाषा भी है जिसे पारिभाषिक शब्दावली में इन दिनों प्रयोजनमूलक हिंदी कहा जा रहा है। अनुप्रयुक्ति की दृष्टि से यह नवाधुनिक क्षेत्र है जिनका महत्त्व एवं प्रासंगिकता हाल के दिनों में तेजी से बढ़े हैं।

अंग्रेजी झाड़ता हिंदीज़बानी ‘जेन्टलमैन
यह जरूर है कि अंग्रेजी मानसिकता से लदे-फदे तथाकथित बौद्धिक ज़मात हिंदी भाषा को क्लिष्ट, जटिल, भदेस आदि मानने से नहीं बाज आते हैं; जबकि सचाई इसके उलट है। ऐसे तथाकथित इंटेलेक्चुअल/प्रोफेसरान इरादतन हिंदी भाषा के अकादमिक प्रयोग से भले बचते हों; लेकिन गालीगलौच से लेकर अपने घरेलूपन में प्रायः हिंदी भाषा में ही बोलते-बतियाते मिल जाएँगे। पैरछुआई को भारतीय संस्कार और स्त्रियों को घर की रखनी कह इठलाने वाले आधुनिकमना लोग अंग्रेजी साहित्य--विज्ञान पढ़ते-पढ़ाते अवश्य हैं, किन्तु स्वयं उस स्तर की मौलिक सर्जना कर पाने या विचार-भूमि बना सकने में पर्याप्त रूप से अक्षम हैं। दरअसल, ऐसी चालाकियाँ भारत के उच्चशिक्षित लोगों के दोहरे चरित्र और उनकी कूपमंडूता का द्योतक है जो अक्सर अंग्रेजी का गुणगान करते हैं और हिंदी को हेय समझने की धृष्टता करते हैं। हमें ऐसे व्यक्तित्व-व्यवहार का मनोविज्ञान जानना आवश्यक है। ऐसे बहुरूपियों के इतिहासबोध, संज्ञानात्मक क्षमता, अवधारणागत प्रत्यय आदि की परख जरूरी है। पुस्तक पढ़कर ‘इंटरडिसिप्लनरी डिस्कोर्स, ‘इनोवेटिव रिसर्च, ‘इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट’ की बात बघारने वाले की असली औकात क्या है; इस सचाई का पता तब चलता है जब देश के महामहिम राष्ट्रपति भारत के किसी भी एक विश्वविद्यालय को विश्व के प्रमुख 200 विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल नहीं होने का हवाला देते हैं, इसको लेकर अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं। टाइम्स हायर एजूकेशन संस्था से जुड़ी रिपोर्ट भी इस बात की पूर्णतया पुष्टि करती है। जरा रोजगार की योग्यता परखने वाली संस्था ‘एस्पाइरिंग माइंड्ससे जुड़ी एक ताजा रिपोर्ट पर गौर करें जो साठ हजार छात्रों का परीक्षण करके तैयार की गई है। रिपोर्ट से यह बात साफ हो जाती है कि अधिकांश छात्र अंग्रेजी में संवाद-कौशल, कंप्यूटर ज्ञान, विश्लेषण एवं संज्ञानात्मक कौशल और बुनियादी लेखों में उन शर्तों को पूरा नहीं करते जिनके आधार पर उन्हें ऊँचे पदों वाली नौकरियाँ मिल सकती हैं। आश्चर्य होगा यह जानकर कि इस संस्था के टेस्ट में मात्र दो फीसद छात्र ही काॅरपोरेट कम्यूनिकेशन और कंटेट डेवलपमेंट की नौकरी के योग्य पाए गए। केवल दो फीसद में एकाउंटिंग और तीन फीसद में विश्लेषक की नौकरी पाने की योग्यता दिखाई दी। दूसरी ओर 36 फीसद छात्र मात्र क्लर्क बनने योग्य पाए गए। गौर करने लायक बात यह है कि जिस युग में साइंस और एकाउंटस में योग्य कर्मियों की सर्वाधिक मांग है ऐसे समय में हमारे काॅलेजों से कम योग्य छात्र निकल रहे हैं। इन सारे फीसदियों में हिंदी माध्यम का योग-हिस्सा बहुत कम बैठता है; अधिसंख्य अंग्रेजी पैटर्न/सिलेबस के ही अनुसरणकर्ता हैं; अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों, महाविद्यालयों अथवा विश्वविद्यालयों के पढ़ाकूजन हैं। अतः मेरा संकेत आपका ध्यान इस ओर दिलाना है कि अंग्रेजी के ज्ञान का आडम्बर रचकर हमें सायासतन अपनी हिंदी भाषा से दूर किया जा रहा है; क्षेत्रिय परिधि में रचे-बसे हिन्दी की केन्द्रीयता को नष्ट-विनष्ट किया जा रहा है। ज्ञान-सृजन की दृष्टि से यदि अंग्रेजी हममें सही एवं सार्थक विचार-दृष्टि रोपने एवं उनके उमगने में मददगार है, तो निश्चय ही हमें अंग्रेजी भाषा को अपनाना चाहिए; आत्मविश्वास के साथ इसे सीखने-जानने में खुद को जोत देना चाहिए। लेकिन जब इससे हमें हासिल होना-जाना मामूली हो, तो उस स्थिति में अपनी मौलिकता, नवीनता, नवोन्मेषी विचार-दृष्टि आदि को अपनी मातृभाषा में फलने-फूलने देना क्योंकर ग़लत है? यहाँ मनोवैज्ञानिक चाल्र्स स्पीलबर्गर से सहमत होना सही प्रतीत होता है-‘‘जैसे-जैसे हमारा माहौल प्रतिस्पर्धी होता जा रहा है, काल्पनिक शत्रुओं की एक फौज तैयार होती जा रही है। स्पद्र्धी माहौल में हम खुद को भय और असुरक्षा में घिरा पाते हैं।‘’ युवा वर्ग इस विडम्बना और त्रास का सबसे अधिक शिकार है। अंग्रेजीदान ज्ञान-कौशल हासिल करने में रात-दिन नधाए ऐसे ही युवजन को लक्ष्य कर लेखिका विजया शर्मा ने मानीखे़ज बात कहीं हैं-‘‘अमूमन युवा वर्ग शिक्षा को ज्ञान हासिल करने लिए अर्जित नहीं करता, बल्कि डिग्री पाने के लिए शिक्षा ग्रहण करता है। इससे होता यह है कि ज्ञान उसके पास कम होता है और डिग्रियाँ ज्यादा। तकनीकी विकास ने व्यक्ति के काम करने की शक्ति को घटाया है। आज कंप्यूटर तथा इंटरनेट के चलते युवा को कम मेहनत कर ज्यादा मनोरंजन और जानकारी हासिल हो जाती है जिससे उसकी पठन और लेखन की शक्ति घटती जा रही है। आज विद्यार्थियों के पास लिखित नोट्स कम होते हैं, जेराॅक्स काॅपियाँ ज्यादा होती हैं। वह अपना रहन-सहन, खान-पान सभी चीज अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण नहीं करता, बल्कि दूसरों को क्या अच्छा लगता है, उसको केन्द्र में रखता है। इससे वह अपने को कठमुल्ला बनाता है और निजी अस्मिता, शक्ति और रुचि को नष्ट करता है।‘’ अतएव, हमें अपनी हिंदी भाषा को स्थानिक स्तर पर इस भय और असुरक्षा के माहौल से बाहर निकालना होगा। संभाव्य-चेतना के निर्माण हेतु भी इस दिशा में अथक एवं सार्थक चिंतन-मनन जरूरी बेहद जरूरी है। इसके लिए निज प्रेरणा, संकल्प एवं दृढ़निश्चय अत्यावश्यक है। यह इसलिए भी कि हिंदी में आज भी कहन का चलन बहुत दिव्य है, जबकि करनी में अपने द्वारा ही कही गई बातों को अमल में लाने से साफ परहेज़ दिखाई देता है। इसी तरह हिंदीभाषी क्षेत्रों में राजनीतिक आलाप-प्रलाप बेशुमार है, तो अधिसंख्य ढपोरशंखी अकादमिक विद्वजनों द्वारा कराए जा रहे स्तरहीन शोध-अनुसन्धान इसी समिधा में खेत हैं। हिंदी-अंग्रेजी-शोध की स्तरीयता का निकष यह है कि पूरा प्रबन्ध सूचनाक्रांत या कि ‘विजुअल एड्स(आँकड़ों, तथ्यों, टेबुलों, ग्राफों, फिगरों, चित्रों आदि) से अटा पड़ा हुआ।

हिंदी का विश्वभाषायीकरण
