राजीव रंजन प्रसाद
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नाम : कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना
जन्म : 6 जनवरी, 1932
जन्मभूमि : मैनपुरी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु : 27 जनवरी, 2007
मृत्यु स्थान : फरीदाबाद, हरियाणा
कर्म-क्षेत्र : उपन्यासकार, लेखक, आलोचक, फ़िल्म पटकथा लेखक
मुख्य रचनाएँ : कितने पाकिस्तान, जॉर्ज पंचम की नाक, मांस का दरिया, इतने अच्छे दिन, कोहरा, कथा-प्रस्थान, मेरी प्रिय कहानियाँ,
भाषा : हिंदी
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी साहित्य), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
पुरस्कार-उपाधि 2005 में पद्मभूषण, 2003 मेंसाहित्य अकादमी पुरस्कार (कितने पाकिस्तान)
प्रसिद्धि : उपन्यासकार के रूप में ‘कितने पाकिस्तान’ ने इन्हें सर्वाधिक ख्याति प्रदान की और इन्हें एक कालजयी साहित्यकार बना दिया।
कहानी संग्रह : जॉर्ज पंचम की नाक, मांस का दरिया, इतने अच्छे दिन, कोहरा, कथा-प्रस्थान, मेरी प्रिय कहानियाँ।
आत्मपरक संस्मरण : जो मैंने जिया, यादों के चिराग़, जलती हुई नदी।
उपन्यास : एक सड़क सत्तावन गलियाँ, लौटे हुए मुसाफिर, डाक बंगला, समुद्र में खोया हुआ आदमी, तीसरा आदमी, काली आंधी, वही बात, आगामी अतीत, सुबह....दोपहर....शाम, रेगिस्तान, कितने पाकिस्तान।
विशेष योगदान : इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया।
अन्य जानकारी : ‘नई कहानियों’ के अलावा ‘सारिका’, ‘कथा यात्रा’, ‘गंगा’ आदि पत्रिकाओं का सम्पादन तो किया ही ‘दैनिक भास्कर’ के राजस्थान अलंकरणों के प्रधान सम्पादक भी रहे।
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कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फ़िल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। इन्होंने अनेक हिन्दी फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ लिखीं तथा भारतीय दूरदर्शन शृंखलाओं के लिए दर्पण, चन्द्रकान्ता, बेताल पच्चीसी, विराट युग आदि लिखे। भारतीय स्वातंत्रता संग्राम पर आधारित पहली प्रामाणिक एवं इतिहासपरक जन-मंचीय मीडिया कथा ‘हिन्दुस्तां हमारा’ का भी लेखन किया।
जीवन परिचय
पूरा नाम 'कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना' का जन्म उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में 6 जनवरी, 1932 को हुआ था। प्रारम्भिक पढ़ाई के पश्चात कमलेश्वर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से परास्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। कमलेश्वर बहुआयामी रचनाकार थे। उन्होंने सम्पादन क्षेत्र में भी एक प्रतिमान स्थापित किया। ‘नई कहानियों’ के अलावा ‘सारिका’, ‘कथा यात्रा’, ‘गंगा’ आदि पत्रिकाओं का सम्पादन तो किया ही ‘दैनिक भास्कर’ के राजस्थान अलंकरणों के प्रधान सम्पादक भी रहे। कश्मीर एवं अयोध्या आदि पर वृत्त चित्रों तथा दूरदर्शन के लिए ‘बन्द फ़ाइल’ एवं ‘जलता सवाल’ जैसे सामाजिक सरोकारों के वृत्त चित्रों का भी लेखन-निर्देशन और निर्माण किया।
कार्यक्षेत्र
'विहान' जैसी पत्रिका का 1954 में संपादन आरंभ कर कमलेश्वर ने कई पत्रिकाओं का सफल संपादन किया जिनमें 'नई कहानियाँ' (1963-66), 'सारिका' (1967-78), 'कथायात्रा' (1978-79), 'गंगा' (1984-88) आदि प्रमुख हैं। इनके द्वारा संपादित अन्य पत्रिकाएँ हैं- 'इंगित' (1961-63) 'श्रीवर्षा' (1979-80)। हिंदी दैनिक 'दैनिक जागरण'(1990-92) के भी वे संपादक रहे हैं। 'दैनिक भास्कर' से 1997 से वे लगातार जुड़े हैं। इस बीच जैन टीवी के समाचार प्रभाग का कार्य भार संभाला। सन 1980-82 तक कमलेश्वर दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक भी रहे। कमलेश्वर का नाम नई कहानी आंदोलन से जुड़े अगुआ कथाकारों में आता है। उनकी पहली कहानी 1948 में प्रकाशित हो चुकी थी परंतु 'राजा निरबंसिया' (1957) से वे रातों-रात एक बड़े कथाकार बन गए। कमलेश्वर ने तीन सौ से ऊपर कहानियाँ लिखी हैं। उनकी कहानियों में 'मांस का दरिया,' 'नीली झील', 'तलाश', 'बयान', 'नागमणि', 'अपना एकांत', 'आसक्ति', 'ज़िंदा मुर्दे', 'जॉर्ज पंचम की नाक', 'मुर्दों की दुनिया', 'क़सबे का आदमी' एवं 'स्मारक' आदि उल्लेखनीय हैं।[1]
फ़िल्म एवं टेलीविजन
फ़िल्म और टेलीविजन के लिए लेखन के क्षेत्र में भी कमलेश्वर को काफ़ी सफलता मिली है। उन्होंने सारा आकाश, आँधी, अमानुष और मौसम जैसी फ़िल्मों के अलावा 'मि. नटवरलाल', 'द बर्निंग ट्रेन', 'राम बलराम' जैसी फ़िल्मों सहित 99 हिंदी फ़िल्मों का लेखन किया है। कमलेश्वर भारतीय दूरदर्शन के पहले स्क्रिप्ट लेखक के रूप में भी जाने जाते हैं। उन्होंने टेलीविजन के लिए कई सफल धारावाहिक लिखे हैं जिनमें 'चंद्रकांता', 'युग', 'बेताल पचीसी', 'आकाश गंगा', 'रेत पर लिखे नाम' आदि प्रमुख हैं। भारतीय कथाओं पर आधारित पहला साहित्यिक सीरियल 'दर्पण' भी उन्होंने ही लिखा। दूरदर्शन पर साहित्यिक कार्यक्रम 'पत्रिका' की शुरुआत इन्हीं के द्वारा हुई तथा पहली टेलीफ़िल्म 'पंद्रह अगस्त' के निर्माण का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। तकरीबन सात वर्षों तक दूरदर्शन पर चलने वाले 'परिक्रमा' में सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं पर खुली बहस चलाने की दिशा में साहसिक पहल भी कमलेश्वर जी की थी। वे स्वातंत्र्योत्तर भारत के सर्वाधिक क्रियाशील, विविधतापूर्ण और मेधावी हिंदी लेखक थे।[1]
प्रसिद्धि
उपन्यासकार के रूप में ‘कितने पाकिस्तान’ ने इन्हें सर्वाधिक ख्याति प्रदान की और इन्हें एक कालजयी साहित्यकार बना दिया। हिन्दी में यह प्रथम उपन्यास है, जिसके अब तक पाँच वर्षों में,2002 से 2008 तक ग्यारह संस्करण हो चुके हैं। पहला संस्करण छ: महीने के अन्तर्गत समाप्त हो गया था। दूसरा संस्करण पाँच महीने के अन्तर्गत, तीसरा संस्करण चार महीने के अन्तर्गत। इस तरह हर कुछेक महीनों में इसके संस्करण होते रहे और समाप्त होते रहे।
सम्मान और पुरस्कार
कमलेश्वर को उनकी रचनाधर्मिता के फलस्वरूप पर्याप्त सम्मान एवं पुरस्कार मिले। 2005 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से राष्ट्रपति महोदय ने विभूषित किया। उनकी पुस्तक ‘कितने पाकिस्तान’ पर साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया।
निधन
27 जनवरी, 2007 को फ़रीदाबाद, हरियाणा में कमलेश्वर का निधन हो गया।