नौकरशाह और आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी(English) स्वतन्त्रा पूर्व एवं पश्चात दोनों समय सत्ता की भाषा रही है। हिन्दी के सन्दर्भ में देखें, तो सत्ता की क्रूरता और अमानवीयता व्यक्ति तथा समाज के विकास को किस प्रकार रोक देती है; इसका उदाहरण हिंदीपट्टी का जनसमाज है। चिंतक-मनीषी और साहित्यकार डाॅ. रघुवंश इस विडम्बना की स्थूल-सूक्ष्म पड़ताल करते हुए कहते हैं-‘’आज देश की पूरी परिस्थिति के संदर्भ में ही भाषा के बारे में सही दृष्टि पाई जा सकती है। जिन सामाजिक, राजनीतिक तत्वों को स्वाधीन होने के बाद अधिक संगठित और शक्तिशाली हाने का मौका मिला है, उन्होंने देश की सारी अर्थ व्यवस्था को वर्ग विशेष के हित में नियोजित करने मे सफलता पा ली है। शक्तिशाली नेतावर्ग, किसी भी दल का हो, सर्वाधिक पूंजी को नियंत्रित करने वाला पूंजीपति वर्ग और उच्चतम स्तर पर शासनतंत्र को चलाने वाला अधिकारी वर्ग, इन तीनों में अनजान ऐसा समझौता है कि सारी समाजवादी परिकल्पनाओं और घोषणाओं तथा लोक कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद हमारे देश, समाज, के ऊपरी सतह पर ये वर्ग और इनके साथ जुड़ा हुआ समाज वास्तविक लाभ उठा रहा है। ऊपरी सतह का यह समाज अपने लिए सारे सुख भाग के साधन जुटा रहा है और देश बृहत्तर समाज रोजी रोटी के संघर्ष मे भी धीरे धीरे पीछे हटता जा रहा है। अंग्रेजी कूटनीतिक मेधा ने राजनीतिक शासन और अधिक शोषण के लिए भारत में अंग्रेजी भाषा को महत्वपूर्ण माध्यम स्वीकार किया था। शासक वर्ग की शक्ति और सत्ता को स्थापित रखने के लिए अंग्रेजी भाषा उन्हें जन समाज से अलग करती थी। साथ में आने वाले भारतीय को मानस और पहचान में अपने ही समाज से अलग करती थी। शासन और सत्ता के प्रति भय और आतंक पैदा करने में भी सहायक रही। संसार में उभरते हुए नए शक्ति संतुलन के कारण अंग्रजों को भारत छोड़ना पड़ा, पर देश के विभाजन के अभिशाप के साथ पूरे समाज में अलग मानसिकता रखने वाले अंग्रेजी जानने वाले वर्ग को अपने शासन तंत्र के साथ छोड़ा। शुरु में यह वर्ग चकित एवं विभ्रमित जरूर था, पर क्रमशः सत्ता की राजनीति और पूंजीवादी शक्ति के संगठन के साथ जुड़कर प्रभावी बनता गया। विभिन्न वर्गों से बने हुए समाज की यह ऊपरी सतह अपने निहित स्वार्थ की दृष्टि से पूरे जन समाज के साथ न तादात्म्य स्थापित करना चाहती है और न बातचीत करना। इसके लिए सुविधा की भाषा अंग्रेजी है। ज्ञान, विज्ञान, प्रविधि और बहुमुखी विकास के नाम पर अंग्रेजी की दुहाई दी जाती है और इस जगह सभी प्रदेशों के इस सतह के लोग एक हो गए हैं। एक ओर छियासठ करोड़ जनता के विकास की बात की जाएगी दूसरी ओर ज्ञान, विज्ञान और प्रविधि को ऊपर से नीचे तक छनते जाने का कोई उपाय नहीं है। और न ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर तक किसी प्रकार का आदान प्रदान संभव नहीं हे। इस सतह के इन वर्गों में संख्या विस्तार होता चल रहा है। पढ़े लिखे बौद्धिक वर्ग की एक विडंबना है, वह बौद्धिक स्तर पर भले ही परिस्थिति के यथार्थ को समझ सके और कारणों को विश्लेषित भी कर सके, पर उसके मन में सुख सुविधाओं का ऐसा आकर्षण रहता है कि इस वृत्त में शामिल होने के लिए लालायित रहा है। तब इसका इस्तेमाल आसान हो जाता है। ये सारे लोग और इस सतह का समाज अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए भाषा के सवाल उलझाता रहता है। इसी समाज ने हिन्दी बनाम भारतीय भाषाओं का सवाल उठा लिया है। इस सवाल को लेकर धुंध इस प्रकार फैलाई गई है कि जैसे हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अलग पक्ष हैं, उनमें कहीं विरोध है। जब कि सीधा सवाल अंग्रेजी बनाम सभी भारतीय भाषाओं का है। हिन्दी भारतीय भाषाओं के साथ ही है, अलग नहीं, ऊपर नहीं। हिन्दी अंग्रेजी के स्थान पर नहीं है, यह स्पष्ट है। कुछ अतिवादी लोग हर जगह और हर युग में होते हैं, पर उनकी बात व्यर्थ है। यह तो नितांत स्पष्ट है और सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने स्पष्टतः कहा है कि हर प्रदेश के भाषा अपने प्रदेश के संपूर्ण व्यवहार और अभिव्यक्ति की भाषा है।‘’ दरअसल, भाषा का सम्बन्ध जिस तरह मन एवं बुद्धि से होता है उसी तरह उसका सम्बन्ध हर व्यक्ति की रोजी-रोटी तथा पारिवारिक विकास से जुड़ा होता है। हमें यह बात भलीभाँति समझ लेनी चाहिए। संकुचित स्वार्थ के कारण भारतीय भाषाओं को नकारना अथवा उनके प्रति हीनभावना दर्शाना हमारी मानसिक दासता का परिचायक है और इस पर अंग्रेजियत का प्रभाव दर्शाता है, जो पिछले कई दशकों से हिंदी की प्रगति में बाधक बना हुआ है। तिस के बावजूद विद्वजनों का स्पष्ट मत है कि-‘‘हिंदी की उपादेयता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। सूचना-प्रौद्योगिकी के इस बदलते परिवेश में फिर भी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं ने धीरे-धीरे अपना स्थान बना लिया है और प्रगति के पथ पर अग्रसर है।‘’ हमें इस तथ्य को भी नहीं बिसारना चाहिए कि-‘‘सूचना प्रौद्योगिकी के सन्दर्भ में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं का भविष्य उज्ज्वल तो है; परन्तु बहुत कुछ प्रयोक्ता की माँग पर निर्भर करता है। यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार 44 प्रतिशत भारतीय हिंदी वेबसाइटों और सर्च इंजनों की माँग करते हैं।‘’ अर्थात् हिंदी भाषा के प्रयोग-व्यवहार से सम्बन्धित प्रयुक्ति-क्षेत्र में इज़ाफा एक ऐसी सचाई है जिसे झुठला सकना अब मुमकिन नहीं है। विपणन-बाज़ार की मोटी आय का साधन हिंदी विज्ञापन किस कदर प्रमुख भूमिका में हैं; यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी के वैश्विक परिदृश्य आज तेजी से बदल रहे हैं। प्रवासी-जीवन में हिंदी के प्रति राग-अनुराग-वैराग अलग धरातल पर है जिस ओर हमारा ध्यान जाना लाजिमी है। प्रवासी भारतवंशियों के यहाँ वाद-विवाद-संवाद एकदम जुदा अंदाज में व्यवहृत है। यानी प्रवासी भारतीयों ने हिंदी-अंग्रेजी का विवाद खड़ा किए बिना हिंदी को जो ऊँचाई, मान और तवज्ज़ों प्रदान की है। इसका अनुमान फेसबुक, ट्विटर, सोशल मीडिया के जानकारों को सर्वाधिक होना चाहिए। आज हिंदी भाषा यूनीकोड संस्करण के अन्तर्गत अमेरिकी आलाकमानों तक से बतिया ले रही है, तो माॅरीशस के सचिवालय तक में अपनी मजबूत पैठ रखने में सफल है। ध्यान देने योग्य है कि हिंदी ने देशों को नहीं चुना; बल्कि विभिन्न देशों के भारतीय रहवासियों ने हिंदी को अपनाया और विचार अभिव्यक्ति हेतु एक साझा एवं सक्षम मंच बनाया है। यूँ तो इस ‘प्रवासीशब्द के प्रयोग से मेरी गहरी असहमति है। दरअसल, प्रवासी होने का अर्थ यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका, फिजी, माॅरीशस, सूरीनाम आदि होना हरग़िज नहीं है। यह भी कि प्रवासी होने का अर्थ अपनी मूल काया, छाया, खून, माटी आदि से कहीं दूर अवस्थित होना नहीं है। दरअसल, चाहे यह रहवास व्यवस्थित हो अथवा बेतरतीब; जड़ से जुड़े संस्कार गौण हों या पूर्ण; पुरखों का कभी किसी ज़माने में भारतीय होना ही हमारी दृष्टि में भारतीयमना होना है। अर्थात् तमाम आधुनिक अभिवृत्तियों में शामिल-शुमार होने के बावजूद यदि हमारा मन भारतीय सामाजिकता और संस्कृतिपन की ओर सहज खिंचा चला आता है या कि बिना किसी स्वार्थ एवं दबाव के इस ओर रमता है, तो हम यह कह सकते हैं कि कुल विदेशीपन के बावजूद दिल है हिन्दुस्तानी। अतएव, हिंदी में उनका लिखा-पढ़ा, कहा-सुना, रचा-बुना सारा साहित्य धन अपना है; मूलतः भारतीय साहित्य है। साहित्य में विभाजन नहीं, वर्गीकरण नहीं, लिंग, जाति, समुदाय, मज़हब, सम्प्रदाय आदि को भेद-प्रभेद नहीं; यह बात सर्वमान्य है, सर्वविदित है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी के बारे में महात्मा गाँधी की सोच का समर्थन आवश्यक है-‘‘प्रांतीय भाषा या भाषाओं के बदले में नहीं बल्कि उनके अलावा एक प्रांत से दूसरे प्रांत का सम्बन्ध जोड़ने के लिए सर्वमान्य भाषा की आवश्यकता है और ऐसी भाषा तो एकमात्र हिंदी या हिंदुस्तानी ही हो सकती है।‘’ इस कथन के आलोक में लिपि का सन्दर्भ लेना भी उचित होगा कि भाषा मानव-व्यवहार की विलक्षणता और बुद्धिमता की सूचक है। भाषा के माध्यम से ही मानव अपने भावों, विचारों को दूसरे तक पहुँचाने में समर्थ होता है। भाषा की इसी निरन्तरता से प्राचीन साहित्य, विज्ञान, पारम्परिक धरोहर, लोकसंस्कृति आदि हमें इतने वर्षों बाद भी उपलब्ध है; और यह संभव हुआ है लिपि के कारण। लिपि ही किसी भाषा की समृद्धि और उसके व्यवहार-क्षेत्र को दर्शाती है। भाषा के व्यवहार-क्षेत्र की व्यापकता के कारण ही स्वतन्त्रता के पश्चात 14 सितम्बर, 1949 को देवनागरी में लिखित हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इस तरह अट्ठाइस स्वतंत्र राज्यों एवं सात केन्द्रशासित प्रदेशों से मिलकर बना भारत(इंडिया) एक बहुभाषाभाषी राष्ट्र है। सर्वेगत आँकड़ों के अनुसार(भारतीय जनगणना सर्वेक्षण, 1961) भारत में बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 1652 मानी गई हैं। इनमें से सिर्फ 22 भाषाएँ संविधान की अष्ट्म अनुसूची में शामिल हैं। इन सबमें हिंदी भाषा की प्रकृति समन्वयकारी और समुच्चयबोधक है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी का प्रयोग क्षेत्र विशाल और बहुपरतीय है। हिंदी की लिपि देवनागरी है जिसके सतत् विकास सम्बन्धी बृहद् विवेचना अनुच्छेद 343 से अनुच्छेद 351 के अन्तर्गत भारतीय संविधान में प्रदत है। डाॅ. विमलेश कांति वर्मा का मत द्रष्टव्य है,-हिंदी वस्तुतः एक भाषा ही नहीं वरन् एक भाषा समष्टि का नाम है। खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, हरियाणवी, अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी, मैथिली, मगही, भोजपुरी, मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, गढ़वाली तथा कुमाउँनी हिंदी की प्रधान शैलियाँ हैं जो क्षेत्र-विशेष में वहाँ के रहवासियों की भावाभिव्यक्ति एवं अभिव्यंजना का माध्यम है। इस भाषा का अपना लोक-साहित्य समृद्ध है। इनमें परिनिष्ठित खड़ीबोली को भारतीय संघ की राजभाषा होने का गौरव प्राप्त है। आज हिंदी का अर्थ सामान्यतः खड़ीबोली लिया जाता है जो साहित्य शिक्षा तथा साधन के माध्यम के रूप में प्रयुक्त होती है। हिंदी इस प्रकार एक जनभाषा है, सम्पर्क भाषा है, राजभाषा है और देश की राष्ट्रभाषा है। हिंदी एक समृद्ध भाषिक, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परम्परा की वाहिनी है। वह संस्कृत जैसी सम्पन्न भाषा की उत्तराधिकारिणी है, तो पालि-प्राकृत की सहमेली सखा-मित्र। डाॅ. शिवनन्दन प्रसाद की दृष्टि में,-हिन्दी से तात्पर्य उस भाषा या भाषा परिवार से है जो भारत की राष्ट्रभाषा है, जो प्राचीन ग्रंथों के मध्य प्रदेश कहे जाने वाले विशाल भूभाग की (जिसके अंदर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली समाविष्ट हैं) प्रधान साहित्यिक भाषा रही है और जिसके अंतर्गत अनेकानेक बोलियाँ-उपबोलियाँ सम्मिलित हैं।‘’

हिंदी का भाषावैज्ञानिक एवं जन-संस्कृति पक्ष
इस बारे में भाषाविद् महावीर सरन जैन का ‘हिंदी भाषा: वैश्विक व्यवहार एवं अन्तरराष्ट्रीय भूमिका’ शीर्षक से लिखा आलेख द्रष्टव्य है। यह आलेख केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से निकलने वाली ‘भाषापत्रिका के सद्यःप्रकाशित अंक में शामिल है। इस आलेख के अन्तर्गत कहा गया है कि हिंदी का वैश्विक परिप्रेक्ष्य कितना समुन्नत, नवाचारी और विचारान्वेषी है। उन्होंने भाषा के वैश्विक व्यवहार एवं व्यक्तित्व के लोकमनोविज्ञान को गंभीरतापूर्वक देखने-समझने की चेष्टा की है। क्षेत्रियता के बाहर और वैश्विकता के अन्दर हिंदी भाषा का यह आधुनिक संदर्भ निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है और अप्रतिम सृजनात्मकता का बेमिसाल उदाहरण भी। वर्तमान सन्दर्भ में हिंदी भाषा के विकसनशील स्वरूप और इसके प्रमुख संरचनात्मक तत्त्वों को भी देखा जाना आवश्यक है। यथा: भाषा की ढाँचा(स्ट्रक्चर), कार्य(फंक्शन), परिवर्तन(चेंज), निरन्तरता(रेगुलरिटी), अर्थ का सम्बोध(कन्सेप्ट आॅफ मीनिंग) आदि। आज हिंदी भाषा इनका अनुसरण करते हुए विश्व के बहुविध क्षेत्रों-स्थानों में अपनी मजबूत पहचान और पैठ बना सकने में सफल हुई है। लेकिन हमें उन संभावित खतरों को भी अपनी जे़हन में रखना होगा जिससे हमारी भाषा लगातार जूझ रही है। साहित्यकार