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हिंदीपट्टी में साहित्य, संस्कृति और विचार के आह्वान के साथ शुरू हुई एक गंभीर पत्रिका ‘बया’ (2006) ने अपने सृजन-सरोकार स्तंभ के लिए लेखकों को चुना, तो उनकी नज़र में कमलेश्वर अग्रपंक्ति में नज़र आए। इस आलेख में कमलेश्वर लिखते हैं, ‘‘प्रेमचंद को उद्ध्त करते हुए साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल की कसौटी पर रखकर देखा जाता रहा है। उस समय भी गणेश शंकर विद्याार्थी जैसे पत्रकारों और शहीद भगत सिंह, बिस्मिल जैसे विचारशील नौजवानों ने ही विचार की मशाल को राजनीति के आगे रखा था। ...भारतीय किसान के उत्पीड़न, शोषण और बर्बादी का जितना चित्रण प्रेमचंद ने किया था, वह सब अकेले दम किया था। इसलिए आज के भी सारे साहित्यकारों से यही शिकायत करना कि वे संघर्ष और विचारों की मशाल लेकर आगे-आगे नहीं चल रहे हैं, एक बेमानी-सी बात है।’’
समकाल तथा देशकाल की ऐसी अचूक पारखी दृष्टि कमलेश्वेर के लेखन में हर जगह दिखाई देती है। उनकी रचनात्मकता में प्रतिबद्धता का लय है, तो आदिम आकांक्षा को स्वर देने की बेचैनी भी दिखाई पड़ती है। उनकी आलोचनात्मक दृष्टि अपने समय के अंतर्विरोधों से सीधे मुठभेड़ और हस्तक्षेप करती हुई दिखाई देती है। वे कहते हैं, ‘‘पिछले कुछ वर्षों में अस्मितावादी विमर्शों के शोर में किसान, मज़दूर और बेरोजगार नौजवान जैसे कहीं गुम हो गए हैं।’’ यह है असली साहित्यिक भावभूमि जिसमें भाट-चारण की फैलती-पसरती समकालीलन कुंठाओं और अ-साहित्यिक कर्म-काण्डों पर सीधा चोट है। कमलेश्वर बिना किसी घुमाव के आज के सबसे अधिक चिंताजनक पहलू को ‘ट्रेस’ करते हुए कहते हैं, ‘‘आज की सबसे बड़ी चिंता तो सामाजिक और आर्थिक न्याय की है और इस समय की यह सबसे बड़ी राष्ट्रीय चिंता बननी चाहिए। यह न्याय महज़ महानगरों के गलियारों में नहीं बल्कि आदिवासी और ग्रामीण अँचलों की गलियों में पहुँचना चाहिए। आज छोटे-बड़े राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलन चल रहे हैं वे आन्दोलन इन्हीं चिंताओं को व्यक्त कर रहे हैं।''
ऐसी तड़प और चिंता आज है, यह पूरे विश्वास के साथ कह सकने में संकोच होता है। ऐसी सोच के लेखकों जिनके लिए कमलेश्वर निःसंदेह आदरणीय रहे हैं; वे कमलेश्वर को व्यक्ति नहीं विचारधारा के रूप में आत्मसात किए हुए हैं। कमलेश्वर ‘बया’ (प्रवेशांक, 2006) में प्रकाशित ‘साहित्य और समाज की नई चुनौतियाँ’ शीर्षक आलेख में दो-टूक शब्दों में कहते हैं, ‘‘हालाँकि ऐसा नहीं है कि आज उद्देश्यपरक लेखन नहीं हो रहा है, हाँ उनका प्रकाशन नहीं हो पा रहा है; क्योंकि भूमण्डलीकरण की प्रवृत्ति ने साहित्य के आस्वाद को बाधित करने की कोशिश की है। आज हिंदी अख़बारों के जितने परिशिष्ट हैं वे सब व्यर्थ की जानकारियों से भरे रहते हैं; क्योंकि वे सचाइयों का सामना नहीं करना चाहते। यह लगभगग वैसा ही है, जैसा बम्बइया सिनेमा में होता है।’’
आज की तारीख़ में कमलेश्वर को याद करते हुए सिर्फ भावुक होने से काम नहीं चल सकता है। हमें अपने समय-समाज, कला, साहित्य, राजनीति आदि पर अपनी-अपनी निगाहबानी से वस्तुनिष्ठ ढंग का आलोचनात्मक विमर्श सामने रखना होगा। यह स्वीकार करना होगा कि कमलेश्वर ने भारतीय जनसमाज के लिए विचारों की जो असमाप्य श्रृंख्ला शुरू की है उसका हम एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं।
आगे पढ़िए, कमलेश्वर जी को समर्पित राजीव रंजन प्रसाद द्वारा लिखित एक जरूरी विचार एवं शोधपरक आलेख:
समकालीन साहित्य
एवं राजनीति
की छवि-प्रतिछवि
@ राजीव रंजन प्रसाद
लोकमंगल और जनकल्याण
की सात्त्विक अभ्यर्थना साहित्य का मुख्य अभिलक्ष्य है। यह बात हमारे अंतरतम में गहरे
पैठी होनी चाहिए। यह विश्वास होना जरूरी है कि साहित्य वह अक्षय निधि और चेतस कोष है
जो हमारे अन्दर मूल्य-निर्माण और मूल्य-निर्णय
का काम करती है। अर्थात् ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक परिसम्पत्ति
जो गाँव-देहात, कस्बा-शहर, नगर-प्रवास, समाज-समुदाय, संगठन-संस्थान, मजदूर-किसान, अनपढ़-नासमझ, पढ़ा-लिखा, स्त्री-पुरुष, धर्मावलम्बी-मतावलम्बी सबको जाग्रत करे और मनुष्यता के
चरम उत्कर्ष का संकेत दे। भारतीय मनीषा यह कहती है, साहित्य सिर्फ
आस्वाद का विषय नहीं है। साहित्यमना व्यक्तित्व वास्तव में किसानों-मजदूरों के संघर्ष एवं प्रतिरोध का सचेत गायक होता है, तो नगरीय त्रासदी और उत्तर शती द्वारा ऊपजाई गई कठिनाइयों को समझने वाला अगुवा
नायक। साहित्य उनके द्वारा लिखा जाता है जो भाषा के प्रति अति संवेदनशील होते हैं।
इसी भाषा के माध्यम से वे जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को स्थायी बनाते हैं। वे भाषा
को अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए जोड़ते-तोड़ते ही नहीं;
रचते-सँवारते भी हैं। अर्थात् साहित्य एक ऐसी कला-विधि है जो भाषा का सिर्फ प्रयोग ही नहीं करती है बल्कि भाषा की उपयोगिता यानी
उसकी उपादेयता को भी सिद्ध करती है; वह भाषा को माँजती-सँवारती, बुनती-बनाती भी है। बालकृष्ण
भट्ट ने उपयुक्त ही कहा है कि, ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास
है। वह जनसमूह के चित्त का चित्रण है।’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
के शब्दों में, ‘‘किसी भी सभ्य देश की शब्द-परम्परा और अर्थ-परम्परा के सामंजस्य-विधान से ही उसके साहित्य का स्वरूप निर्दिष्ट होता है। यदि इस सामंजस्य में
बाधा पड़ेगी अर्थात् मनमाने ढंग से विदेशी शब्दों के विचारों का बड़े पैमाने पर आयात
होगा तो साहित्य देश की प्राकृतिक जीवन धारा से विचिछन्न हो जाएगा।‘’
वर्तमान में पूँजी-चालित वैश्विक
घुसपैठ ने आमजन के ऊपर राजनीतिक जोर-बल-दाब इतना बढ़ा दिया है कि जनता, लोकतंत्र और साहित्य का
आपसी अंतःसम्बन्ध ख़त्म-सा हो गया है। राजनीति समाज पर प्रभावी
ही नहीं बल्कि उसे येन-केन-प्रकारेण बाज़ारीकृत
साँचे में ढाल लेने को आमदा भी है। ऐसे में साहित्य की भूमिका क्या हो और वह इस संकटग्रस्त
दौर में अपनी वास्तविक भूमिका का निवर्हन कैसे करे, यह प्रश्न
सबसे मुख्य है। भारतीय साहित्य की विभिन्न प्रवृत्त्यिों का अध्ययन-विश्लेषण करें, तो स्पष्टतया भारतीय साहित्य ने जन-सामान्य की भाषा में जनसमाज के असंतोष-आकांक्षा,
जटिलता-संघर्ष, अन्तर्विरोध-
द्वंद्व
आदि को उपयुक्त वाणी प्रदान किया है; राजसत्ता से सीधे टकराने के अतिरिक्त राजनीतिक
चेतना एवं सामुहिक प्रतिरोध के निर्माण में भी सार्थक योगदान दिया है। (पुस्तक-लेखक की नाम-सूची के लिए
विभिन्न प्रकाशनों से निःशुल्क वितरित ‘जर्नल’ तथा महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में सद्यःप्रकाशित समीक्षाओं,
नवलेखन सम्बन्धी आलोचनापरक आलेखों को अवश्य देखें) तब भी, राजनीति और साहित्य का सम्बन्ध क्या हो?
वर्तमान में इस बारे में विचार करना जरूरी हो गया है। विजयदेव नारायण
साही साहित्य और राजनीति को परस्पर अंतःसम्बन्धित मानते हैं, तो उसके पीछे उनका तर्क है कि, ‘’उठती हुई जनता का साहित्य
अनिवार्यतः एक बड़े अंश में राजनीति से प्रभावित होगा, इसलिए कि
राजनीति जनता के उत्थान का आवश्यक माध्यम है। साथ-साथ वह जनता
की कलात्मक प्रवृत्तियों का उत्थान कर नयी संस्कृति का पथ प्रशस्त करता है। यह उसका
स्थायी मूल्यों पर आधारित मानवोचित पहलू है।‘’ यह कला ही है, जो संस्कृति की ध्वनि का समस्त रूप है। अतएव, कलात्मक प्रवृत्ति होने के नाते साहित्य का उद्देश्य जीवन का उद्देश्य है। कवि
केदारनाथ अग्रवाल की दृष्टि में साहित्य-कला का उद्देश्य है वर्गविहिन समाज और राष्ट्र
की स्थापना करना जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वतन्त्रता रहेगी कि अपनी योग्यतानुसार
काम कर उसी के अनुरूप फल पाये।...इनके आवश्यक तत्त्व वे हैं जो
देश की समस्त प्रगतिशील शक्तियों के शोषित, शासित और विद्रोही
जीवन के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं से, प्रगतिशील तरीके से सम्बन्धित हैं और जो नवीन परिस्थितियों में जनसाधारण की
नयी प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न हुए हैं।‘’ इन प्रतिक्रियाओं को संवेदनशील तरीके से समझे जाने की जरूरत है। सबसे गाढ़ी चुनौती वर्तमानजनित समस्याओं, संघर्षों, पारिस्थितिकीय-तंत्र आदि से अपना तादात्मय स्थापित करने का है; अपनी
भूमिका को तय करने का है। आज जनतांत्रिक मूल्यों में ह्रास और सांस्कृतिक पतनशीलता
को लेकर चिंताएँ बढ़ी हुई हैं। अतएव, समाज के लिए सबसे वांछनीय जरुरीयात कौन-सी है, इस बारे में सार्थक रायशुमारी अत्यावश्यक है। लेखकीय जुबां में शब्द
बाँचते लोगों को इस ओर अपनी आँख रोपने की जरूरत अधिक है। यही नहीं हमें पाठकीयता की दृष्टि से अपनी भाषा, शैली एवं प्रस्तुतीकरण में
फेरफार भी करना होगा। 55 फीसदी युवा आबादी वाले इस राष्ट्र का
सम्यक् मार्गदर्शन किया जाना साहित्य का धर्म है और साहित्य-ज़मात
का लेखकीय कर्तव्य। यानी हम सबकुछ लिखकर या कुछ
भी परोस कर छुट्टी नहीं पा सकते हैं। हमें अपनी उपलब्धि गिनाने के साथ अपनी नाकामी
भी ढोनी होगी। आज ‘कर्म’ और ‘वचन’
के बीच दूरियाँ बढ़ रही है । नतीजतन, अभिव्यक्त-अभिव्यंजित शब्दार्थ अपनी साहित्यिक मूल्यवता और अर्थ-सत्ता खोते हुए दिख रहे हैं। इसके लिए राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। अधिसंख्य
राजनीतिज्ञों की साहित्यिक समझ और अध्ययनजीविता की प्रवृत्ति न के बारबर है। मुक्तिबोध
सही लक्ष्य करते हैं कि, ‘‘सम्पूर्ण मनुष्य सत्ता का निर्माण
करने का एक मात्र मार्ग राजनीति है जिसका सहायक साहित्य है। सो वह राजनीतिक पार्टी
जनता के प्रति अपना कर्तव्य नहीं पूरा करती है जो कि लेखक के साहित्य-निर्माण को व्यक्तिगत उत्तरदायित्व कहकर टाल देती है।'' यह बिना सोचे-समझे कि राजनीति के केन्द्र में साहित्य
का होना जनतांत्रिक-मूल्य आधारित नाभिक का ठोस एवं क्रियाशील
होना है।
स्वाधीन भारत में
राजनीतिक-गतिविधि की आरंभिक प्रक्रिया से आज तक के सफ़रनरनामे पर एक नज़र डालें,
तो सभी जानते हैं कि सन् 47 में
भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। यह समूचे भारत के लिए गौरव-गान का अवसर
था। भारत की खोई हुई पहचान दुबारा हासिल करने का सबसे उपयुक्त समय जिसमें सामूहिक अभिव्यक्ति की बहुविध स्वर-लहरियाँ शामिल थीं। यथा : उत्सर्ग, संघर्ष, प्रतिरोध,
राष्ट्रीय चेतना, सामूहिक एकता और बंधुत्व,
प्रगतिशील सोच एवं पारम्परिक मूल्यों में आस्था, निज भाषा, आधुनिकता
और वैज्ञानिकता, ज़मीनी
यथार्थ, क्षोभ, विद्रोह तथा प्रतिरोध की सम्यक् चेतना आदि। यद्यपि तत्कालीन राजनीति स्वार्थहित से परे नहीं थी, लेकिन इन प्रवृत्तियों
से ऊपर जरूर थीं। डाॅ. आम्बेडकर कानून और सरकारी
काम-काज के जानकार शख़्सियत थे। उन्हें पता था कि जनता के हक़-हकूक के साथ
हीला-हवाली, लालफिताशाही का रवैया
जल्द ही चलन में आ जाएगा; इसका काट उन्होंने आरक्षण के रूप
में निकाला जिसका होना गरीबों, वंचितों, शोषितों
आदि की ख़ातिर अमोघ अस्त्र साबित हुआ। खैर, गणतांत्रिक लोकतंत्र में कांग्रेस-प्रणाली की शुरुआत आजादी मिलते ही हो गई। अभिजन, अंग्रेजीदाँ, वर्णवादी प्रकृति के अधिसंख्य नेताओं को गद्दी संभालने का मौका मिला जिसमें ‘नेहरुवियन माॅडल’ के लोग अधिक थे। दरअसल, देश की बहुसंख्यक जनता उस घड़ी गुलामी की मारी थी। उसे संविधान का ‘क..ख...ग’ (विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका अथवा समानता-स्वतन्त्रता-बंधुत्व) नहीं पता था। ऐसे में वह अपने अधिकार और कर्तव्य के बारे में क्या और कैसे सोच पाती? उन दिनों अधिसंख्य राजनीतिज्ञ लोकतंत्र की बीसियों फायदे जनता को बता तो रहे थे, लेकिन उन्हें इसका लाभ कब और कैसे मिलेगा? यह नहीं बता रहे थे। नतीजतन, साठ के दशक में जनता जनप्रतिनिधियों के कोरे वादे से नाखुश हुई, तो उसकी अभिव्यक्ति का रूप आन्दोलन का हो गया। परिणाम था-‘भूदान
और नक्सलबाड़ी आन्दोलन’। लोकतंत्र की स्थापना, उपस्थिति और संसदीय कार्यकलाप से असंतुष्ट जनता की इस अभिव्यक्ति में युवा उत्तेजना अधिक थी, तो उनके स्वर आक्रामक थे। उन दिनों युवजन की ज़मीन पर सही और संगठित नेतृत्व का नहीं होना एक बड़ा दुर्भाग्य साबित हुआ। मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल केन्द्रित नक्सलबाड़ी आन्दोलन को बड़ी नृशंसता के साथ जमींदोज कर दिया गया। इस देशकाल में
लिखित-रचित कथा, कहानियाँ, उपन्यास और कविताएँ गवाह हैं जिसका जिक्र रौंगटे खड़ा कर देने वाला है। 1975 में राजनीतिक आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र में व्यक्ति-केन्द्रित राजनीति को अवतरित किया जिसे डाॅ. नामवर सिंह ने ‘हेवी हैंड’ कहा था। बाद में इसकी परिणति केन्द्र में पूर्णतया गैर-कांग्रेसी सरकार के रूप में उभरती दिखाई दी। इस नेतृत्व की नासमझी और आत्ममुग्ध अन्तर्कलह ने जनता का मोहभंग किया और इससे इंदिरा गाँधी की सत्ता में पुनःवापसी सुनिश्चित हुई। बाद के दिन में राजनीति में ढेरों परिवर्तन आए। समाजवादी युवा तुर्को ने जनतांत्रिक भरोसा खूब बँधाया, लेकिन जनता उनकी चारित्रिक-निष्ठा में खोट देख बिदक गई।
नब्बे के दशक की बात करें, तो यह
स्मरण करना उपयुक्त होगा कि इंदिरा काल के बाद केन्द्रीय नेतृत्व में राजीव गाँधी का नाम और चेहरा एकदम से नया था, किन्तु यह भी