रमेशचंद्र शाह के शब्दों में कहें तो,-‘‘एक तरफ लोग तकनीकी विकास की अंधी दौड़ में पुरानी भाषाओं को भूलते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो किसी भी कीमत पर अपनी लुप्त होती भाषाओं को बचाना चाहता है। हिब्रू तो संस्कृत से भी ज्यादा डेड भाषा है, पर लोग उसे बचाने का भी प्रयास कर रहे हैं। इंगलैंड में ‘व्हेल्सभाषा को बचाने के लिए कितने ही लोगों ने अपना जीवन दाँव पर लगा दिया। कोई नहीं जानता कि इस भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद का नतीजा क्या होगा, पर यह सच है कि भूमंडलीकरण इतिहास की अनिवार्यता है। जितने भी लोग भाषाओं को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सभी जानते हैं कि यह एक हारी हुई लड़ाई है। जरूरत इस बात की है कि हम किसी तरह दस्तावेजीकरण करके सभी भाषाओं के संस्कार को बचा लें। सभी विलुप्त हो रही भाषाओं को संगृहीत करके उनके संस्कार को जीवित रखना बहुत जरूरी है।‘’ हिंदी भाषा के साथ संस्कृति-पक्ष भी विचारणीय है। भारतीय जनसमाज बहुविध ज्ञानराशियों का खजाना है जिसमें अनगिनत संस्कृतियाँ घुली-मिली हुई हैं। इसके लिए आधुनिक भारतीय मनीषा ने ‘सामासिक संस्कृति’ शब्द प्रयोग में लिया है। ‘सामासिक संस्कृति’ शब्द-पद को डाॅ. शिवनन्दन प्रसाद अंग्रेजी के ‘कंपोजिस्ट कल्चरका अनुवाद बताते हैं जिसका प्रयोग भारतीय संविधान में हुआ है। उनका मत है कि-‘‘सामासिक संस्कृति दो या दो से अधिक संस्कृतियों का मिलनमात्र नहीं है। सामासिक का अर्थ है-मिलकर एक हो जाने वाली। जब दो या दो से अधिक संस्कृतियाँ मिलती हैं तब दो प्रकार की क्रियाएं होतीं हैं। संस्कृतियों के कुछ तत्व ऐसे होते हैं-चाहे वह धर्मभावना हो, कला रुचि हो, साहित्य परंपरा हो या भाषा हो-जो मिलने वाली विभिन्न संस्कृतियों में समान रूप से स्वीकृत हो जाते हैं। उन तत्त्वों का अजनबीपन जाता रहता है। वे इन सभी संस्कृतियों में रच-बस यानी खप जाते हैं। दूसरी ओर कुछ तत्व ऐसे भी होते हैं जो कभी संस्कृतियों में समान रूप से स्वीकृत नहीं होते वे विभिन्न संस्कृतियों में अलग अलग या तो बने रहते हैं या कालांतर में विलोपित हो जाते हैं। व्यापक रूप से जो विभिन्न तत्व सभी संस्कृतियों में स्वीकृत हो जाते है, यदि उनके परिणाम और प्रकार अनुकूल हुए तो वे कुल मिलाकर एक अपेक्षाकृत नई संस्कृति चेतना को रूप देते हैं, जिसे हम सामासिक सांस्कृतिक चेतना कह सकते हैं। संस्कृतियों के समास होने की स्थिति मे यह कोई आवश्यक नहीं है कि समस्त संस्कृति(सामासिक संस्कृति) में विभिन्न पूर्ववर्ती संस्कृतियों के अवशेषांश अलग अलग दिखाई नहीं देंगे। वास्तव में, सामासिकता सापेक्ष शब्द हैं-‘प्रधान्येन व्यपदेशा भवन्ति।अतएव, संस्कृति व्यक्ति चेतना की सम्यक् क्रियाशीलता का सामाजिक तथा सामासिक रूप है। ऐसा भी होता है कि व्यक्ति चेतना अपने उत्कर्ष तथा ऊर्जा के फलस्वरूप समाज चेतना पर आच्छादित हो जाए। ऐसा तब होता है जब कोई बड़ा दार्शनिक, विचारक, महर्षि अथवा युगपुरुष नेता समाज को विशेष दिशा में गतिशील करने में समर्थ होता है, बुद्ध, शंकर, तुलसीदास, भारतेंदु, गाँधी ऐसे ही युगपुरुष थे। व्यक्ति में जो सर्वश्रेष्ठ है, जब वह समाजीकृत होता है तो संस्कृति के तत्व रुपायित होते हैं।‘’ उपर्युक्त विद्वजनों का यह मत ग्राह्य है कि विचार वैयक्तिक प्रक्रिया है। व्यक्ति विशेष के जागरुक मन मे विचार उत्पन्न होते हैं। भाषा तथा अन्य बहुवैकल्पिक साधनों द्वारा ये विचार व्यक्त होकर समाजीकृृत हो जाते हैं। चिंतन धाराओं को प्रवर्तित करने वाले या विचारजगत् में नेतृत्व करने वाले मनीषियों की व्यक्ति चेतना अंततः समाज द्वारा स्वीकृत होकर समष्टि चेतना बन जाती है। इस प्रकार अनेकानेक सामाजिक संस्कृतियों का जब योग होता है, उनका ऐसा मिलन होता है जिसमें बहुत दूर तक दोनों या अनेक संस्कृतियाँ मिलकर एक हो जाएँ, तो यह सम्पूर्ण समुच्चय-बोध सामासिक संस्कृति कहलाता है। हिन्दी साहित्यिक इतिहास की आदिकालीन प्रवृृत्तियाँ एवं कालावधि: अपभ्रंश बौद्ध, ब्रजयानी सिद्ध साहित्य(सरहपा आदि), अपभ्रंश जैन प्रबंध काव्य(स्वंयभू, पुष्पदंत्त आदि), अपभ्रंश विशुद्ध शृंगार काव्य(अब्दुल रहमान), अवधी प्रेमाख्यान काव्य(मुल्ला दाउद), मैथिली कृष्ण काव्य (विद्यापति), राजस्थानी चारण काव्य(चंदबरदाई, जगतिक), खड़ी बोली मनोरंजन काव्य (अमीर खुसरो आदि)। वस्तुतः भारतीय सामाजिक जीवन में उपर्युक्त काल विभिन्न संस्कृतियों के मिलन का काल कहा जा सकता है, समास का नहीं। संस्कृतियाँ एक दूसरे से मिलीं, उनके बीच सहअस्तित्व की स्थिति बनी रही, पूरी तरह न तो किसी एक संस्कृति में दूसरी का अध्याहार हुआ, न उनके तत्व मिलकर एक समीकृत संस्कृति को जन्म दे सके। इस संक्रांति काल में संस्कृतियों का समास पूर्णतया घटित हुआ हो, ऐसा नहीं है। अर्थात् केवल सामासिक संस्कृति के निर्माण सम्बन्धी पूर्वपीठिका तैयार होती हुई मालूम देती है। यद्यपि बज्रयानी बौद्ध सिद्ध साहित्य और अपभ्रंश जैन साहित्य एक साथ लिखे जा रहे थे, कभी-कभी तो एक ही भूभाग में, फिर भी इसमें दो विभिन्न सांस्कृतिक घटक विद्यमान रहे हैं या फिर तद्नुकूल चेतनाएँ व्यक्त हुईं हैं। अस्तु, सिद्ध साहित्य में ईश्वर का स्थान शून्य ने लिया है। बज्रयानी सिद्धों ने धर्म के रूढ़ परंपरागत बाह्याडंबरों पर तर्कशील होकर पुरजोर प्रहार किया है। उन्होंने ईश्वर पर शून्य की प्रतिष्ठा करते हुए अपनी नवीन वैज्ञानिक चेतना को अभिव्यक्त किया है। यह भी ध्यातव्य है कि सिद्धों ने धर्म के कष्टसाध्य नियमों, पाखंडाचारों को त्याग कर जीवन के प्रति सहज स्वाभाविक दृष्टिकोण अपनाने का विनम्र आग्रह किया है। इसके परिणाम में कुछ नकारात्मक प्रवृत्तियों का भी आरोपण हुआ। सत्ताधारी वर्ग एवं सामन्ती समुदाय में इन्द्रिय सुखोपभोग की प्रवृत्ति का अतिशय विस्तार देखा जा सकता है, जिनमें प्रायः रजोगुण एवं तमोेगुण की अधिकता पाई जाती है। भारतीय ऋषि-परम्परा में ‘योग चित्तवृत्ति निरोधः अथवा ‘योगः कर्मसु कौशलम्का अवगाहन किया गया है जिसे भारतीय प्रजा के संयम, धैर्य, सहनशीलता, अनुशासन आदि में आज भी दृष्टिगोचर है। जबकि सत्ता के मद और प्रमाद में जो (कु)विचार पनपे