सचाई है कि प्रधानमंत्री राजीव युवा थे और उनकी दृष्टि साफ-सुथरी थी, किन्तु उनमें समग्रतावादी सोच का पुर्णतया अभाव था। यद्यपि उनके दिमाग में वैज्ञानिक ढंग से विकसित भारत का नक्शा था जो उनकी असामयिक मृत्यु के साथ चकनाचूर हो गया। उनके निधन के बाद ‘मंडल-कमंडल-भूमंडल’ का दौर
शुरू हुआ। कांग्रेस ने जिस उपभोक्तावादी और साम्राज्यवादी नीतियों का अंगुली पकड़ा वह राजग गठबंधन के कार्यकाल में परवान चढ़ते हुए पहुँचा पकड़ ली। शनैः शनैः समय बीता और देश एक दिन सहस्त्राब्दी की दहलीज पर आ खड़ा हुआ। तब तक आपातकाल गुजर गया था और उदारवाद की नई अन्तरराष्ट्रीय संस्कृति ‘एलपीजी’ शब्दावली
(लिबराइजेशन,
प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) में प्रत्यक्ष विराजमान हो चुकी थीं। सन् 2000 में भारतीय जनता पार्टी और उसकी अनुषंगी पार्टियाँ सरकार में थीं और कांग्रेस विपक्ष में। सत्तासीन पार्टी के पास मोहक सपने, जुमले और लोकप्रिय वक्ता के रूप में अटल बिहारी बाजपेयी जैसा करिश्माई व्यक्तित्व था। लेकिन अफसोस! ‘भारतोदय’ और ‘अतुल्यनीय भारत’ का स्वांग रचाकर चुनाव जीतने की मंशा रखने वाली भाजपा नित राजग गठबंधन को मुँह की खानी पड़ी। उसे दुबारा उठने में लम्बा वक्त लगा, लेकिन आखिरकार सन् 2014 में राजग की ताजपोशी हुई, पूर्ण बहुमत के साथ फिर केन्द्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।
कहना न होगा कि बीते दशकों में जनता के कल्याण और विकास का राग अलापा जाता रहा। हुक्मरां बदलते रहे। सियासी समीकरण का नया रूप सामने आता गया, लेकिन भारतीय जनमानस का अभाववादी, गरीबीमूलक संस्करण दूर नहीं किया जा सका। छिटपुट आन्दोलन से लेकर हाल के आम-आदमी केन्द्रित ‘अण्णा-केजरीवाल’ आन्दोलन तक सबकुछ ऐसे ही चलता रहा। सबकुछ पटल पर घटित हुआ। विश्व-फलक पर चर्चा हुई। लेकिन आज भी भारतीय राजनीति दोराहे पर है। विश्वसनीय नेतृत्व के संकट से जूझ रही है। आम आदमी पार्टी ने आम
भरोसे का जिस कदर कत्ल किया; वह दुःखद है। बीते सात दशक में जनता ने बिना अधीर हुए सबकुछ सुना, देखा और सहा। किन्तु आज जनता राजनीतिक प्रसाद अथवा आशीर्वाद नहीं; अपना सम्पूर्ण अधिकार माँग रही है। उसे लोकलुभावन वादे से भरमाया जाना संभव नहीं है। वाक्जाल के माध्यम से फुसलाया जाना मंजूर नहीं है। यह और बात है, संघर्ष के खुले पाटों पर ज़मीनी लड़ाइयाँ लड़ रहे अराजनीतिक संगठनों में भी वह दमखम नहीं है जो कि मुख्यधारा की बेशर्म राजनीति और भ्रष्ट-तंत्र से मुक्ति दिला सके, आमजन के सुरक्षा-संरक्षा ख़ातिर दीर्घकालिन कोई सार्थक नीति एवं विकल्प प्रस्तुत कर सके।
ध्यातव्य है कि
ज्ञान आधारित सत्ता-मीमांसा के लिए जनसाधारण का अध्ययनजीवी होना आवश्यक है। जनता जागरूक, पढ़ी-लिखी और सचेत-सतर्क न हो, तो शासन की बागडोर थामे व्यक्ति के लिए ग़लत फैसले लेना आसान हो जाता है, क्योंकि निरक्षर और अनपढ़ जनता नीम-बेहोशी की अवस्था में जीवनयापन करती है। मूढ़ जनता राजनीतिक सहभागिता से बचती है। राजनीतिक शब्दावली से दूर भागती है। सांविधानिक मुद्दों पर खड़ा होने से कतराती है। इस तरह अशिक्षित और अबूझ जनता सीधे सवाल करने से अपना पाँव सदा पीछे खींचती है। जनता ऐसा कोई भी जोखिम लेना नहीं चाहती जिससे उसका वर्तमान प्रभावित हो या कि उसके तत्कालिक लाभ/फायदे को भारी नुकसान उठाना पड़े। आज पूरा राष्ट्र व्यक्तिगत बचाव और अतिरिक्त सुरक्षा की मुद्रा में है। यह और बात है, आज देश की चहुँदिशाएँ घनघोर आफत (किसान अपनी जान देने और नई पीढ़ी आत्महत्या करने पर विवश होती है, तो यह महज समस्या नहीं राष्ट्रीय संकट अथवा ‘आफत’ कहे जाने चाहिए) से घिरी हुई हैं, लेकिन सब अपनी साध रहे हैं। अकादमिकजनों से लेकर सैन्य दस्ते तक जड़ता की एकसमान स्थिति दिखाई पड़ रही है। लिहाजतन, राष्ट्रीयता के भाव-बोध, संकल्प-विकल्प, बलिदान-उत्सर्ग, गौरव-गरिमा आदि महत्त्वपूर्ण प्रश्न खटाई में पड़ते जा रहे हैं। सामूहिकता, सामाजिकता,
वैश्विकता,
मानवीयता आदि ग्रंथकोश के हवाले हैं और उनका शब्दार्थ निरस्त/ख़ारिज किया जा चुका है। सुधी पाठक बौराया हुआ है क्योंकि पाठ के भीतर का मर्म और मूल्य बाज़ार और उपभोक्ता-नीति से परिचालित
है। अफसोस! भारतीय सचेतनता का मेरुदंड माना जाने वाला बौद्धिक-लेखक वर्ग बेजुबान स्थिति में है। सबसे बुरी स्थिति यह है कि जो कुछ लोग ठीक-ठीक कहने, सुनने अथवा बोलने की स्थिति में हैं, उनकी बात, विचार,
बहस,
मुद्दों,
चिंताओं आदि को सायासतन अनसुना कर दिया जा रहा है या कि वह ‘यूथ-कनेक्टिंग’
तो बिल्कुल साबित नहीं हो पा रही हैं। जनभाषा के समर्थ और चेतस लेखकों (हिन्दी सहित सभी भाषाओं) की दारुण अवस्था किसी से छुपी नहीं है। जनभाषी वैचारिकी और विचारधारात्मक प्रतिरोध को मटियामेट करने वाली ताकतें आज
अंग्रेजी की ‘सरोगेट’ तथा ‘इम्बेडेड’ संतानें बन चुकी हैं जो लोगों तक पहुँचती सबसे कम हैं; लेकिन उनमें हीनता-बोध सबसे अधिक भरती हैं।
हमें यह बात नहीं
भूलनी चाहिए कि भारतीय साहित्य सदैव प्राची-प्रतीची के सहमेल, सद्भाव और सामंजस्य पर टिका रहा है। इसे देख पाने की समग्र दृष्टि और उदात्त भावना का होना आवश्यक है। भारतीय कला के सम्पूर्ण ब्यौरेवार अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय धर्म-दर्शन को संस्कृत, पालि, प्राकृत,
अपभ्रंश,
अवह्ट्ट आदि भाषाओं के साथ मिलाकर देखा जाए। दीगर सचाई है कि-जनभाषी लेखकों, साहित्यकारों, कलाकारों, नाटककारों आदि को पश्चिम से अलगाव-बिलगाव की स्थिति नहीं है; लेकिन वे अंधानुकरण (देसी-विदेशी) करने से बचते हैं जिसे अंग्रेजी की ‘लिट्फेबी’ पीढ़ी (साहित्यिक उत्सवी) आँख मूँदकर अपना लेती हैं। इस बाबत विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का कथन द्रष्टव्य है-‘‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतीय परम्परा को मानते हुए भी अंधानुसरण कहीं नहीं किया है। आधुनिक पश्चिमी शास्त्र-मीमांसा को विदेशी कहकर त्यागा भी नहीं है। यथास्थान उसके सत्पक्ष का संग्रह भी है।’’ यही कारण है कि भारतभाषी जनमानस प्लेटो, अरस्तू, लौंजाइनस, कांट, हीगेल, न्यूटन, गैलोलियो, शेक्सपीयर, मिल्टन, वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, आर्नल्ड, रिचर्डस, बनार्ड, ज्या पॉल सात्र, सीमोन बउआर आदि से बखूबी परिचित हैं; उन्हें करीब से पहचानते हैं। आधुनिक विकास की प्रगतिशील परम्परा में इनके अवदान का भारतीय अकादमिकजनों और स्वतंत्र लेखकों ने जिस कदर मान दिया है; वह सचमुच स्तुत्य है। नामों की सूची बनाएँ, तो फेहरिस्त काफी लम्बी है। किन्तु इसके नाते भारतीय मानुष विदेशी दासता स्वीकार कर लेने को अभिशप्त नहीं है, आतुर तो हरग़िज नहीं। क्योंकि पश्चिम ने उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद की जिस वैश्विक-संस्कृति को आगे बढ़ाया है उसमें मानवीयता के प्रश्न पीछे छूट रहे हैं। आज उन्माद की हद तक युद्ध को पैदा किया जा रहा है। आतंक का लिहाफ ले कर पूरे विश्व पर एकाधिकारवादी वर्चस्व के झंडे फहराए जा रहे हैं। कई बार वैश्विक युद्ध सम्बन्धी भारतीय मीडिया कवरेज सोची-समझी प्रस्तुति की बजाए
अंधख्याली अधिक मालूम देता है। हमारी मानसिकता पर यह प्रायोजित तरीके का सूचनात्मक ‘बम्बारडिंग’ है जो दुनिया के बारे में हमें सही दृष्टिकोण बनाने और इसकी बेहतरी के बारे में सोचने से रोकता है। हम युद्ध के कारण की जगह उसके विवरण पर अपना ध्यान अधिक केन्द्रित करते हैं जिससे समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है।
चित्रकार और संवेदनशील लेखक अशोक भौमिक सही ज़िरह करते हैं, ‘‘तमाम युद्धों के कारण
जो भी रहे हों, विनाश निरीह नागरिकों और सैनिकों
का ही होता रहा है। जिनका युद्ध की कूटनीति से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे बच्चे, बूढ़े, औरतें युद्ध में हताहत होते रहते हैं या विस्थापित होते रहते हैं। हिरोशिमा-नागासाकी में अणुबम, वियतनाम
में नेपाम बम, स्कड मिसाइलों की बारिश
में जो अनगिनत लोगों की मौतें हुई और जिन अनगिनत लोगों की हत्या आज भी जारी है वे दरअसल एक संख्या से अधिक कुछ भी नहीं रह गए हैं। युद्ध ने हमारी चेतना को कुंद बना दिया है। सूचना और तकनीक के नए माध्यमों के विकास और प्रसार के चलते विश्व के अधिाधिक लोग तब तक निरपेक्ष दर्शक बनकर घटनाओं का आनंद लेते रहते हैं जब तक गोली उनकी खिड़की से होकर कमरे में दाख़िल न हो जाती हो। किसी युद्ध में मरे हुए लोगों की संख्या से ही उस युद्ध की विभीषिका को मापने की हमारी मानसिकता अमानवीय है। आज राष्ट्रप्रेम, देशप्रेम, धर्म
आदि शब्दों को मानव प्रेम के समानांतर खोजना होगा कि ‘प्रेम’ की
इन संकीर्ण अवधाराणाओं से लाभ क्या आम जनता को हो रहा है या फिर राजनेताओं या धर्मगुरुओं को, जिनके द्वारा प्रचारित ऐसे मूल्य ही उनके
धंधे को बनाए रखने के लिए युगों से कारगर रहे हैं।‘’ मूल्यतः युद्ध का कारण
मानवीय सदाशयता का अभाव तथा मूल्यों का पतनशील और विघटित होते जाना है। डाॅ. मंजरी गुप्ता उपयुक्त विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं कि,
‘‘इस वैज्ञानिक युग में जब यंत्र-चालित भौतिकता सम्पूर्ण मानवीय और आध्यात्मिक
मूल्यों को विनष्ट करने के लिए खड़ी है। द्वंद्व की ऊहापेाह की स्थिति पूरी तरह मानवीय और वैश्विक समस्या है। अस्तित्व और
अनास्तित्व के बीच, जीवन और मूल्यों
के बीच, नैतिक और अनैतिक
के बीच, राष्ट्रवाद और घृणा
के बीच घिरी मनुष्यता व्यवहार और विवेक के बीच दुविधाग्रस्त है। परतन्त्रता और स्वतन्त्रता की सीमारेखा, व्यक्ति और समाज
का सर्वस्व संशय की नोंक पर है। अतः आज एक व्यक्ति किस प्रकार अपने चैतन्य की रक्षा इस सामूहिक जड़ता से कर सकता है; यह प्रश्न
आदि कवि के समय में भी ज्वलन्त था तथा आज के वर्ग-व्यवस्था वाले समाज में भी जीवन्त
है।‘’ सचाई हमारी आँखों
के सामने है कि उपभोक्ता
संस्कृति के बढ़त के बीच आज हर एक चीज बिकाऊ है, ग़लत नियत से हमारे ऊपर थोपी हुई है। आदर्श जीवन और आदर्श संकल्प की बात बेमानी- सी हो चली है। पूरनचंद्र जोशी के मुताबिक, ‘‘तथाकथित विकासशील समाजों के सन्दर्भ में आधुनिकता को ‘बाहरी विकास' की एक प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। ऐसा विकास जो बाहर से अनुप्रेरित और रचित है तथा देश के बाहर के मूल्यों, संस्थाओं,
प्रौद्योगिकियों तथा वित्तीय संसाधनों के आयात पर निर्भर है।''
हमें अपने ऊपर नियंत्रण रखना होगा। विशेषतया युवा पीढ़ी को बड़े ही दृढ़ता, साहस और आत्मविश्वास के साथ मौजूदा संकट से टकराना होगा। इस टकराहट में हमारा पहला सामना अपने ही व्यक्तित्व से होगा जो प्रकृतितः आंतरिक जीवनमूल्य से संचालित है। अर्थात् मूल्य जीवन की सत्ता है और वह प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद है जो प्रायः जिजीविषा के रूप में प्रकट होता है। सामान्यतः इस जीवनमूल्य की घनिष्ठता मानवमूल्य आधारित प्रकल्पों से होती हैं जो हमारे अन्दर ‘जातीय चेतना’ (मनुष्य होने की चेतना) को जिलाए रखती है। मनुष्य का संकल्प, उसकी प्रज्ञा, उसका एकान्त, उसकी निष्ठा और उसकी अविचल कर्म-शक्ति उसके जीवन में सबकुछ संभव कर सकती है। आन्तरिक चित्तवृत्ति एवं संस्कार आधारित इस मनोरचना को मनोविज्ञानियों ने ‘सामूहिक अचेतन’ (कलेक्टिव अनकंशियसनेस) कहा है। यहाँ प्रो. जवीद आलम के इस दृष्टिकोण से सहमत हुआ जा सकता है कि, ‘‘व्यक्ति अपनी चेतना स्थिर विचारधारात्मक दिशा और प्रत्यक्ष अनुभव से मिला-जुला कर बनाता है। व्यक्ति की विचारधारा में उसकी दुनिया के विभिन्न पहलुओं की उसकी समझ का मिला-जुला अक़्स होता है। विचारधारा में जिन्दगी और दुनिया के सभी पहलुओं का प्रतिनिधित्व हमेशा ही सही-सही नहीं होता। इसलिए चेतना कभी भी यथार्थ-बोध जैसी नहीं होती क्योंकि यथार्थ-बोध किसी न किसी रूप में प्रभावित किया जा सकता है। इसीलिए चेतना की एक परत हमेशा बदलती रहती हैं क्योंकि अनुभवों से पैदा हुए अन्तर्विरोधों को सम्पूर्ण रूप से कभी हल नहीं किया जा सकता। चेतना की अन्य परतें अधिक स्थायी होती हैं और लोगों की रोजमर्रा की विचारधारा की ज़मीन पर आधारित होती है।’’ प्रसिद्ध मनोविज्ञानी कार्ल गुस्ताव युंग ने जिसे ‘सामूहिक अचेतन’ कहा है; वह चेतना की इन्हीं अन्य परतों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण परत है। वर्तमान पारिस्थितिकी-तंत्र में हमारा यह ‘सामूहिक अचेतन’ सर्वाधिक संकटग्रस्त है। साम्राज्यवादी बाहरी शक्तियाँ विश्व-बाज़ार का सुरसा-मुँह लिए सामने खड़ी हैं। उपभोक्तवाद का ‘ऑक्टोपस’ हमारी हुनर, कला, हस्तशिल्प, लघु उद्यम आदि को तहस-नहस करने पर तुला है। हमारी जुबान काट ली गई है तथा हमारी भाषा के कब्र खोदने का षड़यंत्र जारी है। भारतीय मर्मज्ञता, विद्वता, प्रकांडता, उच्च कोटि की बौद्धिकता आदि सबकुछ अंग्रेजी में उपलब्ध है; लेकिन अपनी मातृभाषाओं में देर-सबेर अनूदित होने और बहुत बाद में पहुँचने के लिए अभिशप्त हैं। यह कोई महान सोच नहीं है, भाषाई चेतना की राष्ट्रीय अभिव्यक्ति तो हरग़िज नहीं।