उसका अखंड प्रभाव आधुनिक सत्ता-समाज में अब तक मौजूद है। मध्यकालीन अपभ्रंश के जैन साहित्य में जीवनसाध्य नियमों का पालन और तपश्चर्या पर बल दिया गया है। अनेक जैन प्रबंध काव्यों में यही दिखलाया गया है कि चरम सुख शांति की दृष्टि से व्रत और संयम से युक्त जीवन तथा अहिंसा और परोपकार का मार्ग ही सर्वथा अनुकरणीय व ग्राह्य है। इसके विपरीत भोग का मार्ग अपनाने की परिणति अंततः दुःख में फलित होती है। विवेचनीय है कि बौद्ध और जैन सम्प्रदाय भारत की दो महत्त्वपूर्ण अधुनातन प्रवृत्ति वाली प्रगतिशील शाखाएँ सिद्ध हुईं, जिनमें जैनियों में विद्रोह की भावना से अधिक सांस्कृतिक अनुकूलन(एडैप्टेशन) की भावना दिखाई पडत़ी है। प्रायः भारतीय परंपरागत संस्कृति के दो प्रमुख आधारस्तंभ वेद और पुराण को मान लिया जाता है। सिद्धों ने इनके एकांगी एवं वचंनायुक्त व्याख्याओं का वैज्ञानिक मत-मतांतर द्वारा बहिष्कार किया। इसे भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के परिवर्तनशील, प्रयोगधर्मी और सहिष्णु होने का परिचायक कहा जा सकता है। आदिकाल में सिद्ध और जैन साहित्य समानांतर रूप से स्पष्टतः दो सांस्कृतिक चेतनाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिनका समासीकरण हुआ नहीं था किंतु जिनका समाहार भारतीय जीवन धारा में स्पष्टतया दिखाई देता है। यदि हम इस युग के लोकभाषा साहित्य का अवकोलन करें तो हमें सांस्कृतिक चेतना के वैविध्य दर्शन होंगे। एक ओर राजस्थानी चारण काव्य में वीर रस के साथ लौकिक शृंगार रसकी अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है तो दूसरी ओर विद्यपति के राधाकृष्ण प्रेम के ऐहिक वर्णन में सहज मानवीय उच्छवास की अनुभूति होती है। मुल्ला दाउद के चंद्रायन(लोरकहाचारण साहित्य) में जहाँ लोककथा(फोक) का आँचल पकड़ कर चलने का प्रयास है वहीं अमीर खुसरो द्वारा लोक जीवन के अत्यंत निकट आकर मनोरंजन साहित्य(पहेलियां, मुकरयां) की सृष्टि की गई है। जहाँ चारण साहित्य राजाओं और दरबारों की मान्यता मे फलाफूला है वहाँ खुसरो और मुल्ला दाउद में लोकोन्मुखी प्रवृत्ति के दर्शन विशेष रूप से अर्थपूर्ण हैं। दरबारी संस्कृति और लोक संस्कृति के बीच भक्तिकाल में जो समन्वय घटित हुआ उसकी सम्यक् पीठिका हम आदिकाल की सामाजिक-सांस्कृतिक धारा को मान सकते हैं। यह द्रष्टव्य है कि आदिकाल के दौरान इस्लाम मत भारत में आ चुका था, लेकिन इस्लामी संस्कृति की देश में ऐसी प्रतिष्ठा नहीं हो पाई थी कि साहित्य में उसका स्पष्ट बिंब दिखाई पड़ता। अवधी और खड़ी बोली में लिखने वाले मुल्ला दाउद और अमीर खुसरो की उपस्थिति से उस सांस्कृतिक समन्वय को पूर्वभासित होने का अवसर जरूर मिला। दरअसल, दीर्घकालीन साहचर्य के फलस्वरूप विभिन्न संस्कृतियों के तत्त्वों का समासीकरण हो जाता है और एक समस्त अथवा सामासिक संस्कृति का उदय होता है, इसके जीवंत उदाहरण मध्यकालीन भक्ति साहित्य में सुलभ है। भक्ति आन्दोलन के प्रायः सभी वरिष्ठ आचार्य-रामानुज, निम्बार्क, विष्णु स्वामी, मध्व, वल्लभ, रामानंद आदि दक्षिण भारत के थे, संस्कृत के ज्ञाता के अतिरिक्त महान दार्शनिक और विचारक थे। ये सब उत्तर भारत पहुँचे और निस्वार्थ भक्ति-भाव से भक्ति, प्रेम, मानव-मूल्य, जीवन-संस्कार, नैतिक आचरण आदि का बृृहद् प्रचार किया। उत्तर भारत के भावप्रवण कवियों ने बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक, इन भक्ति सिद्धांतों को जनसंवेदी गीत में परिणत कर दिया, सूखे दार्शनिक विचारों को सरस काव्य के घोल में मिलाकर जन-जन के बीच मुक्तहस्त बाँटा। ये भक्ति-काव्य घर-घर में स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी के हृदय में घर कर गये। लोक-प्रचलित एक प्रसिद्ध उक्ति है: ‘‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानंद। परगट किया कबीर ने सप्त दीप नवखंड।।’’ भक्तिकालीन काव्य के दो मुख्य विभाजन हैं: निर्गुण काव्य और सगुण काव्य। निर्गुण शाखाओं में संत काव्य और प्रेम काव्य; सगुण शाखाओं में रामकाव्य और कृष्ण काव्य प्रमुख है। पहले संत काव्य की बात करें, तो संत काव्य को आदिकालीन सिद्ध साहित्य का परवर्ती विकास कहा जाता है। किंतु सांस्कृतिक दृष्टिकोण से हम सिद्ध साहित्य और भक्तिकालीन संत साहित्य में एक तात्त्विक अंतर पाते हैं। सिद्ध साहित्य मूलतः अनीश्वरवादी है, संत साहित्य ईश्वरवादी है। प्रत्यक्षतः सिद्ध साहित्य परंपरागत भारतीय दार्शनिक चित्तधारा(वेद, उपनिषद, पुराण) का अंधानुगामी नहीं है बल्कि वह उसका तर्कचेतनाशील ग्रहीता है। जबकि संत साहित्य उस परंपरा की ही शाखा वेदांत को किसी न किसी रूप में ग्रहण करके चलता है। संत कवि कबीर ने वेदांत का अद्वैतवाद सहज स्वीकार करते हुए सापेक्ष रूप से राम केे मानवीय अपरूप(निर्गुण) को अपना उपास्य माना है। इस तरह हम पाते हैं कि आदिकाल में जिस सांस्कृतिक समेकन की भूमिका तैयार हो रही थी कबीर तक आते आते वह पूरी हो गई दीखती है। कबीर वाङ्मय में निहित दूसरा सांस्कृतिक तत्व है हठयोग। कबीर ने हठयोग को ग्रहण किया नाथपंथ के माध्यम से। नाथपंथ पर शैव प्रभाव स्पष्ट था। वज्रयानी सिद्धों की तरह परमतत्त्व की अनिवार्यता का सिद्धांत नाथपंथ में भी स्वीकृत हुआ था, किंतु शून्य का स्थान शिव ने ले लिया था: ‘शिवं न जानामि कथं बदामि। शिवं च जानामि कथं कदामि।।

सधुक्कड़ी भाषा में कबीर का आधुनिक-बोध