उत्तर शती के विवेकशील प्राणी के रूप में अपनी पहचान करते हुए यदि इस वस्तुस्थिति पर संवेदनशील ढंग से विचार न किया गया, तो भारतीय जनसमाज की प्रकृति, अंतःवृत्ति और मनोरचना से सम्बन्धित अनेकानेक चीजें रहस्य मात्र बनकर रह जाएंगी। लोकतंत्र से चिढ़ने और उसकी सत्ता को अपदस्थ करने की सोच रखने वाले लोगों की मंशा भी यही है कि अराजक कार्रवाईयों तथा अपने बेहूदे आचरण के अतिशय प्रदर्शन द्वारा जनतंत्र आधारित संसद की गरिमा को नष्ट कर दिया जाए या कि न्याय आधारित उसकी समग्र चेतना की बोलती बंद कर दी जाए। प्रायः इस तरह की प्रक्रिया को राजनीतिक प्रणाली के अन्तर्गत छुपे तौर पर अंजाम दिया जाता है। इस ‘पैटर्न’
की
‘इनकोडिंग’
एवं
‘डिकोडिंग’
कुछ इस तरह की जाती है कि शोषण, अन्याय, भेदभाव, असमानता, अत्याचार आदि के बीजाणु-विषाणु प्रत्यक्षतः दिखाई न दें। ध्यातव्य है कि सामाजिक बहिष्करण एवं हाशियाकरण की स्थिति को यथावत बनाए रखने अथवा इन्हें बढ़ावा देने के लिए ‘भाषा’ को एक प्रमुख औजार के रूप में आजमाया जाता है; भाषिक राजनीति के गंदे खेल को उकसाया जाता है। साहित्य की
निगाहबानी से ये बातें ओझल न हो,
हमारी युवा पीढ़ी को इस सम्बन्ध में सचेष्ट होकर विचार करना है। यद्यपि अमानुषिक करतूतों का पर्दाफाश करने और इसके ख़िलाफ बोलने की शुरुआत भारतीय साहित्यकारों एवं समाजविज्ञानियों ने सबसे पहले की है। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बहुलतावादी राष्ट्र में वर्चस्वादी ताकतों, देसी अभिजात वर्गों और अराजक असंगठित समूहों की लम्बी होती पूँछ पर चिन्ता जताते हुए भारतीय बौद्धिकों ने साफ कहा कि अस्मिता से जुड़े प्रश्न अथवा पहचान की खोज जैसे पहलू सता-मीमांसा यानी ‘ऑन्टालॉजी’ से गहरे सम्बद्ध है। उन्होंने ‘पहचान’
(आइडेंटिटी)
को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना और इसे ठीक-ठीक सम्पूर्णता (ओवरऑल एण्ड होल) में चिह्नित करने का प्रयास किया। विशेषतया सीमान्त अथवा हाशिए पर जबरिया छोड़े/रखे लोगों के बढ़ते हस्तक्षेप, प्रतिरोध एवं बहुविध आन्दोलनों को उन्होंने सबसे सार्थक और उपयुक्त कार्रवाई कहा। कला, साहित्य, समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थव्यस्था आदि के गुणीजनों ने राजनीतिक प्रणाली के विकेन्द्रीकरण और सत्ता के सर्वहाराकरण को अनिवार्य मानते हुए इसके लिए जारी संघर्ष एवं प्रतिरोध को आवश्यक कार्रवाई की श्रेणी में सबसे ऊपर रखा है। उनका मानना है कि ऐसी पहलकदमी के बगैर भारत जैसे जातिवादी समाज को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। राष्ट्रीय कल्याण और कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दृष्टि से भी सत्ता में सबकी सहभागिता, बोलने की आजादी और सांविधानिक आचरण के अनुरूप सबको निर्णय लेने की छूट अत्यावश्यक है। अस्तु,
यह बहुविध दृष्टि से अपरिहार्य है। यथा : राष्ट्रीय अस्मिता की पुनर्रचना, राज्य की पुनर्रचना, पारिस्थितिक चेतना की पुनरर्चना, संस्कृति एवं सभ्यता सम्बन्धी तत्त्वों की पुनर्रचना, अन्तरराष्ट्रीय मानकों और वैश्विक भूगोल के नवाचारी दृष्टि के अन्तर्गत की जाने वाली पुनर्रचना आदि। ऐसा होना कर्मकाण्ड आधारित वर्णवादी समाज-व्यवस्था को सीधी चुनौती है जिसने पूरे भारतीय जनसमाज को पाखण्ड, पागलपन और पतन की हद तक अंधविश्वासी बना रखा है। अब तक केन्द्र में रहीं सभी सरकारों ने विकासवादी ढाँचे का नकली प्रतिमान सामने रखा है। प्रभुत्त्व वर्ग प्रायः सामाजिक हित और जनहित के लिए सार्वजनिक विलाप करते नज़र आते हैं। इस कुनबे में शामिल अधिसंख्य लोग स्वांगधारी और बहुरुपिया हैं। जैसे-राजनेता, राजनीतिक प्रवक्ता, नौकरशाह,
पूँजीपति,
उद्यमी,
कारोबारी,
मुनाफाखोर,
कालाबाज़ारी,
नियोजक,
नियोक्ता आदि। यही कारण है कि ‘ब्रांडेड’ परिधान-पोशाक पहनने और महँगे वाहनों से सैर-सपाटा की शौक पालने वाले राजनेता, नौकरशाह और अभिजात वर्ग संवेदनशील प्रकृति के नहीं हैं। किसी गरीब की कुटिया
में एकदिनी ‘लंच’ का पाखंड करने वाले घोर कांग्रेसी दुलरूआ राहुल गाँधी आमजन के ‘आँख-सितारा’
नहीं है। खुद को समाजवादी और राजनीति का माहिर खिलाड़ी बताने वाले युवा अखिलेश भी किसी भरोसे के काबिल नहीं है। वाकई
आज की युवा राजनीति निराश करती है। उनकी भाषा-शैली और शाब्दिक-अशाब्दिक आचरण-व्यवहार से जो पीड़ा होती है उसके लिए अलग से विस्तृत अध्ययन-पड़ताल, व्याख्या और विश्लेषण की जरूरत है।
यह कितना दुःखद है कि भारतीय लोकतंत्र की मौलिक अभिदृष्टि ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की रही है जबकि आधुनिक राजनीति आधारित जनतंत्र में इस सोच एवं चिन्तन-दृष्टि का पूर्णतया अभाव है। इस अभाव के रहते जनता के ‘अच्छे दिन’ नहीं आने वाले। स्त्रियों के ऊपर किए जा रहे जुल्म और उत्पीड़न की घटनाओं में कमी नहीं आ सकती। जनता प्राकृतिक आपदा के बीच दूभर जिन्दगी जीने से नहीं बच सकती। हाँ, प्रतिक्रियास्वरूप पैदा होने वाली सांवेगिक उत्तेजना, तीव्रता और संवेदनशील सोच को बेअसर जरूर किया जा सकता है। 24x7 न्यूज़ चैनलों ने यह काम बड़ी होशियारी से किया है। तथ्य के साथ ध्वनि एवं संगीत के मिश्रण से एक विस्मयकारी रोमांच पैदा कर रखा है जो घटनाओं की असली व्यंजकता को दबाती है और उसके ऊपर एक सहनशील मुलम्मा मढ़ देती है। पेशेवर ‘ब्रेक’ की आदत ने एक अतिरंजित ‘क्लाइमेक्स’
को जन्म दिया है जो हमारे अंदरूनी भाव-संवेदना को ‘नेगलेट’ करती है जबकि बाजारू मानसिकता को अधिकाधिक प्रश्रय देती है। इसी तरह पौराणिक मिथक आधारित दैवीय-स्तुति एवं भगवत्-कृपा के अकर्मण्य विधि-विधान से हमारा पूरा जन-समाज मोहक तरीके से घिरा हुआ है, जो सीधे अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं और आधुनिक चेतनायुक्त मुख्य प्रत्ययों (व्यक्ति की स्वाधीनता, मानवाधिकारों की गारंटी, लोकतन्त्र, समता, समान अवसर, सामाजिक शांति, वर्गीय सहमेल, लैंगिक समानता, साम्प्रदायिक सद्भाव, सम्पन्नता, सामाजिक प्रगति, वैज्ञानिकता,
अन्तरराष्ट्रीयता,
आध्यात्मिकता,
विचारधारा आदि) को ग़लत ठहराते हैं।
सूचनाक्रांत इस दौर की मूल कठिनाई युवा-जीवन के सामने है; वह द्वंद्व में फँसा है । दरअसल, युवजन को मार्ग दिखाने वाली विश्वसनीय संस्थाओं, समितियों, संगठनों, अकादमियों इत्यादि ने अपनी जवाबदेहियों और प्रतिबद्धताओं से मुँह फेर लिया है अथवा अप्रत्याशित ढंग से वह अपने निकम्मेपन का भौड़ा चेहरा प्रदर्शित कर रही हैं। समाज अनुशासित सन्मार्ग और प्रगतिशील मूल्य दिन-ब-दिन कमते जा रहे हैं, तो मनुष्यता की सार्वभौमिक चेतना और दृष्टिकोण मनुष्यजनित तथाकथित आधुनिक और उत्तर आधुनिक समस्याओं से बुरी तरह घिर चुकी हैं। लिहाजा, आज की युवा पीढ़ी राजनीतिक समाजीकरण और राजनीतिक चेतना से दूर है। उनकी अभिवृत्ति और अभिरुचि में राजनीतिक अभिप्रेरणा और सम्प्रेषण का सर्वथा अभाव है। यह भी कि युवजन के भीतर अपने वर्तमान युग से वास्तविक साक्षात्कार का भाव, बोध, दृष्टि, स्वप्न, कल्पना इत्यादि गायब हो चले हैं। देखने में यह भी आ रहा है कि सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था-निर्माण में सहयोगी इकाइयों का स्वयं अपने ऊपर नियंत्रण, अनुशासन अथवा स्वनियमन नहीं हैं। आज अधिसंख्य युवा-पीढ़ी अपने भूत के कालपक्ष से अनभिज्ञ है, तो वर्तमान के प्रति वह सचेष्ट, समर्पित और चेतस होने की बजाए दिग्भ्रमित और आभासी सम्मोहन में ऊब-चूब करती दिखाई दे रही है। दूषित एवं संक्रमित इस वातावरण और परिस्थिति में भारतीय युवा-पीढ़ी के समक्ष मुख्य चिंता अपनी पहचान और अस्मिता को लेकर है; जो परत-दर-परत लगातार ऊखड़ रही है। आज अधिसंख्य युवजन तनाव, चिंता, कुंठा, अवसाद, निराशा, हताशा, आक्रामकता, आक्रोश, अकेलापन, अजनबीयत, टूटन आदि के शिकार अथवा भुक्तभोगी हैं।
मनोविज्ञानियों की मानें, तो कम उम्र में ही नशे की लत, व्यवहार में अटपटापन, बोलचाल में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग, असभ्य आचरण, परम्परा एवं संस्कृति के प्रति उपेक्षाभाव, अपराध-वृति, हिंसक रवैए, दुष्कर्म जैसे जघन्य कृत्यों में संलिप्तता युवा-मनोवृत्ति के परेशानहाल होने का सूचक है और उनके जीवन-व्यक्तित्व के मुश्किल और जटिल होते जाने का परिचायक। मनोसमाजविज्ञानियों की राय में, आजकल यह व्यक्ति-विशेष की बीमारी अथवा रोग नहीं है; अपितु पूरे समाज के अन्दर इसने एक ‘व्यवहारगत समस्या, मनोवृति एवं प्रवृत्ति’ का रूप ले लिया है। थोड़ी तफ़्तीश के लिहाज से इस उम्र के युवाओं की पृष्ठभूमि पर नज़र डालें, तो यह युवा पीढ़ी जिन शैक्षणिक स्थनों से शिक्षित हो रही हैं या जो संस्थान इन युवाओं का भवितव्य बनाने में अहिर्नश जुटे होने का दावा करते दिख रहे हैं; इन समस्याओं की जड़ और जद में वे स्वयं भी आते हैं। यानी जिस युवा पीढ़ी को शिक्षित और जागरूक बनाने के लिए नामी-गिरामी सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाएँ-अकादमियाँ इन युवाओं से मोटी रकम पढ़ाई के नाम पर ऐंठ/वसूल रही हैं; वह खुद बीमार और लकवाग्रस्त हैं। कहा जाता है कि अध्ययन-अध्यापन और अध्यवसाय की प्रवृत्ति विकसित करने में छह मानसिक-शक्तियाँ मददगार होती हैं: 1) आशा,
2) उत्साह,
3) साहस,
4) व्यवस्था,
5) मनोयोग और 6) प्रसन्नता। किन्तु मौजूदा दौर आर्थिक पराक्रम, देहवाद और अपसंस्कृति को खुली छूट देने का समर्थक है। भूमंडलीकृत बुद्धिवादियों ने जड़ता-मुक्ति का नारा दिया है। उसका विद्रुप यह है कि ये अब किसी भी चीज को सत्य, संगत और सम्यक् मानने को तैयार नहीं हैं। उनकी दृष्टि में व्यक्तिवादिता और चरम उपभोग ही वरेण्य है, शेष सभी तुच्छ या ख़ारिज करने योग्य। असल में भूमंडलीकृत बुद्धिवादियों का समूह अपसंस्कृति के इज़ाफे द्वारा पारम्परिक जीवन-मूल्यों और सामाजिक बोल-बर्ताव की स्वाभाविकता को नष्ट कर देना चाहते हैं। विशेषतया वे नई पीढ़ी को चेतस, मानवीय,
उत्सवधर्मी और शांतिपूर्ण तरीके से सम्यक् जीवन जीने का संकल्प-सूत्र नहीं प्रदान कर रहे हैं। उनकी असली मंशा उपभोगवादी प्रवृत्तियों को येन-केन-प्रकारेण प्रश्रित करना मात्र रह गया है। बकौल प्रभात रंजन, ‘‘सामाजिक संरचना में ऊपर की तरफ जाने का सपना कोई बुरी चीज नहीं है, महत्त्वाकांक्षा का होना कोई बुरी बात नहीं है; लेकिन, आज किसी तरह से मशहूर होने की ललक बहुत तेजी से बढ़े हैं। उसके लिए अपेक्षित मेहनत करने से सब बचना चाहते हैं। सोशल मीडिया के अनेक माध्यमों ने आज युवाओं के सामने अपनी प्रतिभा को रखने और उसकी बदौलत प्रसिद्धि पाने के अनेक अवसर सुलभ करवा दिए हैं।’’ भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार दीपक नैय्यर का भूमंडलीकरण को लेकर की गई टिप्पणी अत्यंत समीचीन है, ‘‘1980 के दशक के बाद से तमाम भौतिक प्रगति के बावजूद दुनिया भर के लोगों के बीच गैर-बराबरी काफी ज्यादा बढ़ी है। पिछले ढाई दशक का यह दौर भूमंडलीकरण यानी ग्लोबलाइजेशन का है जिसने लोगों पर काफी असर डाला है। बेशक कुछ के लिए इसने अवसरों के द्वार खोले हैं और पूँजी बढ़ाई है; पर ज्यादातर के लिए यह बेरोजगारी और गरीबी लेकर आया है। इसमें विजेता कुछ ही हैं, मगर गँवाने वाले अधिक। हर उभरती अर्थव्यवस्था में मध्यवर्ग और ‘सुपर रिच’ एवं ‘अल्ट्रा रिच’ यानी अत्यधिक धनाढ्य लोग विजेता बने हैं, तो औद्योगिक देशों में गरीब एवं हाशिए के लोग वंचितों में शामिल हैं। भले ही भूमंडलीकरण इसकी एकमात्र वजह न हो, मगर यह एक ऐसा कारक जरूर है जिसे नजरअंदाज कतई नहीं किया जा सकता।’’
नई पीढ़ी का हिस्सा
होने के नाते मुझे यह बार-बार लगता है कि, आजादीपूर्व आस्था का एक हरा-भरा खेत जो राष्ट्रीयता, देशप्रेम, प्रतिबद्धता और वीरों की गौरवगाथाओं के रूप में लहलहाया करता था, वह धीरे-धीरे बंजर हो चुका है।
बीते दो सालों में हो और चल क्या रहा है, प्रत्यक्ष और आँखन की देखी है। इस समय देश ‘हर हाथ काम’ की जगह ‘हर हाथ स्मार्ट फोन’ नारे के साथ है। ‘जिओ’ संग जीने दो की युवा अपील में इंटरनेट ही आज सबसे बड़ा व्यवस्थापक हो गया है। यह घोर त्रासदी है। इस सम्मोहन से जल्द से जल्द निकलना आवश्यक है। ‘पेपरलेस’ और ‘कैशलेस’ टिकाऊ विकास का सूचक-संकेतक नहीं है, यह चीज हमें सर्वप्रथम समझनी होगी। यह सारा खेल आॅनलाइन पूँजीकरण का है जिस पर बढ़ती निर्भरता हमें कल की तारीख़ में छोटी-बड़ी हर चीज में आत्मनिर्भर होने से वंचित कर देगी। दरअसल, यह सच-झूठ का ‘कॉकटेल’ है जिसे लज़ीज भाषा के मुहावरे में छाना-पसारा गया है। भाषिक राजनीति के लौकिक-अभ्यास द्वारा भूमंडलीकरण, पूँजीकरण, निजीकरण, निगमीकरण, उदारीकरण आदि को विकास का स्थायी चरित्र घोषित कर दिया गया है। स्मार्ट-फोन न हो, तो लड़कियाँ गलफ्रेंड नहीं बन सकती हैं। ऑनलाइन पेमेंट न हो, तो रोजगार के लिए आवेदन नहीं किया जा सकता है। ‘बिग बाज़ार’ और ‘बिग बॉस्केट’ न हो तो आप फल-सब्जी,