डाॅ. शिवनन्दन के आलेख ‘हिंदी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व’ का ही आश्रय लेकर कहें, तो कबीर में हम हठयोग साधना और तत्संबंधी अनुभूति का वर्णन उत्कृष्ट रूप में प्रतीकात्मक भाषा में पाते हैं: ‘गगन गरजि बरसै अभी बादर गहिर गंभीर। चहुं दिसि दमकै दामिनी भीजै दास कबीर।। कबीर के सन्दर्भ में डाॅ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन उचित ही प्रतीत होता है कि संभवतः कबीर का जन्म योगियों के किसी सद्यः धर्मांतरित परिवार में हुआ था और इसलिए इस्लामी सूफीवाद में गति के साथ योगियों के परंपरागत संस्कार भी उनमे जन्मना बद्धमूल थे। सूफी प्रेमतव भी कबीर की वाणी के माध्यम से राम का अवलंबन लेकर व्यक्त हुआ है: ‘दुलहिनीं गावहु मंगलचार, हम घर आए हो राजा राम भरतार।। इस तरह कबीर ने राम का देवत्व-रूप का मानवीय रूपान्तरण किया है, ताकि उनकी छवि का सामान्य तादात्मयीकरण संभव किया जा सके। यह भारत की मध्यकालीन संस्कृति की सामासिकता की ओर संकेत करने वाली मुख्य बात है। इसी प्रकार निर्गुण भक्ति साहित्य की दूसरी शाखा है प्रेमाख्यानक-काव्य। इस धारा केे सबसे बड़े कवि मलिक मुहम्मद जायसी कहे जाते हैं। जायसी मुसलमान थे लेकिन अपने काव्य में उन्होंने जिस ठेठ अवधी का प्रयोग किया है वह उस क्षेत्र के तद्युगीन जनसाधारण की भाषा थी, जनसाधारण की, जो मानसिकता की दृष्टि से न हिन्दू होता है न मुसलमान, वह मनुष्य होता है, मजदूर होता है, व्यवसायी होता है या और कुछ होता है। भाषा-भेद, संप्रदाय-भेद या वर्ग भेद शायद पंडितों की उपजी ईजाद है। लोकधरातल पर पहुंचने पर ये कृत्रिमताएँ/बनावटीपन अपने आप विलोपित हो जातीं हैं। जायसी ने लोकधरातल पर पहुंचकर कविता की। न केवल उनकी भाषा लोक-भाषा(फोक लैंग्वेज) थी, बल्कि उनका विषय भी लोकजीवन के बीच सुदीर्ध मौखिक परंपरा से चली आ रही कथा(फोक लोर) थी। हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक सामासिकता का सशक्त उदााहर जायसी का पद्मावत है। पद्मावत का डाॅ० गणपति चंद्र गुप्त पद्मावत को ऋग्वेद(पुरूरवा-उर्वशी प्रसंग), महाभारत(नल दमयंती प्रसंग), हरिवंश पुराण(ऊषा अनिरुद्ध प्रसंग), कथा सारित सागर, बृहतकथामंजरी आदि के माध्यम से चली आती हुई विवाहपूर्व (अथवा विवाहेतर) प्रेम कथाओं की परंपरा की एक परिणति मात्र मानते हैं। फिर भी पद्मावत में सूफी विचार सर्वत्र बिखरे मिलते हैं और शैली में भी साहित्य दर्पणकार द्वारा निर्दिष्ट सर्गबद्ध शैली के बदले मसनवी शैली का अनुकरण किया गया है। इसलिए हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि जायसी का पद्मावत मध्यकालीन संस्कृति सामासिकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि जायसी ने अल्लाह के स्मरण के बाद ईश्वर को भी स्मरण किया है। साथ ही एक बात और, पद्मावत में फारसी काव्य शैली और भारतीय काव्य शैली का समवेत रूप दिखलाई पड़ता है। वस्तु, भाषा आदि भारतीय हैं किंतु कई वर्णन परिपाटियों में फारसी(इस्लामी) रंग स्पष्ट है। भारत में शृंृंगार रस के प्रसंग में नखशिख वर्णन की परंपरा रही है-नख से प्रारंभ कर शिख तक के सौंदर्य का वर्णन करते हैं। पद्मावत में फारसी सूफी काव्यों की तरह शिख-नख वर्णन विद्यमान है: ‘प्रथमहिं सीस कस्तूरी केसा। बलि बासुकी को और नरेसा। भंवर केस वह मालिनि रानी। बिसहर तुरहिं लेहिं अरधानी।। मध्यकालीन भारतीय सामासिक संस्कृति का दूसरा महत्त्वपूर्ण शाखा है-सगुण काव्य। रामकाव्य और कृष्णकाव्य इसके प्रमुखा उदाहरण हैं। रामकाव्य के रचयिता तुलसीदास को एक ओर लोकनायक कहा गया है तो दूसरी ओर उन्हें समन्वयकारी कवि माना गया है। तुलसीदास ने तद्युगीन प्रचलित तू-तू मैं-मैं वादी धार्मिक संप्रदायों के समन्वय का प्रयास रामचरितमानस, कवितावली आदि में ग्रंथों के माध्यम से किया है। शैव और शाक्त, शैव और वैष्णव, शाक्त और वैष्णव विभिन्न सम्प्रदाय परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध कटिबद्ध रहते थे। इस विघटनकारी प्रवृत्ति को रोकने का लोकमंगलकारी अपेक्षित प्रयत्न तुलसीदस ने किया है। इतना ही नहीं उन्होंने शिव को रामभक्त दिखलाकर और राम को शिव भक्त दिखलाकर शैव और वैष्णव संप्रदायों के बीच ऐक्य स्थापित करने का महती कार्य किया है। ध्यातव्य है कि तुलसी विष्णु के अवतार राम के उपासक थे किंतु राम की स्तुति के पहले उन्होंने शिव की स्तुति मानस में सहज मनोेयोग से की है। वैष्णव शाक्त समन्वय के अतिरिक्त तुलसी ने ब्रह्म के सगुण और निर्गुण स्वरूपों मे भी समन्वय उपस्थित किया, ज्ञान और भक्ति में भी समन्वय घटित किया: ‘भगतिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहि भव संभव खेदा।।‘’ तत्त्वतः रामचरितमानस का दृश्यफलक अथवा वस्तुपट इतना व्यापक है कि उसमें समस्त देश की सांस्कृतिक विशेषताएँ समाविष्ट हो जाती हैं। अयोध्या से लेकर चित्रकूट, पंचवटी, किष्किंधा और लंका तक का भौगोलिक वर्णन, आर्यों के अतिरिक्त कोल-किरात, निषाद, शंबर, वानर आदि जनजातियों के जीवन और संस्कृतियों के चित्र, नगर, ग्राम, जंगल समुद्रतट आदि विविध स्थानों की सांस्कृतिक अथवा प्राकृतिक विशेषताएँ-सबके सब मानस की कथा की पटभूमि में परस्पर सौहार्द्र और समन्वय को रुपायित करते हैं। कृष्ण काव्य में भी सांस्कृतिक तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। सूरदास ने जो कृष्ण चरित लिखा, वह श्रीमद्भागवत पुराण और ब्रह्मवर्त पुराण पर मुख्यतः आधारित है, और उसकी रचना आचाार्य वल्लभ के मतानुसार हुई। किंतु सूरवर्णित कृष्णकथा के सूत्रों का अनुसंधान करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि बाल लीला, गोप लीला और राधा कृष्ण प्रेम का वर्णन महाभारत प्रवृत्त प्राचीन ग्रंथों मे नहीं है। महाभारत के कृष्ण ज्ञानवेत्ता हैं, कुशल राजनेता हैं, युद्धकला विशारद हैं और गीता के उपदेष्टा हैं। महाभारत में बाल लीला, गोप लीला, रास लीला, राधा कृष्ण प्रेम आदि का ऐसा विशद और मनोहरी वर्णन नहीं हुआ है जैसा सूर ने किया है। कृष्ण चरित में ये तत्व कालांतर में प्रविष्ट हुए हैं। कृष्ण के बाल रूप की पूजा तथा राधा तथा गोपियों की लीला का प्रचार कृष्ण भक्ति के साथ जुड़ गई। इस तरह हम देखते हैं कि गोपी वल्लभ कृष्ण की भक्ति दक्षिण की देन है। इस संदर्भ में कृष्ण के श्याम वर्ण को भी कुछ लोग दाक्षिणात्य प्रभाव कहते हैं। जो भी हो, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि मध्यकालीन कृष्णकाव्य का आधार भूत कृष्णचरित (बाल लीला, गोप लीला, भ्रमरगीत, राम लीला आदि की वस्तु) सांस्कृतिक आदान प्रदान की उपज है। सांस्कृतिक सामासिकता का यह सुंदर उदाहरण कहा जाएगा। कृष्ण्काव्य का जो स्वरूप उनके सामने आया है उसके निर्माण में विभिन्न संस्कृतियों का योग है। ध्यातव्य है कि भक्तिकाल के बाद की साहित्यिक धारा रीतिकालीन साहित्य के संबंध में हम सांस्कृतिक सामासिकता का अन्वेषण इनती आसानी से शायद नहीं कर पाएंगे क्योंकि रीतिकाल का साहित्य समसामयिक समाज से बहुत कुछ विच्छिन्न-सा रहा और इस काल के जो प्रमुख कवि हुए उन्होंने या तो कवि शिक्षापरक, लक्षणयुक्त और उदाहरणमूलक रीतिग्रंथ लिखे या वे शृंगार के प्रसंग में नख-शिख वर्णन अथवा षड्ऋतु वर्णन आदि में लीन रहे या उन्होंने अपने सीमित क्षेत्र के अपने आश्रयदाता राजाओं के चरितगान में समय लगाया। न तो उनका दृष्टिपट व्यापक था, नहीं उनकी दृष्टि गहरी थी। किंतु रीतिकाल के पश्चात पुनः कवि दृष्टि व्यक्ति, समाज तथा उसकी सांस्कृतिक विशेषताओं के चित्रण की ओर लौट आई। हिन्दी साहित्य के इतिहास का आधुनिक काल सामासिक संस्कृति के चित्रण के सर्वाधिक उदाहरणों से युक्त है। आधुनिक काल में एक बड़ी सांस्कृतिक क्रांति हुई-परंपरागत भारतीय और आधुनिक पाश्चात्य संस्कृतियों का प्रभाव संघर्ष और कालांतर में उनका समन्वय। वास्कोडिगामा ने सन् 1498 ई. में यूरोप वालों के लिए भारत का समुद्री मार्ग खोज लिया। फिर क्या था, इस भूमि पर डच आये, फ्रांसीसी आये, अंग्रेज आये। अंग्रेज भी व्यापारी बनकर आये थे किंतु उन्होंने कालांतर में यहाँ अपना राजपाट जमा लिया। फिर तो अंग्रेजी शिक्षा के स्कूल खुले, काॅलेज खुले। पश्चिम से केवल ईसाई मजहब नहीं आया, आधुनिक विकसित विज्ञान की रोशनी भी आयी, और आयी समूह चेतना की नवीन एकात्मकता जिसने समाज के पुराने ढांचे को झकझोर कर रख दिया। आधुनिक विचार, बोध एवं व्यवहार बदलाव के मूल कारक सिद्ध हुए। इसी प्रकार मानवीय स्वभाव, संस्कार और समझ ने सामाजिक बदलाव में आमूल-चूल बदलाव लाने में महती भूमिका निभाया।

आधुनिक नवजागरण का भारतीयकरण और खड़ी बोली हिंदी
सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण का यह काल महत्त्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि इससे पूर्व भारत में जन्म-जन्मांतरवाद, भाग्यवाद और ईश्वरवाद का भयंकर प्रकोप पसरा हुआ था। ईश्वरीय विधानवाद एवं भाग्यवाद ने व्यक्ति को निष्क्रिय भोक्ता बना दिया था। इसी अवस्था में पश्चिमी विज्ञान का भारतीय जनमानस में अवतरण हुआ जिसने वर्तमान दुरवस्था को बदलने की प्रेरणा दी। फलतः नई सामाजिक चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। यह पाश्चात्य सांस्कृतिक प्रेरणा अंग्रेजी शासकों की कृपा से भारत को नहीं मिली, बल्कि पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की स्वतंत्र एवं सम्यक् परिव्याप्ति के फलस्वरूप भारत को मिली। अंग्रेजी साहित्य के सम्पर्क-साहचर्य के कारण पुरानी रूढ़ियां तेजी से बदलने लगीं। नतीजतन, जीवन और समाज को देखने की नई दृष्टि मिली। यह संक्रांति भारतेंदु युग में ही दिखाई पड़ने लग गई। यह महती कार्य भारतेन्दु ने मानवीय जगत के शाश्वत मूल्यों, मूल प्रवृत्तियों के परिष्करण और परिमार्जन की संभावनाओं को स्थापित करने का ध्येय सामने रखकर किया। उन्होंने अंग्रेजी शासन-व्यवस्था के दौरान देश की धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से मृतप्राय परम्परा को जीवनदान दिया। उन्होंने अंग्रेजी शासन-व्यवस्था से उत्पन्न अराजकता, असंतोष और अभावग्रस्तता को साहित्य के माध्यम से जनसाणारण को परिचित कराया। यही वह काल-अवधि थी जब हिंदी नई चाल में ढल रही थी, अपने ही लोगों के माध्यम से रची-बुनी-गढ़ी जा रही थी। भारतेंदु- काल की राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक जागृति इसी का एक सबल पक्ष है: ‘आवहु सब मिलकर रोवहु भारत भाई। हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाए।। अंग्रेजी राज सुख साज सजै सब भारी। पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।।भारतेंदु ने भी भगवान को पुकारा है, किंतु उनके आर्तनाद में ईश्वरीय सत्ता को चुनौती है, तो जनपंगुता का दृश्यांकन भी-‘कहाँ करुणानिधि केशव सोये, जागत नेकु न, कोटि जतन करि। भारतवासी रोये।।यदि हम नवजागरण के मुख्य अवयवों की पहचान करें, तो वे हिन्दू-मुस्लिम एकता, धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक सुधार, रूढ़ियों-पाखण्डों का विरोध, भारतीय भाषाओं का उत्थान, किसानों-कारीगरों और देशी उद्योगों की पक्षधरता, ब्रिटिश साम्राज्यवादी लूट और शोषण की समझ तथा विरोध, स्त्रियों और दलित वर्ग के सवाल को लगातार उठाना, आधुनिक विचारों का वरण, विज्ञान और नई तकनीक का स्वागत, भारतीय इतिहास की पुनप्र्रतिष्ठा, व्यापक शिक्षा का प्रसार, भारतीय ज्ञान-विज्ञान की समीक्षा और विकास तथा औपनिवेशिक संस्कृति का लगातार विरोध आदि। देश-काल-परिवेश से सम्बद्ध आधुनिकता आधारित साहित्यिक मूल्यों पर ध्यान दें, तो उसमें कुछ जरूरी तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिखाई देते हैं। यथा: प्रजातंत्रीकरण, बहुसंस्कृतिवाद, बहुसंख्यक समाज, सामूहिक सचेतनता आधारित जातीयता इत्यादि। अस्तु, जागरण-सुधारकाल में द्विवेदी युग के कवि मैथिलीशरण ने पुराणों से काव्यवस्तु तो ली किंतु आधुनिक विज्ञान के आग्रह से अपने वर्णन को पौराणिक अतिप्राकृतिक वर्णन की प्रवृत्ति से स्वयं को बचा लिया है। साकेत की कैकेयीराम वनगमन के लिए जो हठ करती है वह तुलसी की कैकेयी की भांति देवताओं द्वारा प्रेरित सरस्वती के प्रभाव से नहीं वरन् मनोवैज्ञानिक भ्रांति के कारण: ‘भरत से सुत पर भी संदेह। बुलाया तक न उसे जो गेह।।यथास्थितिवाद के विरूद्ध सुमित्रानंदन पंत और निराला ने जराजीर्ण और प्राचीन के विध्वंस और नवीन की प्रतिष्ठा के लिए भावावेशपूर्ण आग्रह किया है-‘जला दो जीर्ण शीर्ण प्राचीन। क्या करूंगा तन जीवन हीन। द्रुत झारो जगत के जीर्ण पत्र।।