आलू-भिंडी-चिकेन-टमाटर तक नहीं खरीद सकते हैं। सरकार संचार और सूचना-प्रौद्योगिकी के पक्ष में उन्माद के स्तर तक आगे बढ़ चुकी है। देर-सबेर हमें यह समझना ही होगा कि ‘आधुनिकता जब पतनोन्मुख
होती है, तो सनकी
हो जाती है या फिर दंभी।‘ प्रोफेसर ब्रेजिंस्की काफी पहले यह आगाह
कर चुके हैं कि, ‘‘कंप्यूटर और संचार-व्यवस्था की प्रगति के फलस्वरूप मनोवैज्ञानिक, आर्थिक एवं समाजशास्त्रीय स्तर पर एक
नयी सभ्यता उदित होने जा रही है, जो आज
की समस्याओं और मूल्यों को तहस-नहस करने के साथ
ही ऐसी एक परम्परा का सूत्रपात करेगी कि उसका एहसास पिछड़े देशों के लोग कर ही नहीं सकेंगे। इस नयी क्रांति का नेता बीती हुई शताब्दियों के जैसा कोई सिद्ध पुरुष नहीं होगा, किन्तु इसका प्रभाव कई गुना
चक्राकार एवं तलस्पर्शी होगा। यह समूची प्रक्रिया कुछ इतनी तेजी से घटित होगी कि कुछ अंशों तक इसका आघात बर्दाश्त करना भी सबके लिए संभव न होगा।‘’
आलोचनात्मक दृष्टि
से देखें, तो आरोपित हुंकार और शंखनाद के बीच घिरती जा रही भारतीय राजनीति के लिए यह शुभ-संकेत नहीं है। हमारी राजनीतिक विज्ञान के मुख्य केन्द्रक भारतीय जनसमाज है; अमेरिका,
जापान,
ब्रिटेन,
चीन,
रूस,
फ्रांस कदापि नहीं। भारतीय साहित्य की भावधारा में भारतीयता का अन्तर्मन विराट एवं दिव्य रूप में स्थापित है न कि अमेरिकन और ब्रितानिया संस्कृति, समाज और जीवन-शैली।
हमारे मनीषी साहित्यकारों, वैयाकरणों, बहुभाषाभाषी
चिंतकों आदि ने मानवीय जगत के शाश्वत मूल्यों, मूल प्रवृत्तियों के परिष्करण
और परिमार्जन की संभावनाओं को स्थापित करने का प्रयास किया। स्वयं नवजाग्ररण के अग्रदूत और पत्रकारिता के श्लाका पुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अंग्रेजी शासन-व्यवस्था के दौरान
देश की धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक
मृतप्राय परम्परा को जीवनदान दिया। उन्होंने अंग्रेज शासन-व्यवस्था से उत्पन्न
अराजकता, असंतोष और अभावग्रस्तता को साहित्य के माध्यम से जनसाधारण को परिचित कराया। आज एक बार फिर से सहृदय पाठकों को ऐसे ही चैतन्यमना की तलाश है, साहित्यिक मूल्यों के आविर्भाव
और उसके फैलने-पसरने की उत्कट
चाह और मनोकांक्षा है। इसी मनोभावना और स्मृति-संस्कारों का प्रतापबल
है कि भारतीय जन-मन चुनावी प्रोपेगेण्डा (अच्छे दिन, स्वच्छता अभियान, गंगा बचाओ, गैस सब्सिडी,
गौ-रक्षा,
काला धन खुलासा, सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी आदि) का पर कुतरना जानती है। वह हर किस्म के छलावे और भूलभुलैये से बचना और बरी होना जानती है। देश की विवेकी जनता सच और झूठ से भली-भाँति परिचित है। उसकी छठी इन्द्रियाँ जाग्रत है। अतः शिक्षित जनता यह जान चुकी है कि झूठी प्रशंसाओं एवं गैर-जरूरी अनुशंसाओं के मार्फत सरकार अपना हित साधने में जुटी है। वह अपनी असफलता को मीडिया-खरीद के माध्यम से ‘चेक एण्ड बैलेंस’ करने की फ़िराक में है। इस खेल में मीडिया पूरी तरह शामिल है। अंधव्यवसाय की आड़ में नामीगिरामी जनसंचार माध्यम ग़लत चीजें लगातार परोस/प्रस्तुत कर रहे हैं। असंगत, दुराग्रहयुक्त और पूर्वग्रह से अटे पड़े व्याख्याओं, विश्लेषणों तथा निरर्थक (बेमतलब और अर्थहीन) कर्मकाण्डों का प्रचार-प्रसार करना आज मीडियावी स्वभाव बन गया है, जिसे वे अपने हित-लाभ कि लिए इरादतन अंजाम दे रहे हैं। मुनाफाखोर अधिसंख्य मीडिया संस्थान जान चुके हैं कि सरकारी और गैर-सरकारी सभी संस्थाएँ ‘पहचान’ के संकट से गुजर रही हैं। उनकी असली अस्मिताएँ खतरे में हैं तथा मूल्य और नैतिकता की दृष्टि से आज वह अधोपतन की शिकार हैं। सामयिक संकटों और विडम्बनाओं को उकेरती डाॅ. प्रभा दीक्षित की एक कविता अत्यंत समीचीन मालूम पड़ती है जिसे उन्होंने ‘इतिहास के गवाझ’ शीर्षक से लिपिबद्ध किया है-
‘’उन्होंने विकसित किया है
एक सम्पूर्ण तंत्र
अपने मानवद्रोही इरादों के लिए।
पहले वे ईजाद करते हैं
एक नया दर्शन
फिर उसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता के लिए
करते हैं धर्म, नीति और इतिहास में
एक व्यापक घालमेल
शब्दों के खेल
नये-नये विमर्श।
प्रकारान्तर से वे सिद्ध करेंगे
भूख के बरअक़्स
दंगों और युद्धों का औचित्य
सुन्दरियों के न्यूड प्रदर्शन
बाज़ारवाद का नया परिवर्तन
प्रजातांत्रिक तरीके से फासिज़्म का आगमन
विचारशील मुद्रा में विचारहीन मंथन।
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्राता के नारों
और सांस्कृतिक अनुरंजन की आड़ में
हम देख नहीं पायेंगे
वह भयावह चेहरा
जो इतिहास के गवाक्षों से झाँक रहा है।‘’
सचमुच सामयिक चुनौती गाढ़ा और आत्मवेधक है। क्योंकि लोकतांत्रिक
‘अधिरचना’
(सरफेस)
पर कब्ज़ा जमाए मठाधीश अपनी कब्जेदारी छोड़ने के मूड में नहीं है। इस कारण जन-गण को बरगालने और उन्हे मुर्ख साबित करने का प्रयास सुनियोजित (चालाकीपूर्वक) तरीके से हो रहा है। इसे देख सभी रहे हैं, लेकिन एकरूप चुप्पी पसरी है। जबकि जनतांत्रिक मानसिकता और साहित्यिक चित्तवृत्ति वाले भारतीय जनमानस के लिए यह अत्यन्त खतरनाक और घातक पारिस्थितिकीय-तंत्र है। ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की
अन्तर्भावना वाले हम भारतवासियों का सारा बल संस्कृति निर्माण की ओर होता है। हम जानते हैं कि सिद्धान्तों के बल पर हम सम्प्रदाय स्थापित कर सकते हैं, पर मूल्य आधारित संस्कृति का निर्माण कर सकना असंभव बात है। खासतौर पर यह सोचना कि विज्ञान और यांत्रिकी एक दिन आदमी की सब समस्याएँ सुलझा देगी, काले जादू पर विश्वास करने जैसा है। दिवंगत साहित्यकार कैलाश वाजपेयी का यह कहना समीचीन है कि, ‘‘विज्ञान और उसकी बेटी यांत्रिकी सुविधा तो देती है, मगर मूल्य नहीं गढ़ती। यही नहीं, वह एक तरह की मूल्य-मूढ़ता को जन्म देती है; सिर्फ हिंसा और आत्महत्याओं को बढ़ाती है, एक ग़लत शुरुआत करके फिर दूसरी ग़लतियों की ओर मुड़ती चली जाती है।‘’ अतएव, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे समय की चेतस पीढ़ी अपने शब्द और कर्म की
जुगलबंदी से नवलेखन का आकाश समृद्ध करेगी और सुधी आलोचकों के निकष पर खरे उतरने का
हरसंभव प्रयास करती दिखाई देगी।
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सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
अरुणाचल प्रदेश-791 112
मो. :
09436848281
Email : rrprgu@gmail.com
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