अतएव, नवजागरण ने जिस चेतना-दृष्टि को निर्मित किया उसे हम ‘ज्ञानोदय(इनलाइटमेंट) कह सकते हैं। ज्ञानोदय का मूल अभिकेन्द्र स्वतन्त्रता, समानता, न्याय एवं भाईचारा है। ज्ञानोदय की निर्मिति तथा विकासस में पश्चिमी चिंतकों एवं दार्शनिकों का योग अन्यतम है। यथा: कांट, हिगेल, डार्विन, माक्र्स, नीत्शे, लेनिन आदि। ज्ञानोदय का मुख्य ध्येय विवेकशील एवं विकासशील आधुनिक मनुष्य का निर्माण करना था। ऐसा मनुष्य जो विश्व के सभी पूर्णतावादी दृष्टि से गहरा लगाव रखता हो; ज्ञान के मानकीकरण के साथ उसका विकेन्द्र्रीकरण करने का हामी हो; सार्वभौमिक सत्य और मूल्यों में यकीन रखता हो; रैखिक प्रगति विशेषतः बुद्धि और स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति में विश्वास रखता हो। नवजगारण केन्द्रित ज्ञानोदय के विषयगत प्रारूप को देखें, तो यह ज्ञान-मीमांसा, नैतिकता और सदाचार को अधिक महत्त्व देता है, तो दशा एवं दिशा को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक बहुविध परिप्रेक्ष्य में समग्रता के साथ देखने सार्थक प्रयतन करता है। राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीयता-बोध की उपर्युक्त प्रवृत्तियों का हिंदी में स्वतन्त्र उभार एक प्रकार से ‘पैराडाइम शिफ़्टथा जिसने तत्कालिन समाज को उत्प्रेरित और उनमें राष्ट्रप्रेम का उत्कंठा जगाने का काम किया है। भारतीय नवजागरण की ओर घूमें, तो 1800 ई. में फोर्ट विलियम काॅलेज की स्थापना वह प्रस्थान बिन्दु है जिसके बदौलत भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार एवं उन्नयन का रास्ता साफ हुआ, तो राजनीतिक चेतना की संगठित गतिविधियाँ आकार ले सकीं। ज्ञानोदय की भीत पर विभिन्न समाजसुधारकों और आधुनिक मतावलम्बियों ने स्वतन्त्रता को हस्तगत करने का हुंकार भरा, तो सन् सन्तावन में प्रथम स्वाधीनता संग्राम का बिगुल फूँका गया। लक्ष्मीबाई की तलवार इसी समय चमकी जबकि स्त्री-विमर्श की आधुनिक पाख तक उस समय नहीं जमी थीं। यह सब हुआ क्योंकि भारत में ज्ञान के नए स्रोत उमग रहे थे और विचार के नए मुहाने तैयार किए जा रहे थे। भारत का नवनिर्माण हो रहा था। भारत नए तरह से और नए सिरे से जग रहा था। वह अपनी खोई हुई गरिमा को पहचान सका क्योंकि भारतीय मनीषियों ने शिक्षा के संस्कार को अधिकतम भारतीयों तक पहुँचाने का अपना संकल्प पूरा करना शुरू कर दिया था। ‘भारत-दुर्दशा देखि न जाईऔर ‘स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हैजैसी बातें भारतीय पटल पर इसीलिए प्रकाशित हुई क्योंकि भारतीय जन शिक्षा के माध्यम से अपने हक़-हकूक को पहचानने लगा था। वह जान गया था कि भारतीय परिवेश को जिन आतातायी ताकतों ने अपने कब्जे में ले रखा है; उन्हें खदेड़े बिना भारतीय जनमानस का सुख-संधान संभव नहीं है।

पुनश्च: 
भारतीय जनमानस के उपर्युक्त कार्रवईयों को हिंदीमना मानुष के रूप में देखें, तो ‘’हिन्दी भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा है। यह व्यक्तित्व सभी भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्त होता हैं अनेक विचार चिंताधाराएँ, मूल्य इन भाषाओं में प्रवहमान हैं और उनमें निरंतर क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रही हैं। अतः इन भाषाओं में इनके विविध पक्षों, स्तरों, आयामों और छायावर्तो को व्यक्त करने वाले शब्द है, जिनमें उनके प्रत्यय निहित है, क्योंकि भारतीय स्तर पर इन प्रत्ययों में समरूपता है। अतः उनके प्रतीक विभिन्न भाषाओं के संज्ञा, क्रिया, विशेषण् आदि पदों में समान रूप से सुरक्षित हैं। समान परिवार की भाषाएँ हो अथवा भिन्न परिवार की, पर उनमें सांस्कृतिक समरूपता के यह प्रत्यय रूप शब्द समानार्थी हैं। अतः इन भाषाओं में एक दूसरे की समझ और निकटता कहीं अधिक है। भिन्न शब्द या पद से मूल भाव अथवा विचार तक पहुँचने में कठिनाई नहीं है, केवल पर्याय शब्द की जानकारी पर्याप्त है। जबकि एक ही परिवार की दूसरे संस्कृति की वहन करने वाली भाषा से सहज संप्रेषण संभव नहीं है। यानी अंग्रेजी, फ्रेंच, बंगला और मराठी एक परिवार भाषाएँ हैं। पर अंग्रेजी अथवा फ्रेंच भाषा से मराठी या बंगला में अनुवाद सरल नहीं है जबकि अंग्रेजी से फ्रेंच, मराठी से बंगला में करना कहीं आसान है। उसका कारण सांस्कृतिक संपृक्ति हैं। दूसरे स्तर पर केंद्रीय भाषा (यानी हिन्दी) अन्य प्रदेशों तथा उनकी भाषाओं से निकट है। स्वाभाविक है, जो धाराओं के उतार-चढ़ाव, विस्तार-संकोच का भ्रम चलता आया है, उसमें बीच का क्षेत्र हर तरह से प्लावित हुआ है। उसके कारण उसकी भाषा से सबकी समान निकटता रही है। सांस्कृतिक आंदोलन उसके माध्यम से अधिक सम्मान हुआ। इधर उधर ऊपर से नीचे चिंतन विचारों, मूल्यों के विस्तार देने का और जोड़ने का काम इस भाषा से लिया जाता रहा है। यह सैंकड़ों वर्षों की बात है, केवल आधुनिक युग की नहीं।'' अतः स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के भारतीय समाज को एकजुट और एकाग्र् करने में हिंदी भाषा की भूमिका अनिर्वचनीय है। अर्थात् यह हिंदी ही है जिसने हमारे राष्ट्राध्यक्षों के सीने को चैड़ा किया है; विदेशी सरजमीं पर भारतीय हमज़बान लोगों के बीच ‘मेक इन इंडियाका गर्जन-तर्जन करने का सुअवसर प्रदान किया है। आज भी हिंदी ही वह सबसे माकुल भाषा है जिसमें चुनाव लड़ा जाता है; फिल्मी गाने गाए जाते हैं, कविता, कहानी और उपन्यास लिखे जाते हैं। हिंदी का दायरा भारतीय परिक्षेत्र तक सीमित-परिसीमित नहीं है। अंग्रेजी के दावतखाने में तथाकथित बौद्धिकों के लामबंद होने के बावजूद हमारी हिंदी बन-सँवर रही है; क्योंकि उससे जुड़ी देश की एक बड़ी आबादी अपनी भाषा निधड़क बोलती समझती है। उसे यूजीसी भी पता है और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी। उसे रेल पता है, तो सवारी गाड़ी भी। वह मिरर भी जानती है, और आइना-दर्पण भी। वह दिस-दैट भी जानती है, तो आप-तुम-तू भी। यह क्षेत्रिय भी और वैश्विक भी। इंटरनेटी है, तो कविताकोशी भी। अतएव, हिंदी दिवस पर ऊपरी आर्तनाद और चीत्कार करने वाले विकलांग बौद्धिकों से हिन्दीपट्टी की यह इल्तज़ा मानीखे़ज है कि यदि वे वर्तमान समस्याओं अथवा भविष्य की संभावनाओं को लेकर कुछ विशेष और मौलिक नहीं रच सकते, तो अपनी अयोग्यता भी किसी पर नहीं थोपे। नई पौध, नौजवान पीढ़ी यशस्वी है, ऊर्जावान है...वह अपना असली मुकाम पा लेगी; सही ठीकाना खोज लेगी। बशर्ते देश की सत्ता अपनी जबान में झूठी न हो, दगाबाज़ और फरबी तो कतई न निकले।


धन्यवाद! उन आलेखकों को जिनके विचारों का प्रचुर मात्रा में यहाँ प्रयोग किया गया है।

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हँसों, हँसो, जल्दी हँसो!

--- (मैं एक लिक्खाड़ आदमी हूँ, मेरी बात में आने से पहले अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग अवश्य कर लें!-राजीव) एक अध्यापक हूँ। श्रम शब्द पर वि...